कुंडल कान में पहनने का एक आभूषण, जिसे स्त्री-पुरुष दोनों पहनते थे। प्राचीन काल में कान को छेदकर जितना ही लंबा किया जा सके उतना ही अधिक वह सौंदर्य का प्रतीक माना जाता था। इसी कारण भगवान्‌ बुद्ध की मूर्तियों में उनके कान काफी लंबे और छेदे हुए दिखाई पड़ते हैं। इस प्रकार कान लंबा करने के लिये लकड़ी, हाथीदाँत अथवा धातु के बने लंबे गोल बेलनाकार जो आभूषण प्रयोग में आते थे, उसे ही मूलत: कुंडल कहते थे और उसके दो रूप थे - प्राकार कुंडल और वप्र कुंडल। बाद में नाना रूपों में उसका विकास हुआ। साहित्य में प्राय: पत्र कुंडल (पत्ते के आकार के कुंडल), मकर कुंडल (लकड़ी, धातु अथवा हाथीदाँत के कुंडल), शंख कुंडल (शंख के बने अथवा शंख के आकार के कुंडल), रत्न कुंडल, सर्प कुंडल, मृष्ट कुंडल आदि के उल्लेख प्राप्त होते हैं। देवताओं के मूर्तन के प्रसंग में बृहत्संहिता में सूर्य, बलदेव और विष्णु को कुंडलधारी कहा गया है। प्राचीन मूर्तियों में प्राय: शिव और गणपति के कान में सर्प कुंडल, उमा तथा अन्य देवियों के कान में शंख अथवा पत्र कुंडल और विष्णु के कान में मकर कुंडल देखने में आता है।

नाथ पंथ के योगियों के बीच कुंडल का विशेष महत्व है। वे धातु अथवा हिरण की सींग के कुंडल धारण करते हैं।