समवाय या कम्पनी, व्यापारिक संगठन का एक रूप था। संयुक्त राज्य अमेरिका में कम्पनी एक निगम होता है- जिसका आशय एक संघ, संगठन, भागीदारी से हो सकता है और ये एक औद्योगिक उद्देश्य से जुड़ी होनी चाहिये।

'कम्पनी' शब्द लातिन भाषा से लिया गया है जिसका अर्थ 'साथ-साथ' है। प्रारम्भ में कम्पनी, ऐसे व्यक्तियों के संघ को कहा जाता था जो अपना खाना साथ-साथ खाते थे। इस खाने पर व्यवसाय की बातें भी होती थी। आजकल कम्पनियों का आशय ऐसे संघ से हो गया जिसमें संयुक्त पूंजी होती है।

कम्पनी का आशय कम्पनी अधिनियम के अधीन निर्मित एक 'कृत्रिम व्यक्ति' से है, जिसका अपने सदस्यों से पृथक अस्तित्व एवं अविच्छिन्न उत्तराधिकार होता है। साधारणतः ऐसी कम्पनी का निर्माण किसी विशेष उद्देश्य की प्राप्ति के लिए होता है और जिसकी एक सार्वमुद्रा (common seal) होती है।

गौरव श्याम शुक्ल के अनुसार,

कम्पनी व्यक्ति व्यक्तियों का एक ऐच्छिक संगठन है तथा यह विधान द्वारा निर्मित की जाती है। इसका स्वयं का प्रबन्ध संचालक मण्डल, पूंजी व स्वयं की सार्वमुद्रा होती है। कम्पनी अधिनियम 2013 के अनुसार कम्पनियां दो प्रकार की होती हैं- प्राइवेट कम्पनी व सरकारी कम्पनी। प्राइवेट कम्पनी के लिए सदस्यों की संख्या कम से कम दो और अधिकतम 200 तक सीमित है तथा सरकारी कम्पनी के लिए कम से कम दो और अधिकतम कितनी भी हो सकती है।

( उदाहरण - talapa and company यह एक कट्रक्शन कम्पनी है )

इतिहास एवं विकास संपादित करें

संयुक्त स्कंध समवायों (Joint Stock Companies) का जन्म ब्रिटेन में व्यापारिक क्रान्ति के समय हुआ। १७वीं और १८वीं शताब्दी में संयुक्त स्कन्ध समवाय के रूप में समामेलन तभी हो सकता था जब उसके लिए राजलेख उपलब्ध हो अथवा संसद् द्वारा कोई विशेष अधिनियम बना हो। ये दोनों ही तरीके अत्यधिक व्ययसाध्य तथा विलम्बकारी थे। राष्ट्र की बढ़ती हुई व्यावसायिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बड़ी बड़ी अनिगमित भागिताएँ (unincorporated partnerships) अस्तित्व में आईं। जो कुछ भी हो, व्यापार ने एक समामेलन (amalgamation) का रूप ग्रहण किया, क्योंकि यही एक ऐसी चीज थी जिसमें अधिकतम पूँजी के संकलन के साथ साथ खतरे की भी बहुत कम गुंजाइश थी। ऐसी प्रत्येक व्यापारसंस्था की सदस्यता चूँकि बहुत अधिक रहती थी, इसलिए व्यापार का भार कुछ इने गिने प्रन्यासियों पर छोड़ दिया जाता था जिसके फलस्वरूप प्रबन्ध और स्वामित्व में बिलगाव हो जाता था। इस बिलगाव के साथ ही इस सम्बन्ध की समुचित विधियों के अभाव से धूर्त प्रवर्तकों के द्वारा जनता के धन का शोषण होने लगा। जैसे पानी के बबूले उठते और गायब होते हैं, उसी तरह समवाय खड़े होते और फिर विलुप्त हो जाते।

