कविवचनसुधा भारतेन्दु हरिशचंद्र द्वारा सम्पादित एक हिन्दी समाचारपत्र था। इसका प्रकाशन १५ अगस्त १८६७ को वाराणसी आरम्भ हुआ जो एक क्रांतिकारी घटना थी। यह कविता-केन्द्रित पत्र था। इस पत्र ने हिन्दी साहित्य और हिन्दी पत्रकारिता को नये आयाम प्रदान किए। हिन्दी के महान समालोचक डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं- "कवि वचन सुधा का प्रकाशन करके भारतेन्दु ने एक नए युग का सूत्रपात किया।"

आरम्भ में भारतेन्दु 'कविवचनसुधा' में पुराने कवियों की रचनाएँ छापते थे, जैसे चंद बरदाई का रासो, कबीर की साखी, जायसी का पद्मावत, बिहारी के दोहे, देव का अष्टयाम और दीनदयालु गिरि का अनुराग बाग। लेकिन शीघ्र ही पत्रिका में नए कवियों को भी स्थान मिलने लगा। पत्रिका के प्रवेशांक में भारतेन्दु ने अपने आदर्श की घोषणा इस प्रकार की थी -

खल जनन सों सज्जन दुखी मति होंहि, हरिपद मति रहै।
अपधर्म छूटै, स्वत्व निज भारत गहै, कर दुख बहै।।
बुध तजहि मत्सर, नारि नर सम होंहि, जग आनंद लहै।
तजि ग्राम कविता, सुकविजन की अमृतवानी सब कहै।

'कविवचनसुधा' में साहित्य तो छपता ही था, उसके अलावा समाचार, यात्रा, ज्ञान-विज्ञान, धर्म, राजनीति और समाज नीति विषयक लेख भी प्रकाशित होते थे। इससे पत्रिका की जनप्रियता बढ़ती गई। लोकप्रिया इतनी कि उसे मासिक से पाक्षिक और फिर साप्ताहिक कर दिया गया। प्रकाशन के दूसरे वर्ष यह पत्रिका पाक्षिक हो गई थी और 5 सितंबर, 1873 से साप्ताहिक। [1]

कविवचनसुधा के द्वितीय प्रकाशन वर्ष में मस्टहेड के ठीक नीचे निम्नलिखित पद छपता था -

निज-नित नव यह कवि वचन सुधा सकल रस खानि।
पीवहुं रसिक आनंद भरि परमलाभ जिय जानि॥
सुधा सदा सुरपुर बसै सो नहिं तुम्हरे जोग।
तासों आदर देहु अरु पीवहु एहि बुध लोग॥

भारतेन्दु की टीकाटिप्पणियों से अधिकरी तक घबराते थे और "कविवचनसुधा" के "पंच" पर रुष्ट होकर काशी के मजिस्ट्रेट ने भारतेन्दु के पत्रों को शिक्षा विभाग के लिए लेना भी बंद करा दिया था। सात वर्षों तक 'कविवचनसुधा' का संपादक-प्रकाशन करने के बाद भारतेन्दु ने उसे अपने मित्र चिंतामणि धड़फले को सौंप दिया और 'हरिश्चंद्र मैग्जीन' का प्रकाशन 15 अक्टूबर, 1873 को बनारस से आरम्भ किया। 'हरिश्चंद्र मैग्जीन' के मुखपृष्ठ पर उल्लेख रहता था कि यह 'कविवचनसुधा' से संबद्ध है।

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