कमाल अतातुर्क

तुर्की के राष्ट्रपति (1923 से 1938 तक)
(कमाल पाशा से अनुप्रेषित)

कमाल अतातुर्क उर्फ मुस्तफ़ा कमाल पाशा (1881 - 1938) एक तुर्की क्षेत्र के मार्शल, क्रांतिकारी राजनेता, लेखक और तुर्की गणराज्य के संस्थापक, 1923 से अपनी मृत्यु तक (1938 तक) इसके पहले राष्ट्रपति के रूप में सेवा करते हुए। उन्होंने प्रगतिशील सुधारों की पहल की, जिसने तुर्की को एक धर्मनिरपेक्ष, औद्योगिक राष्ट्र के रूप में बदल दिया। वैचारिक रूप से एक धर्मनिरपेक्षतावादी और राष्ट्रवादी कमाल अतातुर्क की नीतियों और सिद्धांतों को कमालवाद के रूप में जाना जाता है। अपनी सैन्य और राजनीतिक उपलब्धियों के कारण, अतातुर्क को 20 वीं शताब्दी के सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक नेताओं में से एक माना जाता है।

कमाल अतातुर्क
अतातुर्क के हस्ताक्षर
1989 में भारत का डाक टिकट

जन्म और बचपन

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कमाल पाशा का जन्म 19 मई सन् 1881 में सलोनिका (सैलोनिका) के एक किसान परिवार में हुआ था। इनकी माता का नाम जुवैदा व पिता का अली रजा था। अली रजा सलोनिका के चुंगी दफ्तर में क्लर्क थे। उनका बचपन का नाम मुस्तफा था। जन्म के कुछ वर्ष बाद ही पिता की मृत्यु हो गयी। माता जुबैदा ने मजहबी तालीम दिलाने के उद्देश्य से मदरसे में दाखिल करा दिया जहाँ उनके सीनियर छात्रो के तंग (रैंगिंग) करने पर वह मरने मारने पर उतर आये। मात्र 11 साल की उम्र में ही वह इतने दुर्दान्त (मार पिटाई करने वाले) हो गये थे कि उन्हें मक्तब से निकालना पड़ा। बाद में उन्हें मोनास्तीर (मैनिस्टर) के सैनिक स्कूल में भर्ती कराया गया। परन्तु वहाँ भी उनका मर मिटने वाला उग्रवादी स्वभाव बना रहा लेकिन सैन्य-शिक्षा में दिलचस्पी के कारण उनकी पढाई बदस्तूर जारी रही, उसमें कोई व्यवधान नहीं आया।

सैन्य शिक्षा

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बालक मुस्तफा उग्र अवश्य था परन्तु गणित में उसकी गति आश्चर्य जनक थी। अध्यापक के ब्लैक बोर्ड पर सवाल लिखते ही वह उसे मुँहजबानी हल कर दिया करता था। उसमें कमाल की काबिलियत देखकर स्कूल के गणित अध्यापक कैप्टन मुस्तफा उफैंदी ने नाम बदल कर कमाल रख दिया। उसके बाद ही वह कमाल पाशा के नाम से जाना जाने लगा। 17 साल की उम्र में मोनास्तीर के प्राइमरी सैनिक स्कूल में प्रारम्भिक सैन्य शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्हें कुस्तुन्तुनिया (कांस्टेण्टीनोपिल) के स्टाफ़ कालेज (वार एकेडमी) में उच्च सैन्य शिक्षा हेतु भेज दिया गया। उन दिनों कुस्तुन्तुनिया में अब्दुल हमीद (द्वितीय) की सल्तनत थी और उसके राज्याधिपति को सुल्तान कहा जाता था।

वतन से दोस्ती

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वहाँ वह अध्ययन के साथ-साथ बुरी संगत में घूमते रहे। कुछ काल तक उद्दण्डतापूर्ण जीवन बिताने के बाद वह वतन नामक एक गुप्त क्रान्तिकारी दल के पहले सदस्य बने और थोड़े ही दिनों बाद उसके नेता हो गये। वतन का उद्देश्य एक तरफ सुल्तान की तानाशाही और दूसरी तरफ विदेशी षड्यन्त्रों को जड से मिटाना था। एक दिन दल की बैठक चल रही थी कि किसी गुप्तचर ने सुल्तान को खबर दे दी और सबके सब षड्यन्त्रकारी अफसर गिरफ्तार करके जेल भेज दिये गये। प्रचलित कानून के अनुसार उन सबको मृत्युदण्ड दिया जा सकता था, पर दुर्बलचित्त सुल्तान को भय था कि कहीं ऐसा करने पर देश में विद्रोह न भड़क उठे, अत: उसने सबकों क्षमादान देने का निश्चय किया।