आतंकग्रस्त ब्रिटिश संसद् ने सन् १७२० ई. में 'बबल्स ऐक्ट' पारित किया। इस अधिनियम ने धूर्ततापूर्ण समवायों के संगठन पर प्रतिबन्ध लगाने के बजाय समवायों के प्रवर्तन के व्यवसाय को ही अवैध करार दे दिया। यद्यपि सन् १८२५ ई. में इस अधिनियम का विखण्डन हो गया तथापि सन् १८४४ ई. में ही जाकर बड़ी भागिताओं का पंजीकरण एवं सम्मेलन अनिवार्य किया जा सका। सीमित देयता (Limited Liability) सन् १८५५ में स्वीकृत की गई तथा तत्सम्बन्धी पूरी विधि को सन् १८५६ ई. में ठोस रूप दिया गया। तब से समवायों के अधिनियमों में यथेष्ट संशोधन और सुधार होते रहे जबकि सन् १९४८ ई. में हमें नवीनतम अधिनियम प्राप्त हुआ। इस अवधि में समवायों का संयुक्त रूप से उन्नयन होता रहा। इसको खोलनेवाली चाभी सीमित देयता रही है। भारत में पहला समवाय अधिनियम सन् १८५० ई. में पारित हुआ और सबसे अन्तिम सन् १९५६ ई. में।

भारत में कम्पनी विधान का इतिहास इंग्लैण्ड के कम्पनी विधान से जुड़ा हुआ है, क्योंकि 15 अगस्त, 1947 से पहले अंग्रेजों का शासन था और उन्होंने भारत में अपनी मर्जी के आधार पर विधानों की रचना की थी, जिनका मूल आधार ब्रिटिश विधान रहे हैं। 19वीं शताब्दी के मध्य में सन् 1844 ई. में इंग्लैण्ड में कम्पनी सम्बन्धी विधान पारित किया गया। इसी विधान से मिलता-जुलता विधान भारत के लिए सन् 1850 में प्रथम बार संयुक्त पूँजी कम्पनी अधिनियम बनाया गया। इस अधिनियम की सबसे बड़ी कमी यह थी कि इसमें सीमित दायित्व के तत्व को मान्यता प्रदान नहीं की गई। सन् 1857 में नया संयुक्त पूँजी कम्पनी अधिनियम पारित करके सीमित दायित्व की कमी को कुछ सीमा तक पूरा कर दिया गया।

सन् 1860 में नया कम्पनी अधिनियम पारित किया गया जिसमें बैंकिग एवं बीमा कम्पनियों को भी सीमित दायित्व की छूट दे दी गई। समय के साथ-साथ परिस्थितियों में परिवर्तन होने से कम्पनी अधिनियम में भी निरन्तर कुछ नये-नये प्रावधानों की आवश्यकता अनुभव की गई। अतः सन् 1860 के बाद सन् 1866, 1882, 1913 तथा 1956 में एक के बाद एक नये अधिनियम भारत में ब्रिटिश विधान में होने वाले परिवर्तनों के मद्देनजर पारित किये जाते रहे हैं।

