क्रिकेट का बल्ला

(क्रिकेट बैट से अनुप्रेषित)

क्रिकेट का बल्ला एक विशेष प्रकार का उपकरण है जिसका उपयोग क्रिकेट के खेल में बल्लेबाज के द्वारा गेंद को हिट करने के लिए किया जाता है। यह आमतौर पर विलो लकड़ी से बना हुआ होता है। सबसे पहrले इसके उपयोग का उल्लेख 1624 में मिलता है।

क्रिकेट के बल्ले का ब्लेड लकड़ी का एक ब्लॉक होता है जो आमतौर पर स्ट्राइक करने वाली सतह पर चपटा होता है और इसकी पिछली सतह (पीछे) पर एक रिज (उभार) होता है। यह बल्ले के मध्य भाग में लकड़ी का एक उभार होता है जिस पर आमतौर पर गेंद टकराती है। यह ब्लेड एक लम्बी बेलनाकार बेंत से जुड़ा होता है, जिसे हैंडल कहा जाता है, यह टेनिस के रैकेट के समान होता है। ब्लेड के किनारे जो हैंडल के बहुत पास होते हैं, उन्हें बल्ले का शोल्डर (कन्धा) कहा जाता है और बल्ले के नीचले भाग को इसका टो (पैर का अंगूठा) कहा जाता है।

बल्ले को पारम्परिक रूप से विलो लकड़ी से बनाया जाता है, विशेष रूप से एक किस्म की सफ़ेद विलो का उपयोग इसे बनाने में किया जाता है, जिसे क्रिकेट के बल्ले की विलो कहा जाता है (सेलिक्स अल्बा, किस्म कैरुलिया), इसे कच्चे (बिना उबले) अलसी की तेल के साथ उपचारित किया जाता है। यह तेल एक सुरक्षात्मक कार्य करता है। इस लकड़ी का उपयोग इसलिए किया जाता है क्योंकि यह बहुत सख्त होती है और धक्के को सहन कर सकती है। तेज गति से आती हुई गेंद के प्रभाव से इसमें डेंट नहीं पड़ता और न ही यह टूटती है। इन सब गुणों के साथ यह वज़न में भी हल्की होती है। बल्ले में हैंडल और ब्लेड के मिलने के स्थान पर लकड़ी के स्प्रिंग का एक डिजाइन बनाया गया होता है। बेंत के एक हैंडल से जुड़े हुए विलो ब्लेड के इस वर्तमान डिजाइन को 1880 के दशक में चार्ल्स रिचर्डसन के द्वारा खोजा गया था, वे ब्रुनेल के शिष्य थे और सेवर्न रेलवे टनल के प्रमुख इंजिनियर थे।[1]

क्रिकेट के नियमों का नियम 6[2] बल्ले के आकार को सीमित करता है। इसके अनुसार बल्ले की लम्बाई 38 इंच (965 मिलीमीटर) से अधिक नहीं होनी चाहिए और इसके ब्लेड की चौड़ाई 4.25 इंच (108 मिलीमीटर) से अधिक नहीं होनी चाहिए। बल्ले का प्रारूपिक वज़न 2 पौंड 8 आउंस से लेकर 3 पौंड के बीच होना चाहिए (1.1 से 1.4 किलोग्राम), हालांकि इसके लिए कोई निर्धारित मानक नहीं हैं। आमतौर पर हैंडल पर एक रबर या कपडे की आस्तीन चढ़ी होती है, यह आस्तीन इसकी पकड़ को आसान बनाती है। बल्ले के सामने वाले हिस्से पर एक सुरक्षात्मक परत चढ़ी हो सकती है। क्रिकेट के नियमों का परिशिष्ट ई अधिक सटीक विनिर्देशों को बताता है।[3] आधुनिक बल्ले अधिकतर मशीन से बनाये जाते हैं, हालांकि कुछ विशेषज्ञ (6 इंग्लैण्ड में और 2 ऑस्ट्रेलिया में) आज भी हाथ से बल्ले बनाते हैं, ये बल्ले अधिकतर पेशेवर खिलाडियों के लिए बनाये जाते हैं। हाथ से क्रिकेट के बल्ले बनाने की कला को पोडशेविंग (podshaving) कहा जाता है।