क्षमादान के पश्चात फिर वही कार्य

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इस प्रकार अन्य सनिकों के साथ कमाल भी क्षमादान में छोड़ दिये गये। तत्पश्चात सुल्तान ने द्रूज जाति के विद्रोह को दबाने के लिये उन्हें दमिश्क भेज दिया। वहाँ कमाल ने काम तो कमाल का ही किया, पर स्वभाव के अनुसार कुस्तन्तुनिया वापस लौटते ही उन्होंने स्ताम्बूल (स्टैम्बोल) में एक कमरा लेकर वतन-ओ-हुर्रियत पार्टी का कार्यालय खोलकर उसमें आजादी की गुप्त संस्था का कार्य आरम्भ कर दिया। इसी बीच उन्हें यह ज्ञात हुआ कि मकदूनिया में सुल्तान के विरुद्ध खुला विद्रोह होने वाला है। मौके की नजाकत को भाँपते हुए कमाल ने सुल्तान की सेना से छुट्टी ले ली और जाफ़ा, मिरुा व एथेंस होते हुए वेश बदलकर विद्रोह के केन्द्र सलोनिका जा पहुँचे। परन्तु वहाँ पर उन्हें पहचान लिया गया।

पलायनावस्था

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फिर वह ग्रीस होते हुए जाफ़ा की ओर भागे। पर तब तक उनकी गिरफ्तारी का आदेश वहाँ भी पहुँच चुका था। अहमद बे नामक एक अफसर पर कमाल को पकड़ने का भार था, पर चूँकि अहमद स्वयं वतन का सदस्य था, इसलिए उसने कमाल को गिरफ्तार करने के बजाय गाजा मोर्चे पर भेज दिया और यह सुल्तान को यह रिपोर्ट भेज दी कि वह छुट्टी पर गये ही नहीं थे।

यद्यपि कमाल सलोनिका में बहुत थोड़े समय तक ही रह पाये, फिर भी उन्होंने यह भली-भाँति समझ लिया था कि सलोनिका को ही विद्रोह का केन्द्र बनाना ठीक रहेगा, इसलिये बड़े प्रयत्नों के बाद सन् 1908 में उन्होंने अपना स्थानान्तरण सलोनिका ही करवा लिया।

अनवर पाशा का क्रान्ति-प्रयास

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यहाँ अनवर के नेतृत्व में दो साल पहले ही एकता और प्रगति समिति के नाम से एक क्रान्तिकारी दल की स्थापना हो चुकी थी। कमाल तत्काल उसके सदस्य बन गये, परन्तु दल के नेताओं से उनकी नहीं बनीं। फिर भी वे समिति का काम निरन्तर करते रहे। इस दल के एक नेता नियाज़ी ने केवल कुछ सौ आदमियों को लेकर तुर्की सरकार के विरुद्ध विद्रोह बोल दिया। यद्यपि थी तो यह बड़ी मूर्खता की बात, परन्तु चूँकि सारा देश तैयार था, इसलिए जो सेना उससे लड़ने के लिए भेजी गयी थी, वह भी अनवर से जा मिली। इस प्रकार देश में अनवर का जय-जयकार हो गया।

अनवर की असफल क्रान्ति

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अब सह सम्मिलित सेना राजधानी पर आक्रमण करने की तैयारी कर रही थी। सुल्तान ने इन्हीं दिनों कुछ शासन-सुधार भी किये। फिर भी विद्रोह की शक्तियाँ अपना काम करती रहीं, पर जब विद्रोह सफल हो चुका तब सुल्तान अब्दुल हमीद ने सेना के कुछ लोगों को यथेष्ट घूस देकर अपने साथ मिला लिया, जिससे सैनिकों ने विद्रोह करके अपने अफसरों को मार डाला और फिर एक बार इस्लाम, सुल्तान और खलीफ़ा की जय के नारे बुलन्द हुए।