अर्थ एवं परिभाषा संपादित करें

कम्पनी अधिनियम, 1956 की धारा 3 (1) 'कम्पनी' शब्द को परिभाषित करती हैं- "इस अधिनियम के अन्तर्गत संगठित और पंजीकृत की गयी कम्पनी या एक विद्यमान कम्पनी।" सामान्य व्यक्ति के लिए 'कम्पनी' शब्द से तात्पर्य एक व्यावसायिक संगठन से है। परन्तु हम यह भी जानते हैं कि सभी प्रकार के व्यावसायिक संगठनों को तकनीकी रूप से ‘कम्पनी’ नहीं कहा जा सकता। भारत का सामान्य कानून एकल स्वामी के निजी संसाधनों को, उसके व्यवसाय से पृथक नहीं मानता। इसके परिणामस्वरूप, व्यावसायिक संकट के दौर में उसके व्यावसायिक ऋणों की पूर्ति उसके निजी संसाधनों से कर ली जाती है। इस प्रकार गणनात्मक अशुद्धियों की कुछ अपरिहार्य घटनाएँ स्वयं उसकी और उसके परिवार के विनाश का कारण बन सकती है। ऐसी स्थिति में उसके लिए ऐसा जोखिम उठाना उचित नहीं है। अतः वह अपने व्यवसाय को एक निजी कम्पनी के रूप में चलाने का निर्णय कर सकता है। एक साझेदार की स्थिति और भी अधिक जोखिमपूर्ण होती है। साझेदारी का सम्बन्ध पारस्परिक विश्वास पर आधारित होता है। यदि कोई साझेदार इस विश्वास का दुरूपयोग करता है तो वह अन्य साझेदारों को गम्भीर संकट में डाल सकता है, क्योंकि साझेदारों का दायित्व असीमित होता है। इस असीमित दायित्व के जोखिम से बचने के लिए साझेदार स्वयं को कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत पंजीकृत करा सकते हैं, क्योंकि उस स्थिति में प्रत्येक सदस्य का दायित्व उसके द्वारा लिए गये शेयरों के मूल्य तक ही सीमित होता है। व्यक्तिगत जोखिम की सीमाओं के अतिरिक्त ऐेसे बहुत से अन्य कारण हैं जो व्यक्तियों के समूह को इस अधिनियम के अन्तर्गत निगमित केन्द्र का रूप धारण करने के लिए बाध्य कर सकते हैं, जैसे- तकनीकी ज्ञान को प्राप्त करने, प्रबन्धकीय योग्यताओं से युक्त नीतियों को प्राप्त करने, विशाल पूँजी, निगमित व्यक्तित्व, शेयरों की अंतरणीयता आदि।

कम्पनी अधिनियम की कतिपय परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं -

  • समस्त उद्देश्य के लिए संगठित व्यक्तियों का संघ कम्पनी है। - न्यायाधीश जेम्स
  • कम्पनी विधान द्वारा निर्मित एक कृत्रिम व्यक्ति है जिसका पृथक अस्तित्व, अविच्छिन्न उत्तराधिकारी एवं सार्वमुद्रा होती है। - प्रो. हैने
  • कम्पनी बहुत से ऐसे व्यक्तियों का एक संघ है जो द्रव्य या द्रव्य के बराबर का अंशदान एक संयुक्त कोष में जमा करते हैं और उसका प्रयोग एक निश्चित उद्देश्य के लिए करते हैं। इस प्रकार का संयुक्त कोष मुद्रा में प्रकट किया जाता है और कम्पनी की पूंजी होती है जो व्यक्ति इसमें अंशदान देते है, इसके सदस्य कहे जाते हैं। पूँजी के उतने अनुपात पर किसी सदस्य का अधिकार होता है जो उसके क्रय किये हुए अंश के बराबर है। - लार्ड लिंडले
  • कम्पनी राजनियम द्वारा निर्मित एक कृत्रिम व्यक्ति है। यह एक पृथक वैधानिक आस्तित्व रखती है। इसे अविच्छिन्न उत्तराधिकार प्राप्त है और इसकी एक सार्वमुद्रा होती है। - कम्पनी अधिनियम 1956 के अनुसार
  • कम्पनी का आशय कई व्यक्तियों के ऐसे संघ से है जो मुद्रा या मुद्रा के बराबर कोई अन्य सम्पत्ति एक संयुक्त कोष में अंशदान करते हैं तथा जिसका उपयोग किसी सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए करते हैं। - अमेरिकन विधिवेत्ता मार्शल जेम्स
  • कम्पनी एक कृत्रिम व्यक्ति है जो अदृश्य एवं अमूर्त है और जिसका अस्तित्व केवल कानून की दृष्टि से है। - न्यायाधीश मार्शल
  • कम्पनी एक कृत्रिम व्यक्ति है, जिसका समामेलन कुछ विशिष्ट निर्धारित उद्देश्यों के लिए हुआ है। - न्यायाधीश चार्ल्सवर्थ
  • निगम राज्य की एक रचना है जिसका अस्तित्व उन व्यक्तियों से भिन्न होता है जो उस (निगम) की पूँजी अथवा प्रतिभूतियों के स्वामी होते हैं। - डॉ॰ विलियम आर. स्प्रिगल

