17वीं शताब्दी के मानवेदन नामक सामूतिरि राजा द्वारा प्रस्तुत दृश्यकला कृष्णनाट्टम कहलाती है। मानवेदन ने श्रीकृष्ण कथा को आधार बनाकर संस्कृत में 'कृष्णगीति' नामक दृश्यकाव्य की रचना की थी। यह कथा अभिनय की दृष्टि से भी श्रेष्ठ थी। इसके अंतर्गत अवतारम्, कालिय मर्दनम्, रासक्रीडा, कंसवधम्, स्वयंवरम्, बाणयुद्धम्, विविधवधम्, स्वर्गारोहणम् नामक कथाएँ आती हैं, जिनकी प्रस्तुति आठ दिनों तक चलती है।

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प्रधान अभिनय

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कृष्णनाट्टम में नृत्त प्रधान अभिनय का महत्त्व है। कृष्णनाट्टम में लोक नृत्य परम्परा का प्रभाव लक्षित होता है। गायक श्लोक और पद गाते हैं और अभिनेता उनकी ताल - लय पर नृत्य को प्रधानता देते हुए अभिनय करते हैं। इस की प्रस्तुति में टोपी मद्दल, शुद्ध मद्दल, इडक्का आदि वाद्यंत्रों का प्रयोग होता है। टोपी मद्दल सात्विक वेषों की प्रस्तुति के लिए तथा शुद्ध मद्दल आसुरू वेषों की प्रस्तुति के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं। चेम्पटा, चेम्पा, अटन्ता, पंचारि आदि तालों पर किया जानेवाला नृत्य 'कृष्णनाट्टम' की विशेषता है।

मान्यताएं

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कहा जाता हैं कि कथकळि के प्रस्तुतकर्ता कोट्टारक्करा तंपुरान ने भी कृष्णनाट्टम से प्रेरणा ली थी। किंवदन्ति है कि जब तंपुरान अपने यहाँ कृष्णनाट्टम संघ को अमंत्रित किया तो सामूतिरि ने असहमति प्रकट की। इसी से नाराज़ होकर कोट्टारक्करा तंपुरान ने रामनाट्टम लिखा। कृष्णनाट्टम का अधिक प्रचार नहीं है। गुरुवायूर मंदिर में भक्त मनौती के रूप में कृष्णनाट्टम का आयोजन करवाते हैं। इसी कारण यह कला आज भी जीवित है। ऐसा विश्वास है विशेष दिन की कथा मनौती के रूप में प्रस्तुत कराने से अभीष्ट सिद्धि होती है। पुत्र प्राप्ति केलिए 'अवतार', विवाह संपन्न होने केलिए 'स्वयंवर', स्त्रियों के ऐश्वर्य केलिए 'रासक्रीडा', शत्रुसंहार केलिए 'कंसवध', दारिद्रय मुक्ति केलिए 'विविद वध', सर्पकोप शमित करने केलिए 'कालियमर्दन', मंगलकार्य प्राप्ति के लिए 'बाणयुद्ध' आदि प्रस्तुत करवाये जाते हैं। ऐसा नियम है कि 'स्वर्गारोहण' अकेले नहीं किया जाना चाहिए। उसके साथ 'अवतार' को भी प्रस्तुत करवाना चाहिए। 'स्वर्गारोहण' कथा की प्रस्तुति से किसी विशेष प्रयोजन के सिद्ध होने का कोई निर्देश नहीं मिलता है।