बल्ले हमेशा से इसी आकृति के नहीं थे। 18 वीं सदी से पहले बल्ले आधुनिक हॉकी स्टिक के आकार के होते थे। संभवतया ये खेल की प्रतिष्ठित उत्पत्ति के साथ विकसित हुए थे। हालांकि क्रिकेट के प्रारम्भिक रूप समय की मुट्ठी में कहीं खो गए हैं, ऐसा हो सकता है कि सबसे पहले इस खेल को चरवाहे की लकड़ी की मदद से खेला गया हो।

जब 19 वीं सदी में क्रिकेट के नियमों को औपचारिक रूप से निर्धारित किया गया, इससे पहले खेल में आमतौर पर छोटी स्टंप होती थीं, गेंद को भुजा के नीचे डाला जाता था (जो आज नियमों के विरुद्ध है) और बल्लेबाज सुरक्षात्मक पैड नहीं पहनते थे।[उद्धरण चाहिए] जैसे जैसे खेल बदला, यह पाया गया कि एक अलग आकृति का बल्ला बेहतर हो सकता है। [उद्धरण चाहिए] सबसे पुराना बल्ला जो आज भी मौजूद है, वह 1729 का है, इसे लन्दन में ओवल में संधम कक्ष में प्रदर्शन के लिए रखा गया है। [उद्धरण चाहिए]

 
सबसे पुराना बल्ला जो आज भी मौजूद है, वह 1729 का है। इसके आकार पर ध्यान दें, जो आधुनिक बल्ले से बहुत अलग है।

जब बल्ले को पहली बार ख़रीदा जाता है, वह उसी समय खेलने के लिए तैयार नहीं होता। बल्ले को खरीदने के बाद इसके जीवन काल को अधिकतम बनाने के लिए इस पर तेल लगाने और नॉक-इन करने की आवश्यकता होती है। इसके लिए इस पर कच्चे अलसी के तेल की एक परत चढ़ाई जाती है, इसके बाद बल्ले की सतह को क्रिकेट की एक पुरानी गेंद से स्ट्राइक किया जाता है, गेंद के स्थान पर विशेष प्रकार के लकड़ी के हथौड़े का उपयोग भी किया जा सकता है। इससे बल्ले के अन्दर के मुलायम तन्तु (फाइबर) ठोस हो जाते हैं और बल्ले के तड़कने की संभावना कम हो जाती है।[4]

क्रिकेट के बल्ले में बदलाव/ प्रौद्योगिकी

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ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटर डेनिस लिली ने संक्षिप्त रूप से 1979 में एल्यूमीनियम धातु के एक बल्ले को काम में लिया। अंपायरों के साथ कुछ चर्चा के बाद और इंग्लिश टीम की शिकायतों के बाद कि यह गेंद को नुकसान पहुँचा रहा है, ऑस्ट्रेलियाई कप्तान ग्रेग चैपल ने उनसे इसके स्थान पर लकड़ी का बल्ला इस्तेमाल करने के लिए कहा.[5] इसके बाद शीघ्र ही क्रिकेट के नियमों में परिवर्तन किये गए, इसमें यह निर्धारित किया गया कि बल्ले का ब्लेड केवल लकड़ी का ही बना होना चाहिए। [2]

तेनजिन और प्यूमा ने हल्के वज़न के बल्ले बनाये हैं, जिनका हैंडल कार्बन का बना होता है, ताकि ब्लेड के लिए अधिक वज़न का इस्तेमाल किया जा सके।

2008 में, ग्रे निकोल्स ने दो तरफ़ा बल्ले का इस्तेमाल किया।[6]

2005 में, कूकबुर्रा ने एक नए प्रकार का बल्ला जारी किया जिसमें कार्बन फाइबर के द्वारा प्रबलित बहुलक बल्ले की रीढ़ को सहारा देता है। इसका उपयोग बल्ले में इसलिए किया गया ताकि यह बल्ले की रीढ़ और ब्लेड को अधिक सहारा दे सके, जिससे बल्ले का जीवन काल बढ़ जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट में इस बल्ले का इस्तेमाल करने वाले पहले खिलाडी ऑस्ट्रेलिया के रिकी पोंटिंग थे।

हालांकि क्रिकेट में प्रौद्योगिकी के इस नवाचार को विवादस्पद रूप से आईसीसी के द्वारा प्रतिबन्धित कर दिया गया[7] क्योंकि एमसीसी ने सलाह दी कि इससे शोट में अनुचित रूप से अधिक क्षमता आ जाती है और यह एक प्रतियोगिता में अनुचित है क्योंकि सभी खिलाडियों के लिए यह तकनीक उपलब्ध नहीं है। लेकिन ऑस्ट्रेलियाई मीडिया ने इसे हल्के से नहीं लिया क्योंकि इस नए बल्ले के इस्तेमाल के बाद से वे काफी रन बना चुके थे और इंग्लिश पत्रकारों ने आरोप लगाया कि इसका कारण केवल यह नयी तकनीक का बल्ला है जो कि 'अनुचित' है।

2010 के आईपीएल में बल्ला बनाने वाली एक नयी कम्पनी मोंगूस ने क्रिकेट के बल्ले के एक नए डिजाइन की घोषणा की जिसे मिनी मोंगूस कहा गया। इस बल्ले का ब्लेड छोटा और मोटा था और हैंडल लंबा था, ताकि यह बल्ले में गेंद को हिट करने के लिए अधिक क्षेत्र उपलब्ध करा सके और बड़े शॉट खेले जा सकें. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि एक अद्वितीय अल्प गुरुत्व केन्द्र बल्ले को अधिक तेज गति देता है और क्योंकि इसका ब्लेड छोटा होता है, इसलिए ब्लेड को समान वज़न के लिए मोटा बनाया जा सकता है। अर्थात बल्ले का अधिक हिस्सा गेंद को हिट करने के लिए उपलब्ध होगा। इस बल्ले का उपयोग एंड्रयू साइमंड्स, मैथ्यू हेडन, स्टुअर्ट लॉ, प्रणीत सिंह और ड्वेन स्मिथ के द्वारा किया जाता है। हालांकि इसमें कई कमियाँ हैं। छोटा होने के कारण यह सुरक्षात्मक बल्लेबाजी के लिए कम उपयोगी है और शोर्ट गेंद के लिए इतनी सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकता.इसका अर्थ यह है कि यह आक्रामक खेल में मदद करता है लेकिन सुरक्षात्मक खेल में लाभकारी नहीं है। यह ट्वेंटी -20 में इसकी उपयोगिता को प्रतिबन्धित करता है, जिसमें टेस्ट या चैम्पियनशिप क्रिकेट के बजाय आक्रामक बल्लेबाजी की जाती है, लम्बी पारी के लिए अधिक सूक्ष्म दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है।

इन्हें भी देखें

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  • क्रिकेट के कपडे और उपकरण
  1. "Severn Tunnel (1)". Track Topics, A GWR Book of Railway Engineering. Great Western Railway. 1935 (repr. 1971). पृ॰ 179. |year= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  2. Website by the OTHER media (1 अक्टूबर 2008). "Law 6: Bats". Lords.org. मूल से 19 मार्च 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 नवंबर 2009.
  3. Website by the OTHER media. "Laws of Cricket Appendix E - The bat". Lords.org. मूल से 24 नवंबर 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 नवंबर 2009.
  4. "Cricket equipment: Caring for your kit". BBC Sport. मूल से 12 अप्रैल 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 नवंबर 2010.
  5. "Bat maker defends graphite innovation". BBC Sport. 11 अप्रैल 2005. मूल से 27 सितंबर 2006 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 नवंबर 2010.
  6. "Twenty20's latest swipe: a bat out of hell". Sydney Morning Herald. 13 नवम्बर 2008. मूल से 30 अगस्त 2011 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 नवंबर 2009.
  7. "ICC and Kookaburra Agree to Withdrawal of Carbon Bat". NetComposites. 19 फरवरी 2006. मूल से 28 सितंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 28 सितंबर 2018.

बाहरी कड़ियाँ

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