आवश्यकता संपादित करें

इस अधिनियम की आवश्यकता कम्पनियों के प्रबन्ध तथा उनके कार्य करने की विधियों में इस प्रकार सुधार करना है ताकि प्रवर्तकों, विनियोगियों तथा प्रबन्धकों में घनिष्ठ संबंध स्थापित हो सके, जिससे कम्पनियों के संगठन की कार्यक्षमता बढ़े, विनियोगियों के उचित अधिकारियों के साथ प्रबन्धकों की कार्यक्षमता मेल खा सके, लेनदारों, श्रमिकों तथा अन्य व्यक्तियों के हितों की उत्पादन तथा वितरण में पर्याप्त रक्षा हो सके।

1) पब्लिक कम्पनियों के प्रबन्धकों से उनके कर्त्तव्यों का पालन कराना।

2) लाभ के उस भाग पर नियन्त्रण करना जो प्रबन्धकों को उनकी सेवाओं के बदले में पारिश्रमिक के रूप में दिया जाता है और उनके उन व्यवहारों पर रोक लगाना, जिसके कारण उनके हितों तथा कर्त्तव्यों में विरोध होने की सम्भावना हो।

3) संयुक्त स्कन्ध कम्पनी के निर्माण और प्रबन्ध पर सरकार का अधिक नियन्त्रण होना, ताकि कम्पनियों की राशियों को उस ओर जाने से रोका जा सके, जिससे राष्ट्र की उन्नति में बाधा पड़ती हो।

4) प्रबन्ध में अंशधारियो का अधिक से अधिक नियन्त्रण करना।

5) कम्पनी के चिट्ठे तथा लाभ-हानि खाते में सच्चा एवं उचित वर्णन देना।

6) लेखाकर्म एवं अंकेक्षण के उच्च स्तर की स्थापना।

7) कम्पनी के अनुसंधान का प्रबन्ध करना जबकि कम्पनी का प्रबन्धन बुरा हो या अल्पसंख्यक अंशधारियों को हानि पहुँचाने वाला हो।

8) कम्पनी के प्रवर्तन और प्रबन्ध में अच्छे व्यवहार तथा ईमानदारी का स्तर लाना।

9) अंशधारियों और लेनदारों के उचित हितों को मान्यता देना तथा प्रबन्धकों द्वारा उनके हितों को क्षति न पहुँचाना।

10) कम्पनी के प्रबन्ध को एक बहुत बड़ी सीमा तक प्रजातंत्रीय ढंग पर लाना तथा इसके दोषों को दूर करना।