अनवर का पाशा पलट पुनर्प्रयास

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इन दिनों अनवर बर्लिन में थे। वह जल्दी ही लौटे और उन्होंने अब्दुल हमीद को गद्दी से उतार कर अनेक प्रतिक्रियावादी नेताओं की फाँसी पर चढ़ा दिया। इस प्रकार अनवर की क्रान्तिकारी समिति के हाथ में प्रशासनिक शक्ति आ गयी। आम जनता को दिग्भ्रमित करने के लिये सुल्तान के भान्जे को सिंहासन पर बिठा दिया गया।

कमाल व अनवर में सत्ता-संघर्ष

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इधर कमाल पाशा अनवर के विरुद्ध निरन्तर षड्यन्त्र करते रहे क्योंकि उनके विचार से अनवर बेशक आदर्शवादी थे किन्तु अव्यावहारिक अधिक व्यक्ति थे। बावजूद इस सबके अनवर ने उस समय होने वाले विदेशी आक्रमणों को एक के बाद एक लगातार विफल किया इससे जनता में अनवर की ख्याति और अधिक बढ़ी।

अनवर के इस्लामीकरण के विरुद्ध कमाल का आन्दोलन

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कमाल पाशा सैनिक वेष में (1918 का चित्र)

इसके बाद अनवर ने अपने सर्व इस्लामी स्वप्न को सत्य करने के लिए कार्य आरम्भ किया और उन्होंने इसके लिए सबसे पहला काम यह किया कि तुर्की सेना को संगठित करने का भार एक जर्मन जनरल को दिया। कमाल ने इसके विरुद्ध यह कहते हुए आन्दोलन प्रारम्भ किया कि यह तो तुर्की जाति का अपमान है। इस पर कमाल को सैनिक दूत बनाकर सोफ़िया भेज दिया गया।

महायुद्ध के भँवर-जाल में

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इसी बीच महायुद्ध छिड़ गया। इसमें अनवर सफल नहीं हो सके, पर कमाल ने एक युद्ध में कुस्तन्तुनिया पर अधिकार करने की ब्रिाटिश चाल को विफल कर दिया और उसके बाद उनकी जीत पर जीत होती चली गयी। फिर भी महायुद्ध में तुर्की हार गया। कमाल दिन रात परिश्रम करके विदेशियों के विरुद्ध आन्दोलन करते रहे। 1920 में सेव्रा की सन्धि की घोषणा हुई परन्तु इसकी शर्तें इतनी खराब थीं कि कमाल ने फौरन ही एक सेना तैयार कर कुस्तुन्तुनिया पर आक्रमण की तैयारी की।

ग्रीस का आक्रमण

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इसी बीच ग्रीस ने तुर्की पर हमला कर दिया और स्मरना में सेना उतार दी जो कमाल के प्रधान केन्द्र अंगारा की तरफ बढ़ने लगी। अब तो कमाल के लिये बड़ी समस्या पैदा हो गई, क्योंकि इस युद्ध में यदि वे हार जाते तो आगे कोई संभावना न रहती। इसलिये उन्होंने बड़ी तैयारी के साथ युद्ध किया जिसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे ग्रीक सेना को पीछे हटना पड़ा।

फ्रांस व रूस की सहायता

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इस बीच फ्रांस और रूस ने भी कमाल को गुप्त रूप से सहायता देना शुरू किया। थोड़े दिनों में ही ग्रीक निकाल बाहर किए गए। ग्रीकों को भगाने के बाद ही अंग्रेजों के हाथ से बाकी हिस्से निकालने का प्रश्न था। देश उनके साथ था, इसके अतिरिक्त ब्रिाटेन अब लड़ने के लिये बिल्कुल तैयार नहीं था। इस कारण यह समस्या भी सुलझ गई।

तुर्की में प्रजातन्त्र

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अतातुर्क के आदेशानुसार तुर्की भाषा में अनुवादित कुरान की पुरानी प्रति

कमाल ने देश को प्रजातन्त्र घोषित किया और स्वयं प्रथम राष्ट्रपति बने। अब राज्य लगभग निष्कण्टक हो चुका था, पर मुल्लाओं की ओर से उनका निरन्तर विरोध हो रहा था। इसपर कमाल ने सरकारी अखबारों में इस्लाम के विरुद्ध प्रचार शुरू किया। अब तो धार्मिक नेताओं ने उनके विरुद्ध फतवे जारी कर दिये और यह कहना शुरू किया कि कमाल ने अंगोरा में स्त्रियों को पर्दे से बाहर निकाल कर देश में आधुनिक नृत्य का प्रचार किया है, जिसमें पुरुष स्त्रियों से सटकर नाचते हैं, इसका अन्त होना चहिए। हर मस्जिद से यह आवाज उठायी गयी। तब कमाल ने 1924 के मार्च में खिलाफत प्रथा का अन्त किया और तुर्की को धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र घोषित करते हुए एक विधेयक संसद में रखा। अधिकांश संसद सदस्यों ने इसका विरोध किया, पर कमाल ने उन्हें कसके धमकाया। उनकी इस धमकी का पुरजोर असर हुआ और विधेयक पारित हो गया।

