किराड़ू का मंदिर
धोरों के गढ़ बाड़मेर में किराड़ू का मंदिर और जगत (उदयपुर) का अंबिका मंदिर और अलवर का नीलकंठ महादेव मंदिर तीनों खजुराहो शैली से समानता रखते हैं । विशेषतया किराडू का मंदिर और उदयपुर के अंबिका मंदिर की स्थापत्य शैली मध्यप्रदेश के खजुराहो मंदिरों की शैली से ज्यादा समानता रखती है। इसीलिए किराड़ू का मंदिर राजस्थान का खजुराहो कहलाता है जबकि अंबिका मंदिर ' मेवाड़ का खजुराहो ' कहलाता है ।
किराड़ू का मंदिर | |
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धर्म संबंधी जानकारी | |
सम्बद्धता | हिन्दू धर्म |
देवता | शिव |
अवस्थिति जानकारी | |
अवस्थिति | बाड़मेर, राजस्थान, भारत |
वास्तु विवरण | |
शैली | हिन्दू मन्दिर स्थापत्यकला |
स्थापित | 1161 ई. |
दक्षिण भारतीय शैली में बना किराड़ू का मंदिर अपनी स्थापत्य कला के लिए प्रसिद्ध है।
बाड़मेर से 43 किलोमीटर दूर हाथमा गांव में ये मंदिर है। खंडहरनुमा जर्जर से दिखते पांच मंदिरों की श्रृंखला की कलात्मक बनावट देखने वालों को मोहित कर लेती हैं। कहा जाता है कि 1161 ई.पूर्व इस स्थान का नाम 'किराट कूप' था। करीब 1000 ई. में यहां पर पांच मंदिरों का निर्माण कराया गया। लेकिन इन मंदिरों का निर्माण किसने कराया, इसके बारे में कोई पुख्ता जानकारी उपलब्ध नहीं है। लेकिन मंदिरों की बनावट शैली देखकर लोग अनुमान लगाते है कि इनका निर्माण दक्षिण के गुर्जर-प्रतिहार वंश, संगम वंश या फिर गुप्त वंश ने किया होगा।[1]
मंदिरों की इस शृंखला में केवल विष्णु मंदिर और शिव मंदिर (सोमेश्वर मंदिर) थोड़े ठीक हालात में है। बाकि मंदिर खंडहर में तब्दील हो चुके हैं। श्रृंखला में सबसे बड़ा मंदिर शिव को समर्पित नजर आता है। खम्भों के सहारे निर्मित यह मंदिर भीतर से दक्षिण के मीनाक्षी मंदिर की याद दिलाता है, तो इसका बाहरी आवरण खजुराहो का रंग लिए हैं। काले व नीले पत्थर पर हाथी-घोड़े व अन्य आकृतियों की नक्काशी मंदिर की कलात्मक भव्यता को दर्शाती है। श्रृंखला का दूसरा मंदिर पहले से आकार में छोटा है। लेकिन यहां शिव की नहीं विष्णु की प्रधानता है। जो स्थापत्य और कलात्मक दृष्टि से काफी समृद्ध है। शेष मंदिर खंडहर में तब्दील हो चुके हैं। लेकिन बिखरा स्थापत्य अपनी मौजूदगी का एहसास कराता है। किराड़ू के इन मंदिरों को देखने के बाद ये सवाल उठता है कि आखिर इन्हें खजुराहो की तरह लोकप्रियता क्यों नहीं मिली। साथ ही इन्हें सहेजने के प्रयास क्यों नहीं किए गए।[1]
राजस्थान का मेवाड़ का खजुराहो: जगत अंबिका मंदिर (उदयपुर)
संपादित करेंप्रणय भाव में युगल, अंगड़ाई लेते हुए और दर्पण निहारती नायिका, शिशु क्रीड़ा, वादन और नृत्य आकृतियां, पूजन सामग्री सजाए रमणी, महिषासुर मर्दनी, नवदुर्गा, वीणा धारिणी सरस्वती, नृत्य भाव में गणपति, यम, कुबेर, वायु, इन्द्र, वरुण आदि कलात्मक प्रतिमाओं का अचंभित कर देने वाला मूर्तिशिल्प का खजाना और अद्वितीय स्थापत्य कला को अपने में समेटे जगत का अंबिका मंदिर राजस्थान के मंदिरों की मणिमाला का चमकता मोती कहा जा सकता है। मूर्तियों का लालित्य, मुद्रा, भाव, प्रभावोत्पादकता, आभूषण अलंकरण, केशविन्यास, वस्त्रों का अंकन और नागर शैली में स्थापत्य का आकर्षण शिखर बंद मंदिर को खजुराहो और कोणार्क मंदिरों की श्रृंखला में लाकर खड़ा कर देता है। मंदिर के अधिष्ठान, जंघा भाग, स्तंभों, छत, झरोखों और देहरी का शिल्प सौंदर्य देखते ही बनता है।[1]