11) देश की आर्थिक तथा सामाजिक उन्नति में कम्पनियों का सहयोग प्राप्त करना।

कम्पनी की विशेषताएँ संपादित करें

  • (1) विधान द्वारा कृत्रिम व्यक्तिः कम्पनी विधान द्वारा निर्मित कृत्रिम, अदृश्य, काल्पनिक एवं अमूर्त व्यक्ति है। कम्पनी को विधान द्वारा निर्मित कृत्रिम व्यक्ति इसलिए कहा जाता है कि एक ओर तो इसका जन्म अप्राकृतिक तरीके से होता है तथा दूसरी ओर प्राकृतिक व्यक्ति की तरह इसके अधिकार एवं दायित्व होते हैं। किसी व्यापार आदि कार्यों में जितने अधिकारों का प्रयोग वास्तविक व्यक्ति कर सकता है और जितने उत्तरदायित्व एक वास्तविक व्यक्ति के होते हैं, उतने ही कम्पनी के भी होते हैं।
  • (2) पृथक अस्तित्वः कम्पनी की दूसरी विशेषता यह भी है कि इसका अपने सदस्यों से पृथक अस्तित्व होता है। जिस प्रकार साझेदारी में साझेदारी फर्म एवं साझेदारों का अस्तित्व एक ही माना जाता है, उसी प्रकार कम्पनी का अस्तित्व उसके सदस्यों से पृथक होता है। इसका कारण यह है कि कम्पनी स्वयं विधान द्वारा निर्मित कृत्रिम व्यक्ति होने की वजह से कम्पनी द्वारा किये गये कार्यों के लिए कम्पनी स्वयं ही उत्तरदायी होती है और सदस्यों द्वारा किये गये कार्यों के लिए नहीं होती है।
  • (3) शाश्वत (अविच्छिन्न) उत्तराधिकारः ”समामेलन की तिथि से ही कम्पनी शाश्वत उत्तराधिकार वाली हो जाती है।“ कम्पनी के अंश हस्तान्तरणीय होने के कारण, चाहे उसके सभी सदस्य अंशधारी भले ही क्यों न बदल जायें, कम्पनी का अस्तित्व यथावत बना रहता है। कम्पनी के सदस्यों की मृत्यु, पागलपन अथवा अंश-हस्तान्तरण जैसी घटनाएँ भी कम्पनी के अस्तित्व एवं उसके जीवन पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकती। अपितु उसका मूल अस्तित्व यथावत बना रहता है।
  • (4) सार्वमुद्राः सार्वमुद्रा (common seal) मजबूत धातु पर इस प्रकार खुदी हुई मुद्रा है जिसमें कम्पनी का नाम लिखा होता है। जहां भी कम्पनी को हस्ताक्षर करने होते हैं, वहाँ कम्पनी के संचालक सार्वमुद्रा का प्रयोग करते हैं। सार्वमुद्रा प्रयोग किये बिना कम्पनी को किसी कार्य के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। अतः हर कम्पनी के पास अपनी एक सार्वमुद्रा का होना अनिवार्य है।
  • (5) लाभ के लिए ऐच्छिक पंजीकृत संघः कम्पनी व्यक्तियों का एक ऐच्छिक संघ है, जिसका मूल प्रयोजन लाभार्जन होता है। व्यक्ति स्वेच्छा से कम्पनी की सदस्यता स्वीकार करता है, किसी के दबाब में आकर नहीं। लाभ के लिए बनाये गये ऐसे ऐच्छिक संघ का पंजीयन भी आवश्यक होता है। पंजीयन कंपनी विधान के अधीन करवाया जाता है।
  • (6) लोकतान्त्रिक प्रबन्धः कम्पनी स्वयं एक कृत्रिम व्यक्ति है, जो स्वयं अपना प्रबन्ध नहीं कर सकती है। ऐसी स्थिति में सामूहिक उद्देश्यों की प्राप्ति लोकतान्त्रिक प्रबन्ध व्यवस्था द्वारा की जाती है। कम्पनी के सदस्य एवं अंशधारी स्वयं कम्पनी का प्रबन्ध नहीं कर सकते, क्योंकि वे बिखरे हुए होते हैं, उनके अंश क्रय का मुख्य प्रयोजन लाभांश अर्जित करना होता है, न कि कम्पनी को चलाना। इसे प्रतिनिधि प्रबंध के नाम से भी पुकारा जाता है।
  • (7) सीमित दायित्वः व्यावसायिक स्वामित्व के विभिन्न प्रारूपों में कम्पनी के रूप में जो प्रारूप हैं, वहीं उसके सदस्यों का दायित्व अपने हिस्से (अंश) की सीमा तक सीमित हो सकता है। यदि किसी कम्पनी के सदस्यों ने अपने द्वारा किये गये अंशों की पूरी राशि कम्पनी को चुका दी है तो वे अतिरिक्त धनराशि के लिए बाध्य नहीं किये जा सकते, चाहे कम्पनी को अपने दायित्व चुकाने के लिए कितने ही धन की आवश्यकता क्यों ना हो।
  • (8) कार्यक्षेत्र की सीमाएँ : प्रत्येक संयुक्त पूँजीवाली कम्पनी अपने कार्य में कम्पनी अधिनियम, अपने पार्षद सीमा-नियम तथा पार्षद अन्तर्नियम से पूर्णतया बन्धी हुई है। इनमें वर्णित व्यवस्थाओं के बाहर जाकर वह कोई भी कार्य नहीं कर सकती है।
  • (9) हस्तान्तरणीय अंशः किसी भी कम्पनी का कोई भी अंशधारी किसी अन्य व्यक्ति को एक स्वतन्त्र अधिकार के रूप में अंशों का हस्तान्तरण कर सकता है और इस प्रकार वह स्वयं कम्पनी की सदस्यता से मुक्त हो सकता है।
  • (10) अभियोग चलाने का अधिकारः कम्पनी अन्य पक्षकारों पर तथा अन्य पक्षकार कम्पनी पर वाद भी चला सकती है। इतना ही नहीं कम्पनी अपने सदस्यों पर तथा सदस्य अपनी कम्पनी पर भी वाद प्रस्तुत करने का अधिकार रखती है।
