कलावाद
कलावाद 'कला कला के लिए' (Art for art's sake) मान्यता पर आधारित कला के प्रति एक दृष्टिकोणविशेष जिसे लेकर 19वीं शताब्दी के दौरान यूरोप में व्यापक वादविवाद छिड़ गया था। कलावाद को साहित्य एवं कला के क्षेत्र में उपयोगितावाद के विलोम के रूप में जाना जाता है।
इस सिद्धांत का प्रतिपादन विक्टर कूजे ने 1818 में किया। इसके अनुसार कला का उद्देश्य किसी नैतिक या धार्मिक उद्देश्य की प्राप्ति नहीं बल्कि स्वंय अपने पूर्णता की तलाश है। कला सौन्दर्यानुभूति का वाहक है इसलिये इसे उपयोगिता की कसौटी पर नहीं परखा जाना चाहिये। समाज, नीति, धर्म, दर्शन आदि के नियमों का पालन कला की स्वच्छंद तथा स्वतः स्फूर्त अभिव्यक्ति में बाधक होते हैं।
परिचय
संपादित करेंकलावादियों के अनुसार कलाकार लोकोत्तर प्राणी, कला लोकातीत वस्तु तथा कलाजन्य आनंद अलौकिक आस्वादयुक्त एवं समाजनिरपेक्ष होता है। इसके विपरीत उपयोगितावादी कला को न केवल समाज की मनोवृत्तियाँ परिवर्तित करके वांछित दिशा की ओर अग्रेसारित करने का सशक्त साधन मानते हैं, अपितु उसे सिद्धांत प्रचार का सर्वोत्तम माध्यम भी बताते हैं। उपयोगितावादियों ने कलावादियों पर संकीर्ण एवं व्यक्तिनिष्ठ होने का आरोप लगाते हुए कहा है, वे वायवीय घोड़े पर आरूढ़ हैं। कलावादियों ने उपयोगितावादियों पर स्थूल सामाजिकता का आग्रही होने का लांछन लगाया और कहा, उन्होंने हमें स्वर्ग देने का वचन दिया था, लेकिन दिया है रुगणालय। विचारकों का एक तीसरा वर्ग भी है जो कलावाद के व्यक्तिपक्ष और उपयोगितावाद के समाजपक्ष के समन्वय को हितकर मानता है।
कलावादी दृष्टिकोण की प्रत्यक्षाप्रत्यक्ष सत्ता यूरोप में प्लेटो तथा अरस्तू से लेकर आज तक किसी न किसी रूप में लगातार मिलती है। प्लेटो ने अपने ग्रंथ 'रिपब्लिक' में कवियों और कलाकारों को राष्ट्रबहिष्कृत कर देने की व्यवस्था दी है; कारण, उनकी दृष्टि में कल्पनाशील कलाकारों एवं कवियों का असीम प्रभाव नैतिक एवं सामाजिक दृष्टि से अवांछनीय था। अरस्तू ने यद्यपि अपने गुरु प्लेटो की नैतिक एवं सामाजिक धारणा का खुले रूप में खंडन नहीं किया है, साथ ही कला मैं नैतिक तत्त्व तथा उपदेशात्मकता भी उन्हें अमान्य नहीं किया है, तो भी प्रसिद्ध कलासमीक्षक बूचर के मतानुसार अरस्तु ने ही पहले पहल कलाशास्त्र ने नीतिशास्त्र को पृथक किया और बताया कि परिष्कृत आनंदानुभूति ही काव्यकला अथवा कला का चरम लक्ष्य होता है। रोम के प्रसिद्ध विचारक सिसरों ने शलीनता (डेकोरम) तथा उदात्तता (सब्लाइमनेस) को कला का प्रमुख प्रतिपाद्य निर्धारित किया है। लोंगिनुस (लांजाइनस) ने अपनी कृति 'पेरिइप्सुस' में कला को न केवल शिक्षा और मनोरंजन से भिन्न एवं श्रेष्ठ माना है बल्कि उसे संप्रेरणा के