प्रतिक्रियावादियों के खिलाफ संघर्ष

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पर भीतर-भीतर मुल्लाओं के विद्रोह की आग बराब सुलगती रही। कमाल के कई भूतपूर्व साथी मुल्लाओं के साथ मिल गये थे। इन लोगों ने विदेशी पूँजीपतियों से धन भी लिया था। कमाल ने एक दिन इनके मुख्य नेताओं को गिरफ्तार कर फाँसी पर चढ़ा दिया। कमाल ने देखा कि केवल फाँसी पर चढ़ाने से काम नहीं चलेगा, देश को आधुनिक रूप से शिक्षित करना है तथा पुराने रीति रिवाजों को ही नहीं, पहनावे आदि को भी समाप्त करना है।

सामाजिक व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन

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कमाल ने पहला हमला तुर्की टोपी पर किया। इस पर विद्रोह हुए, पर कमाल ने सेना भेज दी। इसके बाद इन्होंने इस्लामी कानूनों को हटाकर उनके स्थान पर एक नई संहिता स्थापित की जिसमें स्विटज़रलैंड, जर्मनी और इटली की सब अच्छी-अच्छी बातें शामिल थीं। बहु-विवाह गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। इसके साथ ही पतियों से यह कहा गया कि वे अपनी पत्नियों के साथ ढोरों की तरह-व्यवहार न करके बराबरी का बर्ताव रखें। प्रत्येक व्यक्ति को वोट का अधिकार दिया गया। सेवाओं में घूस लेना निषिद्ध कर दिया गया और घूसखोरों को बहुत कड़ी सजाएँ दी गईं। स्त्रियों के पहनावे से पर्दा उठा दिया गया और पुरुष पुराने ढंग के परिच्छेद छोड़कर सूट पहनने लगे।

भाषायी क्रान्ति से राष्ट्रीय एकता की स्थापना

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इससे भी बड़ा सुधार यह था कि अरबी लिपि को हटाकर पूरे देश में रोमन लिपि की स्थापना की गयी। कमाल स्वयं सड़कों पर जाकर रोमन वर्ण-माला में तुर्की भाषा पढ़ाते रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि सारा तुर्की संगठित होकर एक हो गया और अलगाव की भावना समाप्त हो गयी।

सैन्य व्यवस्था में सुधार

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इसके साथ ही कमाल ने तुर्की सेना को अत्यन्त आधुनिक ढंग से संगठित किया। इस प्रकार तुर्क जाति कमाल पाशा के कारण आधुनिक जाति बनी। सन् 1938 के नवम्बर मास की 10 तारीख को मुस्तफ़ा कमाल अतातुर्क की मृत्यु हुई तब तक आधुनिक तुर्की के निर्माता के रूप में उनका नाम संसार में सूरज की तरह चमक चुका था।

व्यक्तिगत जीवन

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मुस्तफ़ा कमाल पाशा व उसकी पत्नी लतीफी

वैसे तो कमाल पाशा के जीवन में चार स्त्रियों के साथ उसका प्रेम प्रसंग चला किन्तु शादी उसने केवल लतीफी उस्साकी से ही की। यद्यपि उससे कमाल को कोई सन्तान नहीं हुई और वह निस्संतान ही मर गयी। बीबी के मरने के बाद मुस्तफ़ा कमाल पाशा ने कभी विवाह नहीं किया। जीवन के एकाकीपन को दूर करने के लिये उसने तेरह अनाथ बच्चों को गोद लिया और उनकी बेहतर ढँग से परवरिश की। इन तेरह बच्चों में भी बारह लड़कियाँ थीं और केवल एक ही लड़का था।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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  • बिस्मिल की आत्मकथा चतुर्थ खण्ड-2
  • Waraich, Malwinder Jit Singh (2007). Musings from the gallows : autobiography of Ram Prasad Bismil. Unistar Books, Ludhiana. पृ॰ 80. मूल से 23 जून 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 जून 2020.