कामकटंककटा (मोरवी), द्वापरयुग के प्रागज्योतिषपुर (वर्तमान असाम) के राजा दैत्यराज मूर की पुत्री थी, एवं यह देवी कामख्या की परम भक्त थी।.. दैत्यराज मूर की पुत्री होने के कारण उन्हें "मोरवी" नाम से भी जाना जाता है।..

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मूर कन्या मोरवी को न मारने के लिये देवी कामाख्या का श्री कृष्ण से अनुरोध किया जाना


ऋषि वेदव्यास द्वारा रचित स्कन्द पुराण के कौमारिका खंड में एक कथा के अनुसार जब श्रीकृष्ण ने दैत्यराज मूर का वध किया था, (ततपश्चात श्रीकृष्ण को मुरारी नाम से पुकारे जाने लगा) उसी समय मोरवी ने अपने पिता के वध का बदला लेने के लिये श्रीकृष्ण को रणभूमि में युद्ध के लिये ललकारा... एवं उनसे युद्ध करने लगी, एवं श्रीकृष्ण के प्रत्येक अस्त्र को विफल करने लगी... अंतत: श्रीकृष्ण ने मोरवी का वध करने हेतु सुदर्शन चक्र धारण कर लिया, श्रीकृष्ण के ऐसा करते ही, देवी कामाख्या प्रकट होकर श्रीकृष्ण से मोरवी का वध ना करने के लिये कहा और मोरवी को कहा कि - "हे मोरवी, यह तुम्हारे भावी श्वसुर है, अतः इनसे क्षमा याचना करके, इनका आशीर्वाद प्राप्त करो..." तत्पश्चात मोरवी ने ऐसा ही किया।..


कालांतर में श्रीकृष्ण के आदेशानुसार महाबली भीमसेन-हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच के मोरवी द्वारा नियोजित शास्त्रार्थ की प्रतियोगिता जीतने पर मोरवी का विवाह घटोत्कच से करवा दिया गया।.. कुछ समय पश्चात घटोत्कच और मोरवी को तीन पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई, जिनमें ज्येष्ठ पुत्र का नाम बर्बरीक रखा गया तथा अन्य दो पुत्रों का नाम अंजनपर्व और मेघवर्ण रखे गए। मोरवी ने अपने तीनों पुत्रों को सभी सद्गुण सिखाते हुए यही शिक्षा दी कि मनुष्य जीवन का प्रथम कर्त्तव्य हारे हुए जीव का सहारा बनना है।