उच्च धरातल पर प्रतिष्ठित करके, उसके स्वतंत्र मूल्यांकन का परामर्श भी दिया है। लोंगिनुस के अनुसार काव्य तथा कला का मुख्य तत्त्व उदात्त (द्र.) है और भावना का उदात्तीकरण ही उनका प्रधान परिणाम होता है जिसका व्यक्ति से भी और समाज से भी सीधा संबंध रहता है। अत: अपने वक्तव्य और प्रतिपादन में लोंगिनुस निश्चित ही मध्यमार्गी हैं। डायोनीसिस तथा डिमेट्रियस प्रभृति अन्य अनेक रोमन विचारकों ने काव्य तथा कला के शैलीपक्ष पर ही विशेष जोर दिया है।
यूरोप की शास्त्रीय या क्लासिकल कला का पल्लवन अधिकांशत: ईसाई धर्म अथवा 'चर्च' के सरंक्षण में हुआ। अत: सातवीं से 15वीं शती ईसवी के बीच रोम को केंद्र मानकर जिस बैजंतिया (बाइज़ैंटाइन अर्थात् रोम साम्राज्य में विकसित शैली) कला का विकास मिस्र से रूस तक हुआ, वह चर्च आश्रित होने के कारण नैतिक-धार्मिक-मूल्य-समन्वित थी, अत: उसका सोद्देश्य तथा उपदेशात्मक होना जरूरी था और इसीलिए उसमें कलापक्ष गौण ही रहा। तो भी ऐसा नहीं है कि उक्त काल की कला में कल्पना तथा भावनाओं के लिए कोई छूट थी ही नहीं। इसके विपरीत धार्मिक दृष्टिसंपन्न कलाकार बिना किसी बाहरी नियंत्रण अथवा बाध्यता के उच्च कोटि की कला का सृजन करते थे। टाल्स्टाय (1828-1910 ई.) कलावादी विचारधारा के प्रबल विरोधी थे। उनके मत से धर्म के प्रति विश्वास का अभाव ही कलावादी विचारों को जन्म देता है और कला का साध्य न आनंद है, न ही सौंदर्य। वे नैतिकता के प्रति अत्याग्रही थे और गांधी जी की तरहत उनका दृष्टिकोण सुधारवादी था। सुधारवाद प्रकारांतर से उपयोगितावाद ही है। अत: टाल्स्टाय के लिए कला निश्चित ही एक गौण साधन मात्र रहा।
इटली के महान् कवि आलीग्यारी दांते (1265-1321ई.) ने कला के क्षेत्र में पुन: उदात्त गुणों एवं भव्य शैली की प्रतिष्ठा की। दांते का प्रभाव कुछ ही दिन रहा। पश्चात् शास्त्रीय दृष्टि धीरे-धीरे रूमानी दृष्टिकोण से आच्छादित होने लगी। फलत: इस समय कला संबंधी मूल्यों में भारी परिवर्तन हुआ। 17वीं शताब्दी को कला की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। इसके दौरान फ्रांस में नव्यशास्त्रवाद (नियोक्लासिसिज्म़) का उदय हुआ। लेकिन यह भी मध्यकालीन चिंतन के नवीन संस्करण से अधिक नहीं था।
रेनेसाँ (1453 ई.) के बाद यूरोप में मध्यकालीन नैतिक मूल्यों का विघटन होना शुरू हुआ जिससे परंपरावादी तथा स्वातंत््रयमूलक विचारों के बीच अस्थिरता का वातावरण ही उत्पन्न नहीं हुआ बल्कि परस्पर टकराव भी होने लगा। इसका कारण इस समय किसी सुदृढ़ दर्शन का अभाव था। सन् 1866 ई. के लगभग विविध साहित्यिक एवं कलासंबंधी वादों के प्रवर्तन में आग्रही देश फ्रांस में 'ल आर्त पोर ल आर्त' सूत्रकथन सामने आया जिसका अंग्रेजी अनुवाद 'आर्ट