ओटक्कुष़ल
गोविन्द शंकर कुरुप की रचना ओटक्कुषल् (बाँसुरी) वह पहली पुस्तक है जिसे ज्ञानपीठ के लिए १९६५ में चुना गया। इसकी कविताओं में भारतीय अद्वैत भावना का साक्ष्य है, जिसे ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित महाकवि जी, शंकर कुरूप ने प्रकृति के विविध रूपों में प्रतिबिम्बित आत्मछवि की गहरी अनुभूति से अर्जित किया है, केवल परम्परागत रहस्यवादी मान्यता को स्वीकार भर कर लेने से नहीं। चराचर के साथ तादात्म्य की प्रतीति के कारण कवि के रूमानी गीतों में भी एक आध्यात्मिक और उदात्त नैतिक स्वर मुखरित हुआ है। कुरूप बिम्बों और प्रतीकों के कवि है। इनके माध्यम से परम्परागत छन्द-विधान और संस्कृतनिष्ठ भाषा को परिमार्जित कर उन्होंने अपने चिन्तन को समर्थ अभिव्यक्ति दी है। इसलिए कथ्य और शैली-शिल्प दोनों में ही उनकी कविता मलयालम साहित्य ही नहीं, भारतीय साहित्य की एक उपलब्धि बनकर गूँज रही है।
ओटक्कुष़ल | |
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मुखपृष्ठ | |
लेखक | जी.शंकर कुरुप |
देश | भारत |
भाषा | मलयालम |
विषय | साहित्य |
प्रकाशक | भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशन तिथि |
११ नवम्बर १९६६ (प्रथम संस्करण) |
पृष्ठ | ३९५ |
आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ | 8126303824 |
२००२ में इसके नये संस्करण का प्रकाशन साहित्य प्रेमियों के लिए गौरव की बात है। अपनी पुस्तक के विषय में कवि कहते हैं, ‘‘हो सकता है कि कल यह वंशी, मूक होकर काल की लम्बी कूड़ेदानी में गिर जाये, या यह दीमकों का आहार बन जाये, या यह मात्र एक चुटकी राख के रूप में परिवर्तित हो जाये। तब कुछ ही ऐसे होंगे जो शोक निःश्वास लेकर गुणों की चर्चा करेंगे; लेकिन लोग तो प्रायः बुराइयों के ही गीत गायेंगे : जो भी हो, मेरा जीवन तो तेरे हाथों समर्पित होकर सदा के लिए आनन्द-लहरियों में तरंगित हो गया।’’
धन्य हो गया।’’[1]
कवि की काव्य चेतना ने ऐतिहासिक तथा वैज्ञानिक युगबोध के प्रति सजग भाव रखा है और उत्तरोत्तर विकास पाया है। इस विकास-यात्रा में प्रकृति-प्रेम का स्थान यथार्थ ने, समाजवादी राष्ट्रीय चेतना का स्थान अन्तर्राष्ट्रीय मानवता ने ले लिया और इन सब की परिणति आध्यात्मिक विश्वचेतना में हुई जहाँ मानव विराट् विश्व की समष्टि से एकतान है; जहां मृत्यु भी विकास का चरण होने के कारण वरेण्य है। कुरूप बिम्बों और प्रतीकों के कवि हैं। उन्होंने परम्परागत छन्द-विधान और संस्कृति-निष्ठ भाषा को अपनाया, परिमार्जित किया और अपने चिन्तन तथा काव्य-प्रतिबिम्बों के अनुरूप उन्हें अभिव्यक्ति की नयी सामर्थ्य से पुष्ट किया। इसीलिए कवि का कृतित्व कथ्य में भी शैली-शिल्प में भी मलयालम साहित्य की विशिष्ट उपलब्धि के रूप में ही नहीं भारतीय साहित्य की विशिष्ट उपलब्धि के रूप में ही नहीं, भारतीय साहित्य की एक उपलब्धि के रूप में भी सहज ग्राह्य है।