  • (11) सदस्य संख्याः सार्वजनिक कम्पनियों में कम से कम 7 सदस्य होना अनिवार्य है। इसमें अधिकतम सदस्यों की कोई सीमा नहीं होती है। जबकि निजी कम्पनी में कम से कम 2 तथा अधिकतम 200 व्यक्तियों तक सदस्य हो सकते हैं।
  • (12) व्यावसायिक सम्पत्तियाँ : "कम्पनी की सम्पत्ति अंशधारियों की सम्पत्ति नहीं है, यह कम्पनी की सम्पत्ति है।" अंशधारी न तो व्यक्तिगत रूप से और न ही संयुक्त रूप में कम्पनी की सम्पत्तियों के स्वामी हो सकते हैं। कम्पनी एक विधान संगत व्यक्ति होने के कारण उसे व्यावसायिक सम्पत्तियों को अपने नाम में रखने, बेचने तथा खरीदने का पूर्णतया अधिकार है।
  • (13) कम्पनी का सामाजिक स्वरूपः कम्पनी का उस समाज के प्रति भी उत्तरदायित्व है जिसके लिए निर्माण हुआ है तथा जिसमें वह विकास करती है समाजवादी व्यवस्थाओं में किसी भी संयुक्त पूंजी संगठन को मात्र लाभार्जन का संकुचित उद्देश्य लेकर नहीं चलने दिया जा सकता है।
  • (14) कम्पनी का सामाजिक चरित्रः कम्पनी से सम्बन्धित आधुनिक विचारधारा के अनुसार समाज के प्रति भी उत्तरदायित्व माना जाने लगा है।
  • (15) उधार लेनाः समामेलन के पश्चात् कम्पनी एक वैधानिक व्यक्ति हो जाती है। अतः अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ऋण ले सकती है और इसके लिए यदि आवश्कता हो तो वह अपनी चल व अचल सम्पत्ति को बन्धक रख सकती है।
  • (16) कम्पनी का समापनः कम्पनी का जन्म राज नियम के द्वारा होता है और जीवन पर्यन्त राज नियम के अनुरूप ही कार्य करती है। कम्पनी का समापन भी राज नियम के द्वारा ही होता है अतः कहा जाता है कि किसी भी कम्पनी का समापन राज नियम के बिना नहीं हो सकता है।
  • (17) निकाय वित्त व्यवस्था : अतिरिक्त कार्य विस्तार की दशा में अधिक धनराशि की आवश्यकता होने पर कम्पनी, पार्षद सीमा नियम के अनुसार अंशों एवं ऋण पत्रों का भी निर्गमन कर सकती है इस प्रकार अंशों एवं ऋण पत्रों के रूप में निकाय वित्त प्राप्त करने की सुविधा केवल कम्पनी रूपी प्रारूप में ही उपलब्ध है, अन्य प्रारूपों में नहीं।
  • (18) कम्पनी एक नागरिक नहीं : कम्पनी के सभी सदस्य भारत के नागरिक हों तो भी कम्पनी, भारत की नागरिक नहीं बन सकती है। ठीक उसी प्रकार की जिस तरह से कम्पनी के सभी सदस्यों का विवाह हो जाने से, कम्पनी का विवाह नहीं हो जाता है। किसी कम्पनी को सामान्य नागरिक के मूल अधिकार प्राप्त नहीं हैं फिर भी कम्पनियाँ अपने अधिकारों के संरक्षण के लिए न्यायालय की शरण ले सकती है।
  • (19) राष्ट्रीयता एवं निवास स्थान : यद्यपि कम्पनी देश की नागरिक नहीं होती है किन्तु उसकी राष्ट्रीयता अवश्य होती है। कम्पनी की राष्ट्रीयता उस देश की मानी जाती है जिसमें उसका समामेलन होता है। कम्पनी का निवास स्थान वह होता है जहाँ से कम्पनी के व्यवसाय का प्रबन्ध एवं नियन्त्रण किया जाता है। कम्पनी के साथ पत्राचार करने कोई अन्य सन्देश देने-लेने की दृष्टि से कम्पनी के पंजीकृत कार्यालय को ही कम्पनी का निवास स्थान माना जाता है।
  • (20) कम्पनी का चरित्रः कम्पनी एक कृत्रिम व्यक्ति है जिसका अपना दिल, दिमाग, आत्मा आदि नहीं होता है। यह किसी के प्रति निष्ठावान तो किसी अन्य के प्रति निष्ठाहीन भी नहीं हो सकती है। यह न किसी की मित्र होती है और न शत्रु। वास्तव में कम्पनी का अपना कोई चरित्र नहीं होता है। किन्तु कभी-कभी कोई कम्पनी शत्रु का चरित्र धारण कर सकती है।
  • (21) स्थायी अस्तित्वः कम्पनी का अस्तित्व स्थायी होता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि कम्पनी के अंश हस्तान्तरणीय होते हैं तथा कम्पनी का अपने सदस्यों से पृथक् अस्तित्व होता है। परिणामस्वरूप कम्पनी में कोई नया सदस्य बनता है या सदस्यता छोड़ता है अथवा सदस्य मर जाता है अथवा दिवालिया या पागल हो जाता है तो भी कम्पनी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वास्तव में कम्पनी का जन्म विधान प्रावधानों के अनुसार होता है। अतः कम्पनी का समापन भी विधान में वर्णित प्रक्रिया का पालन करने के बाद ही हो सकता है। कम्पनी तो तब भी चलती रहती है चाहे कम्पनी के निर्माण करने वाले समस्त सदस्यों की ही मृत्यु क्यों न हो जाय।