फ़ॉर आर्ट्स सेक' है और हिंदी में जिसे 'कला कला के लिए' वाक्यांश से जाना जाता है। यहीं से कलावादी विचारधारा का प्रत्यक्ष आरंभ माना जा सकता है। अमरीकी चित्रकार जेम्स एबॉट मैकनील ह्वीस्लर (1834-1903 ई.), जो आजीवन फ्रांस और इंग्लैंड में कार्यरत रहा, कलावाद का प्रबल समर्थक बना। हुआ यह कि 1877 ई. में ग्रॉसवेनर चित्रकला प्रदर्शनी में अंग्रेजी के प्रख्यात समालोचक रस्किन ने ह्वीस्लर के चित्रों की तीखी आलोचना की और कहा, ह्वीस्लर अपने चित्रों के माध्यम से दर्शकों के चेहरों पर रंगभरी प्यालियाँ उँड़ेल देता है। रस्क्नि के इस कथन पर अदालत में मुकदमा शुरू हो गया जिसमें ह्वीस्लर को अंतत: क्षतिपूर्ति के रूप में एक फादिंग (इंग्लैंड में प्रचलित सबसे छोटा सिक्का) मिला। इसके बाद भी कला के उद्देश्य को लेकर रस्किन और ह्वीस्लर के बीच वादविवाद चलता रहा। रस्किन कला को नैतिकता से अलग-थलग बिल्कुल स्वंतत्र एवं स्वत:पूर्ण मानता था। इसी से प्रेरित होकर ह्वीस्लर ने अपनी पूरी शक्ति से 'कला कला के लिए' मत का प्रवर्तन किया जो अतिवाद की सीमा तक जा पहुँचा।
ब्रैडले, क्लाइव बेल, रोजर फ़ाइ तथा जार्ज इन्नेस इत्यादि प्रमुख समालोचक कलावादी विचारधारा के प्रबल पोषक थे। ब्रैडले (1851-1934 ई.) ने तो अपने ग्रंथ 'पोएट्री फ़ॉर पोएट्रीज़ सेक' (1901 ई.) में स्पष्ट रूप से घोषणा की कि नैतिकता कविता का मात्र बाह्य पक्ष है। अत: कविता की श्रेष्ठता के लिए उसे अनिवार्य मानना एकदम बेसूझ हैं। क्लाइव बेल ने आधुनिक चित्रकला के संदर्भ में रूपतत्व को प्रमुख माना और 1914 ई. में 'सिगनिफ़िकेंट फ़ार्म' का सिद्धांत प्रस्तुत किया जिसका पुनराधान रोजर फ़ाई ने 1920 ई में किया। क्रोचे (1866-1952 ई.) के अभिव्यंजनावाद से कलावाद को एक सुस्पष्ट दार्शनिक आधार प्राप्त हो गया। कांट (1724-1804 ई.) की स्थापना 'सौंदर्य का कोई बाह्य अस्तित्व नहीं है' को आधार बनाकर क्रोचे ने अपने 'ला स्पिरितो' (1903-1909 ई.) नामक ग्रंथ में सौंदर्यबोध के लिए 'अंत: प्रज्ञा' (इनट्यूशन) की सत्ता का प्रतिपादन किया और बताया कि सौंदर्यसृष्टि तथा सौंदर्यानुभूति दोनों ही सूक्ष्म मानसिक व्यापार हैं। साथ ही वर्ण्यवस्तु तथा अभिव्यंजना के बीच तात्विक एकता होती है। अत: कलापक्ष और वस्तुपक्ष को विच्छिन्न करके देखना भ्रामक है। क्रोचे के अनुसार कला मूलत: एक आध्यात्मिक क्रिया है, इसलिए उसकी दृष्टि में अभिव्यंजना के अतिरिक्त कला को कोई अन्य उद्देश्य अथवा प्रयोजन नहीं होता। इतना ही नहीं, क्रोचे ने कला को नैतिक किंवा शैक्षणिक सीमाओं से मुक्त भी माना है।