स्थापत्य में शिल्प की प्रतिष्ठा लिए जगत का अंबिका मंदिर उदयपुर से करीब 50 किलोमीटर दूर गिर्वा की पहाडिय़ों के बीच बसे कुराबड़ गांव के समीप अवस्थित है। मंदिर परिसर करीब 150 फुट लम्बे ऊंचे परकोटे से घिरा है। पूर्व की ओर से प्रवेश करने पर दोमंजिला प्रवेश मंडपम की बाहरी दीवारों पर प्रणय मुद्रा में नर नारी प्रतिमाएं, द्वार स्तंभों पर अष्ट मातृका प्रतिमाएं, रोचक कीचक आकृतियां और मण्डप की छत पर समुद्र मंथन दर्शनीय है। छत का निर्माण परंपरागत शिल्प के अनुरूप कोनों की ओर से चपटी और मध्य में पद्म केसर के अंकन के साथ निर्मित है। मंडप में दोनों ओर हवा व प्रकाश के लिए पत्थर की बनी अलंकृत जालियां ओसिया देवालय के सदृश हैं। प्रवेश मंडप और मुख्य मंदिर के मध्य खुला आंगन है। प्रवेश मंडप से मुख्य मंदिर करीब 50 फुट की दूरी पर पर्याप्त सुरक्षित अवस्था में है। मंदिर के सभा मण्डप का बाहरी भाग दिकपाल, सुर सुंदरी, विभिन्न भावों में रमणियां, वीणाधारणी सरस्वती, विविध देवी प्रतिमाओं की सैकडों मूर्तियों से सज्जित है। दायीं ओर जाली के पास सफेद पाषाण में निर्मित नृत्य भाव में गणपति की दुर्लभ प्रतिमा है। मंदिर के पार्श्व विभाग की एक ताक में बनी महिषासुर मर्दनी की प्रतिमा विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उत्तर और दक्षिण ताक में भी विविध रूपों में देवी अवतार की प्रतिमाएं नजर आती है। मंदिर के बाहर की दीवारों की मूर्तियों के ऊपर और नीचे कीचक मुख, गज श्रृंखला और कंगूरों की कारीगरी भी देखते ही बनती है। प्रतिमाएं स्थानीय पारेवा नीले हरे रंग के पत्थरों में तराशी गई हैं। गर्भगृह की परिक्रमा हेतु सभामंडप के दोनों ओर छोटे छोटे प्रवेश द्वार बनाए गए हैं। गर्भगृह की विग्रह पट्टिका मूर्तिकला का अद्भुत खजाना है। यहां द्वारपाल के साथ गंगा यमुना, सुर सुंदरी, विद्याधर और नृत्यांगनाओं के साथ साथ देव प्रतिमाओं के अंकन में शिल्पियों का श्रम देखते ही बनता है। गर्भगृह की देहरी भी कलात्मक है। गर्भगृह में प्रधान पीठिका पर अंबिका माता की प्रतिमा स्थापित है।[1]
मध्यकालीन गौरवपूर्ण मंदिरों की श्रृंखला में सुनियोजित ढंग से बनाया गया जगत का अंबिका मंदिर मेवाड़ की प्राचीन उत्कृष्ट शिल्प का नमूना है। जीवन की जीवंतता और आनंदमयी क्षणों की अभिव्यक्ति मूर्तियों में स्पष्ट दर्शनीय है। यहां से प्राप्त प्रतिमाओं के आधार पर इतिहासकारों का मानना है कि यह स्थान 5वीं व 6ठीं शताब्दी में शिव शक्ति संप्रदाय का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा। इसका निर्माण खजुराहो में बने लक्ष्मण मंदिर से पहले करीब 960 ई. के आस पास माना जाता है। मंदिर के स्तंभों पर उत्कीर्ण लेखों से पता चलता है कि 11वीं सदी में मेवाड़ के शासक अल्ला ने मंदिर का जीर्णोद्घार कराया था। यहां देवी को अंबिका कहा गया है। धार्मिक महत्व की दृष्टि से यह प्राचीन शक्ति पीठ है।
नीलकण्ठ महादेव मंदिर
संपादित करेंभानगढ़ से अलवर की तरफ जब चलने पर रास्ते में एक कस्बा आता है टहला। टहला में प्रवेश करने से एक किलोमीटर पहले एक पतली सी सड़क नीलकंठ महादेव मंदिर के लिए मुड़ती है। यहां से मन्दिर करीब दस किलोमीटर दूर है। धीरे धीरे सड़कें पहाड़ों से टकराती हैं। कारें इस सड़क पर नहीं चल सकतीं, जीपें और मोटरसाइकिलें कूद-कूदकर निकल जाती हैं। टहला से चलकर पहाड़ों की चढ़ाई करनी पड़ती हैं। इसके बाद एक छोटे से दर्रे को पार करने के बाद एक घाटी बाहें पसारे नजर आती है। जो चारों ओर से पहाड़ों के साथ घने जंगलों से घिरी हैं। नीलकंठ महादेव का मंदिर जिस गांव में स्थित है। उस गांव का नाम भी नीलकंठ महादेव है। और पास में ही सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान है। स्थानीय लोगों का कहना है कि इस घाटी में कभी 360 मन्दिर हुआ करते थे। लेकिन अब एक ही मन्दिर बचा हुआ है। बाकी सभी को बाहरी आक्रांताओं ने मटियामेट कर दिया। लोग मानते है कि आखिरी को मटियामेट करते समय चमत्कार हुआ और यह बच गया। बचा हुआ ही नीलकण्ठ महादेव मन्दिर है। यहां सावन में श्रद्धालु हरिद्वार आदि स्थानों से गंगाजल लाकर चढ़ाते हैं। ध्वस्त हुए मन्दिरों को लोग देवरी कहते हैं। हालांकि मौजूदगी अब भी खंडहर के रूप में अपना एहसास कराती हैं। बिखरे हुए खंडहर अपनी विशालता का अहसास कराते हैं। मंदिरों की कलात्मकता दिल को छू लेती हैं। यहां सभी देवरियों के अलग-अलग नाम है। जैसे कि हनुमान जी की देवरी, गणेश जी की देवरी।[1]