कारखानों में उत्पादन का इतिहास
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आरम्भ
संपादित करेंप्रारंभ में वस्तुएँ कारीगरों के घर पर ही बना करती थीं, परंतु जैसे-जैसे कारीगरों द्वारा निर्मित वस्तुओं का उपयोग बढ़ा वैसे-वैसे बड़े पैमाने पर निर्माणकी आवश्यकता भी बढ़ी। साहसी व्यापारी कारीगरों के घर सामान पहुँचाकर उन्हें आर्थिक सहायता देकर सामग्री बनवाने लगे। परंतु कारीगरों तक माल पहुँचाने और उनसे निर्मित सामग्री इकट्ठी करने में बहुत समय नष्ट होता था; काम बराबर अच्छे मेल का नहीं बनता था, कारीगर बहुधा समय पर काम पूरा नहीं करते थे और कारीगरों द्वारा माल दबाकर बैठ जाने का बड़ा भय रहता था। इसलिए साहसी व्यापारी बड़े-बड़े भवन बनावाकर वहीं कारीगरों को बुलाने लगे और इसी से कारखानों की उत्पत्ति हुई। इसमें अवगुण यह था कि उपयुक्त भवन बनवाने में बहुत सी पूँजी फँस जाती थी। यदि यंत्रों की आवश्यकता होती थी तो उसमें भी पूँजी लगती थी। जब कारीगर दूर-दूर से आते थे तब उनके रहने का भी प्रबंध करना पड़ता था; फिर, कारीगरों के कार्य के निरीक्षण के लिए रखे गए व्यक्तियों का वेतन भी देना पड़ता था। इन सब अवगुणों के होते हुए भी कारखानों की संख्या बढ़ने लगी।
आधुनिक काल
संपादित करेंग्रेट ब्रिटेन में कारखानों का विकास सबसे पहले हुआ। सन् 1759 ई. तक वहाँ कई छोटे-मोटे कारखाने खुल गए थे। कालांतर में वाष्प इंजन के आविष्कार (1769 ई.) के बाद कारखानों की वृद्धि बहुत शीघ्र हुई। इसी समय के लगभग इंग्लैंड के तीन व्यक्तियों (हालग्राब्ज़, आर्कराइट और क्रॉम्पटन) ने क्रमानुसार सूत कातने, कपड़ा बुनने और तागा बटन की मशीनों की उपज्ञा की और तब से कपड़ा बड़े-बड़े कारखानों में बनने लगा। 19वीं शताब्दी के मध्य तक अनेक प्रकार के कारखाने स्थापति हो गए थे, जैसे कागज, पुस्तकों, काच, मिट्टी के बर्तनों, धातु के बर्तनों, इंजनों, मशीनों, जूतों, लकड़ी की वस्तुओं, मक्खन, डिब्बाबंदी, पावरोटी आदि के। उस शताब्दी के अंत तक पावरोटी, बाइसिकिल, मोटरकार, बिजली के सामान, रासायनिक पदार्थ, रबर आदि के भी कारखाने खुल गए।
यद्यपि ब्रिटेन ने मशीनों और कारीगरों का बाहर जाना बंद कर रखा था, तो भी चोरी से कुछ मशीनें और अनेक कारीगर बाहर चले ही गए और यूरोप तथा अमरीका में भी कारखाने बनने लगे। अमरीका में कारखानों की विशेष आवश्यकता थी, क्योंकि वहाँ कारीगरों और श्रमिकों की कमी थी। वहाँ मशीनों के निर्माण में विशेष विकास हुआ और अनेक यंत्र बने जो प्राय: स्वचालित थे।
प्रारंभिक कारखाने छोटे होते थे क्योंकि एक व्यक्ति अधिक पूँजी नहीं लगा सकता था। लाख दो लाख रुपए की पूँजी प्राय: एक सीमा थी। परंतु 19वीं शताब्दी के अंत में साझे के कारखाने चलने लगे और कंपनियों के विषय में नियम बन जाने पर सीमित उत्तरदायित्व की कंपनियाँ बड़ी शीघ्रता से खुलने लगीं। श्रमिकों की कमी भी तब पूरी होने लगी जब श्रमिकों के स्वास्थ्य और सुख के लिए कानून बने। पहले श्रमिकों को प्रतिदिन 12 घंटे काम करना पड़ता था। धीरे-धीरे यह समय घटकर आठ घंटे या इससे भी कम हो गया। साथ ही, श्रमिकों के लिए न्यूनतम वेतन, छुट्टियों, आयुर्वैज्ञानिक उपचार, बीमा आदि के भी नियम बन गए। बालकों से कारखानों में काम कराना बंद कर दिया गया। इनमें से कई सुविधाओं की प्राप्ति के लिए श्रमिकों को कष्टप्रद हड़तालें करनी पड़ी थीं। अब विश्व के अधिकांश कारखानों के श्रमिक सुख से रहते हैं और विशेष मशीनों के कारण थोड़े ही मानव श्रम से बहुत अधिक सामग्री की उत्पत्ति होती है, जिससे उपभोक्ता को कोई सामग्री बहुत महँगी नहीं पड़ती।