देखा जाए तो क्रोचे के सिद्धांत द्वारा एक प्रकार से उपयोगितावादी मान्यता का खंडन हो जाता है, लेकिन उक्त सिद्धांत कला के अमूर्त व्यापार पर ही लागू होता है, मूर्त पर नहीं। क्रोचे का कला सिद्धांत तत्वत: समाजविरोधी नहीं है क्योंकि मूर्त होने पर वह भी कला को समाजनिरपेक्ष नहीं मानता। फ्ऱायड के 'स्वप्नवाद' से भी कलावादी दृष्टि को काफी बल मिला। आई.ए.रिचर्ड्स ने अपनी पुस्तक 'प्रिंसिपल्स ऑव लिटरेरी क्रिटिसिज्म़' (1924 ई) में कलावादी दृष्टि का खंडन सैद्धांतिक आधार पर करते हुए प्रेषणीयता को काव्यप्रक्रिया में विशेष महत्त्व प्रदान किया तथा कहा कि काव्य की सत्ता शेष जगत् से भिन्न नहीं है और न ही काव्य की अनुभूति शेष जगत् की अनुभूति से भिन्न है। इस प्रकार रिचर्ड्स ने कला के क्षेत्र में उपयोगितावाद को पुन: प्रतिष्ठा की।
मार्क्सवाद के उदय के साथ कलावादी मान्यताओं का तेजी से विघटन हुआ। मार्क्स ने अपने अर्थशास्त्र में कला के प्रति उपयोगितावादी दृष्टिकोण अपनाया और कहा कि कला जनता के लिए, मुख्यत: सैनिकों और श्रमिकों के लिए ही है। स्टालिन ने रूस में और माओ ने चीन में कला तथा साहित्य को राजनीति के प्रचार का प्रमुख साधन माना एवं उसपर राजशक्ति का अंकुश लगा दिया। माओ ने 'प्राब्लम्स ऑव आर्ट ऐंड लिटरेचर' शीर्षक अपने परिपत्र में मार्क्स की उपर्युक्त स्थापनाओं के प्रति आस्था व्यक्त की है। मार्क्सवादी समालोचक कॉडवेल ने भी कलावादी विचारधारा को विशुद्ध बूर्जुआ दृष्टि से उत्पन्न कुत्सित वृत्ति का परिणाम बताया है। मार्क्सवादी खेमे में ट्राटस्की ही एक ऐसा व्यक्ति है जा कला के क्षेत्र में राजनीतिक पार्टी के हस्तेक्षप को अनुचित मानता है। 'लिटरेचर ऐंड रिवोल्यूशन' नामक अपने ग्रंथ में उसने स्पष्ट कहा है, कला के क्षेत्र में पार्टी को आदेश देने की आवश्यकता नहीं है। यह ठीक है कि पार्टी के कर्तव्यों में कला की रक्षा और उसकी सहायता करना भी है, लेकिन नेत्तृत्व उस क्षेत्र में अपरोक्ष रूप से ही हो सकता है। इधर आई.पी. पावलोव आदि विद्वानों द्वारा प्रस्तुत शरीर-क्रिया-मनोविज्ञान संबंधी उच्च अध्ययन द्वारा अंतिम रूप से निर्णय हो गया है कि कला भी व्यक्ति एवं समाज के लिए उतनी ही उपयोगी है जितने अन्य सामान्य भौतिक उपादान।
भारतीय साहित्य में भी अलंकार, रीति, वक्रोक्ति आदि से संबंधित अनेक ऐसे संप्रदाय रहे हैं जिनकी दृष्टि में कलापक्ष अधिक महत्वपूर्ण था। हिंदी के आधुनिक साहित्य में प्रेमचंद, दिनकर आदि उपयोगितावादी थे तो प्रसाद ने आनंदवादी दृष्टि अपनाई जो कलावाद के अधिक निकट है। अज्ञेय, महादेवी वर्मा आदि कलावादी हैं तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ॰रामविलास शर्मा आदि आलोचकों की दृष्टि विशुद्ध उपयोगितावादी है। डॉ॰ श्यामसुंदरदास साहित्य में कलावाद एवं उपयोगितावाद के समन्वित रूप को ही उत्तम और श्रेयस्कर मानते हैं।