कंपनी के रूप में व्यवसाय करने में सुविधाएँ संपादित करें

कंपनी या समवाय के रूप में व्यवसाय करने में अनेक सुविधाएँ हैं। समामेलन के फलस्वरूप विधि में समवाय का रूप 'एक व्यक्ति' का है। यह एक विधियुक्त सत्ता हो गया। इसका अस्तित्व सर्वथा सदस्यों से अलग तथा पूर्ण स्वतंत्र हो गया। सोलोमन बनाम सोलोमन और समवाय, १८९७ ए. सी. २२ में ब्रिटेन की सरदार सभा ने (House of Lords) समवाय के स्वतंत्र समामेलन के अस्तित्व पर बल दिया। श्री सोलोमन नामक एक व्यक्ति ने एक समवाय का संगठन किया और उसने उस समवाय के हाथ अपना व्यवसाय ४० हजार पौंड में बेच दिया। उसने भुगतान लेने के बदले २० हजार पौंड मूल्य के अंश तथा १० हजार पौंड मूल्य के ऋणपत्र ले लिए। चूँकि अधिनियम में इस बात की व्यवस्था रही है कि कम से कम सात व्यक्ति मिलकर ही कोई लोकसमवाय का संगठन कर सकते हैं इसलिए एक व्यक्ति के परिवार के शेष छह व्यक्तियों को अंश दिया जाता। अत: एक व्यक्ति द्वारा नियंत्रित समवाय को बुरे दिन देखने पड़ते थे और अंत में वह समवाय लड़खड़ा जाता था। समापन (liquidation) के समय उस समवाय की स्थिति इस प्रकार थी-

