कृषकवाद या भूमिसुधारवाद (agrarianism) एक सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण है जिसमें ग्रामीण समाज को नगरीय समाज से ऊँचा ठहराया जाता है। इस विचारधारा के अनुसार स्वतंत्र कृषक किसी आय लेने वाली व्यवसायी नौकर से अधिक महान है और कृषि की जीवन-पद्धति द्वारा ही आदर्श सामाजिक मूल्यों की प्राप्ति हो सकती है। यह गाँव के सरल जीवन पर ज़ोर देत है।[1][2]

कृषकवाद के अनुसार कृषि ही सर्वोत्तम व्यवसाय है

सिद्धांत

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कृषकवाद पर लिखने वाले अमेरिकी लेखक व समीक्षक ऍम टॉमस इंगे के अनुसार कृषकवाद के यह मूल दृष्टिबिन्दु होते हैं:[3]

  • कृषि ही वह एकमात्र व्यवसाय है जिसके द्वारा पूर्ण स्वतंत्रता और आत्म-निर्भरता मिल सकती है
  • शहरी जीवन, पूंजीवाद और प्रौद्योगिकी स्वतंत्रता और आत्म-सम्मान नष्ट करके दुष्टता और निर्बलता बढ़ाते हैं
  • कृषि समाज मेहनत और सहयोग बढ़ाता है और वही आदर्श समाज है
  • कृषक का विश्व व्यवस्था में शक्तिशाली और स्थिर स्थान है। कृषक के पास "पहचान, ऐतिहासिक और धार्मिक परम्पराओं की चेतना, एक स्थायी परिवार, स्थान व क्षेत्र में गहरी जड़े रखने की भावना हैं जो मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक लाभ देती हैं।" उसके जीवन में बसा हुआ समन्वय आधुनिक समाज से फैलने वाले विखंडन और विरक्ति से रक्षा करता है।
  • भूमि पर अनाज पैदा करने की क्रिया स्वयं ही आत्मा को पवित्रता प्रदान करती है और उस से कृषक को "इज़्ज़त, मर्दानगी, आत्म-निर्भरता, बहादुरी, नैतिकता और अतिथि-सत्कार" के महा-गुण प्राप्त होते हैं।" यह प्रकृति से सीधा सम्पर्क और उसके द्वारा ईश्वर से समीपी सम्बन्ध बनने का नतीजा होता है। कृषक भगवान की तरह ही है, क्योंकि वह भी अव्यवस्था को व्यवस्थित करता है।

इन्हें भी देखें

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  1. Brass, Tom. Peasants, Populism and Postmodernism: The Return of the Agrarian Myth (2000)
  2. Danbom, David B. "Romantic Agrarianism in Twentieth-Century America," Agricultural History, Vol. 65#4 (Autumn, 1991), pp. 1–12 in JSTOR Archived 2016-08-17 at the वेबैक मशीन
  3. M. Thomas Inge, ed. Agrarianism in American Literature (1969), introduction; paraphrased Archived 2017-07-17 at the वेबैक मशीन