कलिंग युद्ध
अशोक के तेरहवें अभिलेख के अनुसार उसने अपने राज्याभिषेक के आठ वर्ष बाद कलिंग युद्ध लड़ा। कलिंग विजय उसकी आखिरी विजय थी। यह युद्ध २६२-२६१ ईपू मे लड़ा गया।


युद्ध के कारण संपादित करें
१-कलिंग पर विजय प्राप्त कर अशोक अपने साम्राज्य मे विस्तार करना चाहता था।
२-सामरिक दृष्टि से देखा जाए तो भी कलिंग बहुत महत्वपूर्ण था। स्थल और समुद्र दोनो मार्गो से दक्षिण भारत को जाने वाले मार्गो पर कलिंग का नियन्त्रण था।
३-यहाँ से दक्षिण-पूर्वी देशो से आसानी से सम्बन्ध बनाए जा सकते थे।
४- संपूर्ण भारत के सभी प्रांतों को अपने अधीन करने के बाद कलिंग ही बच गया था, इसके मौर्य के अधीन होने से विदेशी शक्तियों द्वारा भारत पर आक्रमण से सुरक्षा में आसानी हो गयी।
परिणाम संपादित करें
१-मौर्य साम्राज्य का विस्तार हुआ। इसकी राजधानी [तोशाली] बनाई गई।
२-इसने अशोक की साम्राज्य विस्तार की नीति का अन्त कर दिया।
३-इसने अशोक के जीवन पर बहुत प्रभाव डाला। उसने अहिंसा, सत्य, प्रेम, दान, परोपकार का रास्ता अपना लिया।
४-अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया। उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भी किया।
५-उसने अपने संसाधन प्रजा की भलाई मे लगा दिए।
६-उसने 'धम्म' की स्थापना की।
७-उसने दूसरे देशो से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाए
८-कलिंग युद्ध मौर्य साम्राज्य के पतन का कारण बना। अहिंसा की नीति के कारण उसके सैनिक युद्ध कला मे पिछड़ने लगे। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे उसका पतन आरम्भ हो गया तथा अशोक की मृत्यु के ५० वर्ष के भीतर ही मौर्य वंश का पतन हो गया। इस इस युद्ध में लगभग 100000 लोग मारे गए और प्रजा को ( स्त्रियों सहित ) बंदी बनाकर मगध लाया गया और संपूर्ण कलिंग क्षेत्र में आग लगा दी गई। इस युद्ध के बाद अशोक का हृदय परिवर्तन हुआ और उसने हिंसा त्याग दी इस युद्ध का वर्णन अशोक के 13 शिलालेख से मिलता है
युद्धग्लानि से बौध्य बनना संपादित करें
अशोक के गिरनार के अष्टम शिलालेख की दूसरी लाइन मे सम्राट अशोक कहते है की उन्होंने बुद्ध मार्ग का अनुसरण राज्याभिषेक के 10 वर्ष किया । इसलिए इतिहास को किताबों में भी यही पढ़ाया जाता है इनके परिवर्तित होने के समकाल के बारे में । दीपवंश में भी लिखी है की उन्होंने युद्ध के बाद करीब 2 साल तक बुद्ध की विचार धारा समझने में लगाया फिर उन्होंने बुद्ध संघ को अपनाया। अशोक को बौध्य संघ मे लाने का श्रेय उसके भाई उपगुप्त को दिया जाता है जिसका पूर्व बौध्य बनने से पूर्व तिश्य था ।
गिरनार अष्टम शिला अभिलेख संपादित करें
1. अतिकातं अंतरं राजानो विहारयातां अयासु एत मगव्या अजानि च एतारिसनि 2. अभीरमकानि अहंसु सो दवानंप्रियो पियदसि राजा दसवसाभिसितो संतो अयाय संबोधि 3. तेनेसा धंमयाता एतयं होति बाम्हणसमणानं दसणे च दाने च धैरानं दसणे च 4. हिरंणपटिविधानो च जानपदस च जनस दस्पनं धंमानुसस्टी च धंमपरिपुछा च 5. तदोपया एसा भुय रति भवति देवानंप्रियस प्रियदसिनो राजो भागे अंबे ।
(हिन्दी अनुवाद)
1. अतीत काल में (बहुत वर्षों से) राजा लोग विहार यात्रा के लिये जाया करते थे। यहां (इन विहार यात्राओं में) शिकार तथा इसी प्रकार के अन्य
2. आमोद प्रमोद हुआ करते थे। देवानांप्रिय प्रियदर्शी राजा ने अपने राज्याभिषेक के दस वर्ष पश्चात् संबोधि (बौध्य संघ) के मार्ग का अनुसरण किया।
3. तब से उसने इस धर्म यात्रा का शुरवात किया । इस प्रकार की यात्रा में यह सब कुछ होता है जैसे- ब्राह्मणों व श्रमणों का दर्शन करना और उन्हें दान देना, वृद्धों का दर्शन करना और
4. उन्हें सुवर्णदान देना जनपद निवासियों से मिलना तथा उन्हें धर्मोपदेश देना तथा उनके समीप जाकर उनसे धर्मसम्बन्धी चर्चा करना ।