केवड़ा सुगंधित फूलों वाले वृक्षों की एक प्रजाति है जो अनेक देशों में पाई जाती है और घने जंगलों मे उगती है। पतले, लंबे, घने और काँटेदार पत्तों वाले इस पेड़ की दो प्रजातियाँ होती है- सफेद और पीली। सफेद जाति को केवड़ा और पीली को केतकी कहते है। केतकी बहुत सुगन्धित होती है और उसके पत्ते कोमल होते है। इसमे जनवरी और फरवरी में फूल लगते हैं। केवड़े की यह सुगंध साँपों को बहुत आकर्षित करती है। इनसे इत्र भी बनाया जाता है जिसका प्रयोग मिठाइयों और पेयों में होता है। कत्थे को केवड़े के फूल में रखकर सुगंधित बनाने के बाद पान में उसका प्रयोग किया जाता है। केवड़े के अंदर स्थित गूदे का साग भी बनाया जाता है। इसे संस्कृत, मलयालम में केतकी, तेलुगु main mogalipuvvu, हिन्दी और मराठी में केवड़ा, गुजराती में केवड़ों, कन्नड़ में बिलेकेदगे गुण्डीगे, तमिल में केदगें फारसी में करंज, अरबी में करंद और लैटिन में पेंडेनस ओडोरा टिसीमस कहते हैं।[2] इसके वृक्ष गंगा नदी के सुन्दरवन डेल्टा में बहुतायत से पाए जाते हैं। आयुर्वेद की नजर से :-

केवड़ा
Pandanus tectorius growing in the mountains of Oʻahu in Hawaii
वैज्ञानिक वर्गीकरण
जगत: Plantae
अश्रेणीत: Angiosperms
अश्रेणीत: Monocots
गण: Pandanales
कुल: Pandanaceae
वंश: Pandanus
जाति: P. tectorius
द्विपद नाम
Pandanus tectorius
Parkinson
पर्यायवाची[1]
केवड़ा

परिचय संपादित करें

केवड़ा पैंडेनसी (Pandanacea) कुल के एकदली वर्ग का पौधा जो उष्ण कटिबंधीय, हिंद महासागर के तटीय देशों में तथा प्रशांत महासागर के टापुओं में पाया जाता है। दक्षिण भारत के तटीय भागों में केवड़ा प्राकृतिक रूप से उगता है। फूलों की तीक्ष्ण गंध के कारण यह बागों में भी लगाया जाता है।

इसका पौधा ५-७ मीटर ऊँचा होता है और बलुई मिट्टी पर नम स्थानों में अधिक पनपता है। इसका प्रधान तना शीघ्र ही शाखाओं में विभाजित हो जाता है और हर शाखा के ऊपरी भाग से पत्तियों का गुच्छा निकलता है। पत्तियाँ लंबी तथा किनारे पर काँटेदार होती है और तने पर तीन कतारों में लगी रहती हैं। जमीन से कुछ ऊपरवाले तने के भाग से बहुत सी हवाई जड़ें निकलती हैं और कभी कभी जब तने का निचला भाग मर जाता है तब पौधे केवल इन हवाई जड़ों के सहारे पृथ्वी पर जमे रहते हैं। इनके पुष्पगुच्छ में नर या मादा फूल मोटी गूदेदार धुरी पर लगे होते हैं। नर पुष्पगुच्छ में कड़ी महक होती हैं। मादा पुष्पगुच्छ में जब फल लगते हैं और पक जाते हैं तब वह गोलाकार नारंगी रंग के अनन्नास के फल की भाँति दिखाई पड़ता है। केवड़े के ये फल समुद्र की लहरों द्वारा दूर देशों तक पहुँच जाते है और इसी से केवड़ा समुद्रतटीय स्थानों में अधिकता से पाया जाता है। नर पुष्पगुच्छ से केवड़ाजल और इत्र बनाए जाते हैं। पत्तियों के रेशे रस्सी आदि बनाने के काम आते हैं। जड़ों से टोकरी तथा बुरुश बनाया जाता हैं।

हिन्दू धर्म में महत्व संपादित करें

 
सुन्दरवन में मानसी देवी की प्रतिमा

केवड़े की झाड़ में साँप प्रायः आश्रय लेते हैं। इसलिये बंगाल के हिन्दू लोग इसे मानसी देवी का जन्मस्थान मानते हैं क्योंकि मानसी देवी सर्पों की रक्षिका देवी हैं।

आयुर्वेद की नजर से संपादित करें

आयुर्वेद में केवड़ा का बहुत महत्व है और ये कई प्रकार की बीमारियो में काम आता है।

केवडा जल संपादित करें

भाप आसवन विधि से तैयार किया गया केवड़े का अर्क उत्तरी भारत विशेषत: राजस्थान में कई व्यंजनों में उपयोग में लाया जाता है। 
जैसे रसगुल्ला, गुलाब, जामुन, रबड़ी, रस-मलाई, श्रीखंड .अत्यंत सुगंधित व्यंजन जैसे मुगलाई व्यंजनों में भी इसका उपयोग किया जाता है, इससे थोड़े में ही संतुष्टि का आभास होता है।
- केवड़े के पानी में सफ़ेद चन्दन मिला कर सूंघने से गर्मी से होने वाला सिर दर्द ठीक होता है।
- खाज खुजली और त्वचा रोगों में लगाने से लाभ होता है।
- केवड़ा तेल का उपयोग औषधि के रूप में गठियावत में किया जाता है।
-केवड़े जल का प्रयोग केशों के दुर्गंध दूर करने के लिए किया जाता है।
- केवडा जल से गणेशजी का अभिषेक किया जाता है।
- गुलाब जल की तरह केवडा जल भी त्वचा को टोन करता है।
- यह त्वचा की गहराई से सफाई करता है।
- त्वचा के छिद्रों को बंद करता है।
- इसके एंटी ऑक्सीडेंट कैंसर , बुढापे आदि से लड़ने में मदद करते है।
- इसकी मनमोहक सुगंध मन को शान्ति देती है।

चित्रदीर्घा संपादित करें

इन्हें भी देखें संपादित करें

सन्दर्भ संपादित करें

  1. साँचा:ওয়েব উদ্ধৃতি
  2. "केवड़ा". हेल्थ एन्ड थेरेप्यूटिक. अभिगमन तिथि १६ नवंबर २००९. |access-date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)[मृत कड़ियाँ]

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें