कन्हैयालाल मिश्र

भारतीय पत्रकार, लेखक और स्वतंत्रता सेनानी

कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' (२९ मई १९०६ - ९ मई १९९५) हिन्दी के कथाकार, निबन्धकार, पत्रकार तथा स्वतंत्रता सेनानी थे।

परिचय संपादित करें

श्री कन्हैयालाल मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के देवबन्द ग्राम में हुआ था।

हिंदी साहित्य और हिंदी पत्रकारिता के माथे पर सांस लेते चंदन शब्दों का तिलक लगाने वाले पद्मश्री कन्हैया लाल मिश्र ’प्रभाकर’ के पास जरूर किसी तांत्रिक-जोगी का दिया हुआ सिद्ध नमक था। तभी तो साधारण बोल-चाल के शब्दों में उस अद्भुत नमक से वे ऐसा स्वाद पैदा कर देते कि पाठक की आंखें और मन कुंभ में गंगास्नान के बाद गंगाघाट पर बैठ प्रसाद ग्रहण करने का सुख पाते। दर असल, प्रभाकर जी ज़िन्दगी लिखते थे - कभी निबंध के नाम से, कभी लघुकथा तो कभी अग्रलेख के नाम से। और लिखते भी कहां थे ! सीधे जादू टोना करते थे - विचारों पर, जीवन शैली पर। उनका साहित्य ज़िन्दगी से उठता और ज़िन्दगी बांटता था। एक बानगी प्रस्तुत है -

पटना का रेलवे स्टेशन। जीवन से तंग आये एक सज्जन रेलगाड़ी से कट कर मर जाने के लिये स्टेशन पर टहल रहे हैं। गाड़ी के आने में देर है। पता नहीं क्या सोच कर सामने बुक स्टाल से जेब में पड़ी आखिरी अठन्नी देकर ’नया जीवन’ पत्र खरीद लेते हैं। प्रभाकर जी का लेख ’धीरे-धीरे जियो’ जैसे उन्हें ही ढूंढ रहा था। पढ़ते ही उनकी दुनिया बदल जाती है। उनकी गाड़ी फिर से आशा - उत्साह की पटरी पर आ जाती है। वे घर लौट पड़ते हैं - सफलता के शिखर छूने का संकल्प लेकर।

यह प्रभाव था ’प्रभाकर’ जी की लेखनी से निकले शब्दों का। लेखन ’प्रभाकर’ जी के लिये लोक रंजन का माध्यम नहीं था। वे तो लिखते ही थे - नागरिकता के गुणों का विकास करने के लिये ! वे कहते थे - "हमारा काम यह नहीं कि हम विशाल देश में बसे चंद दिमागी अय्याशों का फालतू समय चैन और खुमारी में बिताने के लिये मनोरंजक साहित्य का मयखाना हर समय खुला रखें। हमारा काम तो यह है कि इस विशाल और महान देश के कोने-कोने में फैले जन साधारण के मन में विश्रंखलित वर्तमान के प्रति विद्रोह और भव्य भविष्य के निर्माण की श्रमशील भूख जगायें।"

ऐसे उदात्त आदर्श को सामने रख कर साहित्य रचने वाले साहित्यकार की कलम ओछे समझौते नहीं कर सकती। उसे तो सूली पर लटकते हुए भी अपनी कलम की धार और पैनी करनी होती है - और यही प्रभाकर जी ने किया भी। उन्होंने अपनी मिशनरी पत्रकारिता के बारे में बड़ी मार्मिक बात कही है - "यह अनरुके चरण, अनबुझे दीप, अनझुके ललाट और अनथके शिव संकल्प का संघर्ष था।"

लेखक की भूमिका के प्रति उनका दायित्वबोध कितना गहरा था इसका एक उदाहरण देखिये। किसी अवसर पर नेहरू जी ने उनसे पूछा - "प्रभाकर, आज कल क्या कर रहे हो ?" उन्होंने कहा - "आपके और अपने बाद का काम कर रहा हूं।" जब नेहरू जी ने चौंक कर पूछा - "क्या मतलब हुआ इसका ? " तो प्रभाकर जी ने जवाब दिया - "पंडित जी, आज देश की शक्ति पुल, बांध, कारखाने और ऊंची - ऊंची इमारतें बनाने में लगी है। ईंट - चूना ऊंचा होता जा रहा है और आदमी नीचा होता जा रहा है। भविष्य में ऐसा समय अवश्य आयेगा, जब देश का नेतृत्व ऊंचे मनुष्यों के निर्माण में शक्ति लगायेगा। तब जिस साहित्य की जरूरत पड़ेगी, उसे लिख-लिख कर रख रहा हूं।" वस्तुतः साहित्य के माध्यम से प्रभाकर जी गुणों की खेती करना चाहते थे और अपनी पुस्तकों को शिक्षा के खेत मानते थे जिनमें जीवन का पाठ्यक्रम था। वे अपने निबंधों को विचार यात्रा मानते थे और कहा करते थे - "इनमें प्रचार की हुंकार नहीं, सन्मित्र की पुचकार है, जो पाठक का कंधा थपथपाकर उसे चिंतन की राह पर ले जाती है।"

साहित्य और पत्रकारिता को उन्होंने व्यक्ति और समाज के उत्थान का निमित्त बनाया। हर संस्मरण, हर निबंध इस उत्थान यज्ञ में समिधा है, इसलिये एक शब्द भी जाया नहीं होना चाहिये, कमजोर या फालतू न हो। उनकी पत्रकारिता और साहित्य मूलतः सामाजिक सरोकारों का लेखन है। वहां रईसी के अन्तःपुर में या मनोरंजन के चौराहे पर किसी रक्कासा का नाच - गाना नहीं है, वहां तो आठों पहर आदमी को बदलने की क्रांतिकारी योजना है। वहां अगर नाच है तो वह तांडव है - तुच्छ मानसिकता के विरुद्ध ! वहां अगर गाना है तो उच्च मूल्यों की ऋचाओं का गान है। प्रभाकर जी ने मैजिनी का यह वाक्य पढ़ा था - "गुलाम देश में बिना बोये, बिना सींचे दोषों की खेती होती है।" तभी उन्होंने संकल्प लिया आदर्श व्यक्ति और समाज का निर्माण करने वाले साहित्य के सृजन का। उनकी यह योजना इस प्रकार पूरी हुई - "ज़िन्दगी मुस्कुराई", "बाजे पायलिया के घुंघरू", ज़िन्दगी लहलहाई" - ’एक अनुशासित व्यक्ति के निर्माण की पुस्तकें। "महके आंगन - चहके द्वार" नामक पुस्तक व्यक्ति को परिवार से जोड़ने वाली, इस परिवार संयुक्त व्यक्ति को राष्ट्र से जोड़ने वाली पुस्तक - "दीप जले-शंख बजे"। अन्ततः इस राष्ट्र-संयुक्त व्यक्ति को विश्व नागरिक बनाने वाली पुस्तक "माटी हो गई सोना"

प्रभाकर जी जिन आदर्शों का शंख फूंक रहे थे, वे आदर्श स्वयं उन्होंने अपने जीवन में अपनाये थे। 29 मई 1906 को देवबंद (जिला सहारनपुर) में जन्मे ब्राह्मण संस्कारी बालक कन्हैया ने पांच वर्ष की आयु में ही अंध-विश्वास और रूढ़िवादिता का विरोध करना आरंभ कर दिया था। युवावस्था में पढ़ाई छोड़, आजादी की लड़ाई में और सुधार आंदोलनों में खुद को समर्पित कर दिया। जेल यात्राएं और विदेशी शासन के हाथों यातनाएं सहीं। उनकी पुस्तक "तपती पगडंडियों पर पदयात्रा" इस सबका लेखा-जोखा है। उनकी निर्मम और योजनापूर्ण ढंग से पिटाई की गई ताकि वे पत्रकारिता के योग्य न रहें, किन्तु देखिये, अंग्रेज़ी शासन का सूर्य भारत में अस्त हुआ 15 अगस्त 1947 को और ठीक उसी दिन प्रभाकर जी द्वारा संपादित पत्र "विकास" का पुनर्जागरण (पुनः सूर्योदय) हुआ। अत्याचारी हारा, क्रांतिकारी जीता।

जीवन संबंधी आंकड़ों में जिनकी रुचि है उनके लिये यहां उल्लेख कर दूं कि वे 1906 में देवबन्द, सहारनपुर में जन्मे। "विकास", "ज्ञानोदय" और "नया जीवन" का संपादन किया। कवि, निबन्धकार, रिपोर्ताज़ लेखक, लघुकथा लेखक, संस्मरण लेखक, पत्रकार, जीवनी लेखक के रूप में ढेरों पुस्तकें लिखीं। राष्ट्रीय प्रश्नों पर, सामाजिक स्थितियों पर लेख और टिप्पणियां लिखीं और लिखे - कई हज़ार पत्र ! 1990 में भारत के राष्ट्रपति द्वारा उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। ढेरों सम्मान और पुरस्कार उन पर बरसे। उन्के साहित्य पर विभिन्न विश्वविद्यालयों में शोध कार्य हुए। 9 मई 1995 को उनका निधन हुआ। ये बातें उस जीवन की बाहरी रेखायें मात्र हैं जिस जीवन ने समाज की आड़ी-तिरछी रेखाओं के बीच सन्मार्ग ढूंढने की कला निखारी। महत्वपूर्ण बात यह है कि उनका साहित्य मात्र दो प्रतिशत बुद्धिजीवी वर्ग के लिये नहीं है, वह तो सबके जीवन को छूने वाली मंद समीर है।

ऐसी सत्प्रेरणा वाले साहित्य सर्जन के लिये आवश्यक थी एक ऐसी शैली जो सभी के लिये हो। प्रभाकर जी कहते हैं - "एक प्रश्न मेरे मन में उभरा। क्या लिखने की कोई ऐसी शैली नहीं हो सकती जिसमें लहरें भी हों, सरसता भी हो, प्रवाह भी हो, संतुलन व सौन्दर्य भी हो और गहराई भी। मैने सोचा - मै उस शैली में लिखूंगा, जिसमें यह सब हो। संक्षेप में, ज्ञान उपनिषद्‌ का सा हो, अभिव्यक्ति लोरियों की सी।" प्रभाकर जी की भाषा और शैली ने पाठक के मन के भीतर जाने का मार्ग खोज लिया था। किसी ने कहा - उनकी शैली में चैती गुलाब की खुशबू है और जौनपुरी इत्र की चिकनाई। उन्हें सहारनपुर का बाणभट्ट भी कहा गया और हिन्दी का खलील जिब्रान भी।

उनकी कलम की नोक पर आकर शब्दों को जो श्रृंगार मिलता, उससे शब्दों का कायाकल्प हो जाता। उनके वाक्य छूते हैं, गुदगुदाते हैं, डांटते हैं, पुचकारते हैं, कान भी उमेठ देते हैं और कभी लगता है कि जैसे हौले से मिठाई का टुकड़ा मुंह में रख गया कोई वाक्य। उनके वाक्यों की अदायें ! कोई दादाजी जैसा बूढ़ा वाक्य नसीहत कर रहा है, तो कहीं पिताजी जैसा कोई वाक्य चिंता करता हुआ, कहीं कोई नौजवान वाक्य मस्ती में अल्हड़ ज़िन्दगी को किसी झील के किनारे घुमाने ले जा रहा है तो कहीं कोई गुरु जी वाक्य नीति सिखा रहा है। कहीं कोई वाक्य नागरिकता का सवैया गा रहा है। शब्द वही हैं - बोलचाल के, किन्तु प्रभाकर जी की कलम ने छुआ नहीं कि शब्दों की जन्मकुंडली ही बदल जाती है मानों राजयोग बैठ गया हो।

आदर्शों का साहित्य रचने वाले प्रभाकर जी ईमानदार लेखक थे। उन्होंने स्पष्ट कहा है - "अपने साहित्य में मैं सबका मित्र हूं पर पत्रकारिता में मैं किसी का मित्र नहीं हुआ - हां, शत्रु भी नहीं ! उनकी पत्रकारिता न दलों में उलझी, न व्यक्तियों में। जो समाज के लिये उपयोगी, उसकी सराहना और जो हानिकारक, उसकी आलोचना। उन्होंने अपनी पत्रकारिता को राजनीति का समर्थक या विरोधी नहीं बनाया अपितु "राजनीति को सलाह-मशविरा और नेतृत्व" देने वाली बनाया। इसी लिये, कांग्रेस में रह कर आज़ादी की लड़ाई लड़ने, जेल जाने और लाठियां खाने के बावजूद देश आज़ाद होने के अगले दिन उन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया। यह गांधीवाद का सच्चा अनुकरण था। विशेष तौर पर उल्लेखनीय है कि वे रिपोर्ताज़ विधा के जनक माने जाते हैं। आज live telecast के दूरदर्शनी युग में उनके रिपोर्ताज़ और अधिक याद आते हैं। जो दृश्य उन्होंने खींचे हैं उनका live telecast प्रभाकर जी के शब्दों में है। कांग्रेस के कितने अधिवेशनों का आंखों देखा सीधा प्रसारण, आज़ादी की लड़ाई के अमूल्य दृश्यों का लाइव टेलिकास्ट उनके रिपोर्ताज़ में सुरक्षित है। उनके लिखे संस्मरणों में कितनी प्रेरणास्पद जीवनियों और बलिदानों के अभिलेख सरस भाषा में इतिहास के लिये सुरक्षित कर दिये गये हैं और निबन्धों में व्यक्ति, परिवार, राष्ट्र और विश्व के लिये आदर्शों के दीपक पथ के दोनों ओर जला दिये गये हैं, ताकि रौशनी हमेशा उपलब्ध रहे। इसी कारण वे अपनी पीढ़ी के प्रिय और नई पीढ़ी के पूज्य बने रहे हैं।

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