प्रतिभूत उत्तमर्ण (स्वयं श्री सोलोमन) -- १० हजार पौंड।
अप्रतिभूत सामान्य उत्तमर्ण -- ७ हजार पौंड।
शेष सकल संपत्ति -- केवल ६ हजार पौंड मूल्य की।

अप्रतिभूत उत्तमर्णों की ओर से यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि यद्यपि समवाय समामेलित रहा है तथापि समवाय का कभी भी स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रहा है। वह समवाय क्या था, स्वयं सोलोमन एक दूसरे नाम से मौजूद थे। व्यवसाय पूर्णत: उसका ही था, इसलिए वह अपने लिए उत्तमर्ण कैसे हो सकता था। वह समवाय कृत्रिम और धोखे का पुतला था। उत्तमर्ण चाहते थे कि समवाय के ऋणों के लिए सोलोमन दायी हो। जो कुछ भी हो, न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि 'जब ज्ञापक पत्र समुचित रूप से हस्ताक्षरित और पंजीकृत हो जाता है और यद्यपि सात ही अंश लिए जाते हैं, तथापि अभिदात समामेलित संगठन है और उसमें तत्काल समामेलित समवाय के सभी कर्तव्यों के प्रयोग की क्षमता समाहित हो जाती है। यह समझना कठिन है कि परिनियम द्वारा इस प्रकार गठित निगम निकाय किस प्रकार केवल एक व्यक्ति को पूँजी का अधिकांश देकर अपने व्यक्तित्व को खो देता है। विधि की दृष्टि में समवाय एक पृथक् व्यक्ति होता है जो ज्ञापकपत्र के अभिदाताओं से सर्वथा भिन्न होता है, तदनुसार सोलोमन समवाय का उत्तमर्ण माना गया और चूँकि वह प्रतिभूत उत्तमर्ण था, उसको अन्य उत्तमर्णों की अपेक्षा प्राथमिकता का अधिकार था।

दूसरी बात यह कि एकमात्र समामेलित निकाय ही सदस्यों को सीमित देयता के साथ व्यवसाय करने की क्षमता प्रदान करता है। अंशदाता समवाय के ऋणों के उत्तरदायित्व के लिए बाध्य नहीं है। यदि वह अपने अंश धन का भुगतान नहीं करता है तो वह केवल उस धन के भुगतान के लिए ही उत्तरदायी है। यदि उसके अंश के धन का पूर्ण रूप से भुगतान हो चुका है तब उसकी देयता का प्रश्न ही नहीं उठता। सीमित देयता की सुविधा के बारे में अपना मत व्यक्त करते हुए एक न्यायमूर्ति ने कहा है कि 'देश की व्यावसायिक संपदा के विकास के लिए सीमित देयता संबंधी परिनियमों ने जितना लाभ पहुँचाया है उतना संभवत: किसी और कानून ने नहीं पहुँचाया। सीमित देयता ने, जहाँ तक विनियोक्ता तथा लोक के लाभ का प्रश्न है, छोटे मोटे घनों की बड़ी पूँजी में परिणत करने में प्रोत्साहन प्रदान किया है। उस बड़ी पूँजी को लोककल्याण के कार्य में प्रयुक्त कर देश की संपदा की वृद्धि ही होती है।'

तीसरी बात यह कि समवाय के अंश चल संपत्ति हैं और वह मुक्त रूप से हस्तांतर्य है। अतएव समवाय की सदस्यता समय समय पर परिवर्तित होती रहती है किंतु इस परिवर्तन से स्वयं समवाय की अनवरतता पर कोई खराब असर नहीं पड़ता। समवाय को स्थायी उत्तराधिकार प्राप्त है। किसी सदस्य की मृत्यु अथवा दिवालिएपन से समवाय की स्थिति में कोई अंतर नहीं आता। इसके अलावा समामेलन समवाय की संपत्ति से उसके सदस्यों से स्पष्ट पृथक् करने की क्षमता रखता है। समवाय अपने नाम से मुकदमा लड़ सकता है और उसके नाम से मुकदमा लड़ा जा सकता है।

इन्हें भी देखें संपादित करें

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