कल्पना

मानसिक प्रक्रिया

विगत प्रत्यक्षानात्मक अनुभवों (पास्ट पर्सेप्चुअल एक्स्पीरिएन्सेज़) का बिंबों और विचारों (इमेजेज़ ऐंड आइडियाज़) के रूप में, विचारणात्मक स्तर पर, रचनात्मक नियोजन कल्पना (इमैजिनेशन) है। कल्पना की मानसिक प्रक्रिया के अतंर्गत वास्तव में दो प्रकार की मानसिक प्रक्रियाएँ निहित हैं – प्रथम, विगत संवेदनशीलताओं का प्रतिस्मरण, बिंबों एवं विचारों के रूप अर्थात स्मृति, द्वितीय, उन प्रतिस्मृत अनुभवों की एक नए संयोजन में रचना। लेकिन कल्पना में इन दोनों प्रकार की क्रियाओं का इतना अधिक सम्मिश्रण रहता है कि न तो इनका अलग-अलग अध्ययन ही किया जा सकता है और न इनकी अलग-अलग स्पष्ट अनुभूति ही व्यक्ति विशेष को हो पाती है। इसी कारण कल्पना को एक उच्चस्तरीय जटिल प्रकार की मानसिक प्रक्रिया कहा जाता है।

कल्पना एवं चिन्तन

संपादित करें

कल्पना एवं चिंतन की मानसिक प्रक्रियाओं की प्रकृति इतनी अधिक समान होती है कि साधारण भाषा में कभी-कभी इनका पर्यायवाची शब्दों के रूप में प्रयोग किया जाता है। समानता की दृष्टि से, दोनों ही क्रियाओं में विगत अनुभवों का प्रतिस्मरण तथा उनक नया संयोजन तैयार करना है, एवं दोनों की क्रियाएँ व्यक्ति की असंतुष्ट आवश्यकताओं और इच्छाओं की संतुष्टि का मार्ग खोजने के लिए उत्पन्न होती हैं। लेकिन दोनों के उद्देश्य भिन्न होते हैं। कल्पना अवास्तविक, अतार्किक एवं काल्पनिक रचनात्मक हल आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए खोजती है, चिंतन का उद्देश्य हमेशा तार्किक एवं वास्तविक हल खोजना है और इसीलिए इसे तार्किक (रीज़निंग) क्रिया के नाम से भी पुकारा जाता है। चिंतन की क्रिया तब तक प्रारंभ नहीं होगी जब तक कोई वास्तविक समस्या आवश्यकताओं की संतुष्टि में मार्ग में उपस्थित न हो। लेकिन कल्पना अवास्तविक और काल्पनिक समस्याओं की उपस्थिति से भी प्रारंभ हो सकती है।

कल्पना के प्रकार

संपादित करें

कल्पना को भी दो प्रकारों में बाँटा जाता है। प्रथम प्रकार की कल्पना के अंतर्गत दिवास्वप्न और मानसिक उड़ानें आती हैं जिनकी सहायता से व्यक्ति एक काल्पनिक जगत् का निर्माण करता है, जो वास्तविक जगत् की तुलना में उसकी आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। इस प्रकार की कल्पना से सभी सामान्य व्यक्ति लाभान्वित होते हैं तथा अपनी भौतिक असमर्थता के मानसिक कुप्रभाव से अपनी रक्षा करते हैं। किंतु इस प्रकार की कल्पना की बारंबारता मानसिक रोगियों का एक प्रधान लक्षण बन जाती है जिसके फलस्वरूप विचित्र भ्रमों (डेल्युज़न्स) का निर्माण होता है। दूसरे प्रकार की कल्पना सर्जनात्मक (क्रिएटिव) नाम से अभिहित होती है जिसके अंतर्गत ऐसी काल्पनिक उड़ानें गिनी जाती हैं जिनके द्वारा साहित्यिक, कलात्मक वैज्ञानिक, सर्जनात्मक रचनाकार्य होते हैं। सर्जनात्मक रचनाएँ प्रतिभाशाली व्यक्ति ही कर पाते हैं। सर्जनात्मक कल्पना का विश्लेषण करते हुए प्रतिभाशाली हेल्महोल्त्स (Helmholtz), आन्री पांकरे (Poincare), ग्रैहम वैलेस (Graham Wallas) आदि ने इसकी चार अवस्थाएँ बताई हैं–तैयारी (प्रिपरेशन), निलायन (इन्क्यूबेशन), उच्छ्वसन (इंस्पिरेशन) तथा प्रमापन (वेरिफ़िकेशन)। प्रथम अवस्था में सृजनकर्ता विभिन्न तथ्यों तथा निरीक्षणों को एक एकचित्र करके अपनी समस्या और उद्देश्य की वास्तविकता की परीक्षा करता है। दूसरी अवस्था में कोई स्पष्ट प्रगति दृष्टिगत नहीं होती लेकिन, वास्तव में, विभिन्न उपकल्पनाओं (हाइपाथेसेस) का आंतरिक मनन चलता रहता है। सबसे महत्वपूर्ण तीसरी अवस्था ही है जिसमें दैवी प्रेरणा सी प्राप्त होती है और सृजन कार्य हो जाता है। अगर यह सृजन कार्य वैज्ञानिक उपकल्पना के रूप में है तो उसकी सत्यता को प्रमाणित (वेरिफ़ाई) करना होता है तथा, अगर वह साहित्यिक वा कलात्मक सृजन कार्य है, तो उसे अपने-अपने प्रकाशन के माध्ममों से व्यक्ति करना होता है। मनोवैज्ञानिक रौसमैन (Rossman, 1931), मनके (Meinecke), तथा प्लैट (Platt) और बेकर (Baker, 1931), ने अनुसंधानकर्ताओं एवं वैज्ञानिकों से, एवं सी. पैट्रिक (1935) महोदया ने कवियों एवं चित्रकारों से जो तथ्य प्राप्त किए हैं वे सर्जनात्मक कल्पना की इन चारों अवस्थाओं का समर्थन करते हैं।

कल्पना का शारीरिक आधार

संपादित करें

कल्पना के शारीरिक आधार के संबंध में भी दो प्रकार के सिद्धांत प्रचलित हैं–पहला, केंद्रीय सिद्धांत (सेंट्रल थियरी) के अनुसार, जो प्राचीन सिद्धांत है, कल्पना मस्तिष्क की जटिल क्रियाओं पर आधारित है और उसका ही एक अंग है। दूसरा, प्रेरक या परिधि सिद्धांत (मोटर ऑर पेरिफ़ेरल थियरी) के नाम से प्रसिद्ध है जिसके अनुसार कल्पना चूँकि एक व्यवहार है इसलिए इसके अंतर्गत भी साधारण व्यवहार की ही भाँति ज्ञानेंद्रियों, मस्तिष्क तथा मांसपेशियों की शरीरिक क्रियाएँ होती हैं। इस सिद्धांत का समर्थन विभिन्न मनोवैज्ञानिक प्रयोगों के माध्यम से जैकबसन (1932), मैक्स (2020 ), शा (1940), आसेरिंस्की और कलाइतमान (1953) आदि ने किया है और यही सिद्धांत दिनोंदिन अधिक मान्य होता जा रहा है।

बाहरी कड़ियाँ

संपादित करें