कसावू साड़ी बुनाई की परंपरा

कसावू साड़ी बुनाई की परंपरा

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कसावू साड़ी, केरल की पारंपरिक परिधानों को भारत में एक विशेष स्थान देती है। इसे उसके सुनहरे बॉर्डर और शुद्ध सफेद या क्रीम रंग के कपड़े के कारण पहचाना जाता है। यह साड़ी न केवल केरल की सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर को दर्शाती है, बल्कि महिलाओं की उत्कृष्ट बुनाई कला और उनकी कड़ी मेहनत का प्रतीक भी है। कसावू साड़ी को पारंपरिक त्योहारों, जैसे ओणम, विषु और विवाह जैसे शुभ अवसरों पर पहनना बेहद लोकप्रिय और शुभ माना जाता है।

कसावू साड़ी का सांस्कृतिक महत्

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कसावू साड़ी केरल की संस्कृति और परंपराओं से गहराई से जुड़ी हुई है। यह केवल एक परिधान नहीं है, बल्कि इसे पहनना सम्मान और शुद्धता का प्रतीक माना जाता है। हिंदू धर्म में इसे धार्मिक अनुष्ठानों के दौरान पहनना अनिवार्य समझा जाता है। यह साड़ी केरल के मंदिरों और वहाँ की महिलाओं की पारंपरिक पहचान का अभिन्न हिस्सा है।

पुरुषों के लिए पारंपरिक कसावू मुंडु भी इसी बुनाई पर आधारित है। त्योहारों और धार्मिक समारोहों में महिलाएँ कसावू साड़ी और पुरुष कसावू मुंडु पहनकर अपनी संस्कृति को जीवंत बनाए रखते हैं।

बुनाई की कला

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कसावू साड़ी को बनाने की प्रक्रिया बेहद जटिल और श्रमसाध्य होती है। इसे हाथ से बुनने के लिए चरखा और करघा का उपयोग किया जाता है। सबसे पहले साड़ी का मुख्य कपड़ा तैयार किया जाता है, जिसे शुद्ध सूती धागों से बुना जाता है। इसके बाद, साड़ी के बॉर्डर पर सुनहरी ज़री का काम किया जाता है। इस ज़री को तैयार करने में बुनकरों की गहरी निपुणता और धैर्य की आवश्यकता होती है।

कसावू की तजीउँ और इशारो पर खास कर साड़ियों बनाने में महिला का योगदान-

कसाऊ साड़ी की परंपरा महिलाओं की तजिउँ का एक जीता-जागता उदाहरण है. पारंपरिक क्रम में बुनाई का यह काम घर के भीतर ज्यादातर बाजे करतीं थीं। इसके लिए उनमें से पहली गिनती महिलाएँ लगती हैं। वे न सिर्फ कसावू साड़ियों का बुनाई में योगदान करतीं और साड़ियों की सफाई कर सकने सहित इन पर सजावट करने, भी करतीं।

इस कला के क्षेत्र में महिलाएँ सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण हैं। बहुत से ग्रामीण परिवार यही आजीविका के लिए आँचल बनाकर जीवित रहते हैं। यह उनकी आत्म-निर्भरता का प्रतीक के रूप में देखा जा सकता है।

समकालीन समय में चुनौतियाँ

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कसावू साड़ी बुनाई की परंपरा कुछ समय से कई चुनौतियों का सामना कर रही है। मशीनें बनाई हुई साड़ियाँ मँगो, तैयारी, और उपलब्धि की दृष्टि से विनम्र, और नई पीढ़ी इन कला का महत्व ही नहीं समझना चाहती हैं। इन बुनाई के बाद समय लंबा, और मेहनताना भी कम मिलती है जिससे नई पीढ़ी इस काम को अपनी जिंदगी का अंग नहीं बना सकती है।.

कई बुनकरों को उनके काम का वास्तविक मूल्य नहीं मिल पाता, और वे आर्थिक रूप से संघर्ष कर रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप, यह कला धीरे-धीरे विलुप्ति की ओर बढ़ रही है। संरक्षण के प्रयास

कसावू साड़ी की यह अमूल्य परंपरा को बचाने के लिए, राज्य सरकार और गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) ने कार्यों का वहां आह्वान किया है कि बुनकरों को उचित प्रशिक्षण दिए जा रहे हैं, वित्तीय सहायता भी हो रही है और उसी तरह यहां पर हस्तनिर्मित साड़ियों को अंतरराष्ट्रीय बाजार में लेकर के उन्हें भी प्रोत्साहित किया जा रहा है।

आधुनिक डिज़ाइनों को कसावू साड़ियों में शामिल कर इसे नई पीढ़ी के लिए आकर्षक बनाया जा रहा है। इसके साथ ही, पर्यावरण के अनुकूल तरीकों से इन साड़ियों को तैयार करने पर भी ज़ोर दिया जा रहा है।

कसावू साड़ी और वैश्विक पहचान

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कसावू साड़ी न केवल केरल की पहचान बना रही है, बल्कि अपनी पहचान अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा भी बना रही है। भारतीय प्रवासी और विदेशी साड़ी प्रेमी इसे शादियों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में पहनना पसंद करते हैं। आज यह साड़ी भी भारत की शिल्पकला का एक वैश्विक प्रतीक बन गई है।

निष्कर्ष

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कसावू साड़ी के बुनाई कार्य में छिपी कला और महिलाओं का योगदान न केवल केरल की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है, बल्कि यह आत्मनिर्भरता और हुनर का प्रतीक भी है। इसके संरक्षण के लिए सभी को प्रयास करना चाहिए, ताकि यह परंपरा आने वाली पीढ़ियों तक जीवित रहे।

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  1. https://timesofindia.indiatimes.com/life-style/fashion/buzz/history-of-the-regal-kasavu-sari-from-kerala/photostory/104734776.cms