शीतल, विरल एक कानून शोभित अधित्यका के ऊपर,

कहीं उत्स-प्रस्त्रवण चमकते, झरते कहीं शुभ निर्झर।

जहाँ भूमि समतल, सुन्दर है, नहीं दीखते है पाहन,

हरियाली के बीच खड़ा है, विस्तृत एक उटज पावन।



आस-पास कुछ कटे हुए पीले धनखेत सुहाते हैं,

शशक, मूस, गिलहरी, कबूतर घूम-घूम कण खाते हैं।

कुछ तन्द्रिल, अलसित बैठे हैं, कुछ करते शिशु का लेहन,

कुछ खाते शाकल्य, दीखते बड़े तुष्ट सारे गोधन।



हवन-अग्नि बुझ चुकी, गन्ध से वायु, अभी, पर, माती है,

भीनी-भीनी महक प्राण में मादकता पहुँचती है,

धूम-धूम चर्चित लगते हैं तरु के श्याम छदन कैसे?

झपक रहे हों शिशु के अलसित कजरारे लोचन जैसे।



बैठे हुए सुखद आतप में मृग रोमन्थन करते हैं,

वन के जीव विवर से बाहर हो विश्रब्ध विचरते हैं।

सूख रहे चीवर, रसाल की नन्हीं झुकी टहनियों पर,

नीचे बिखरे हुए पड़े हैं इंगुद-से चिकने पत्थर।



अजिन, दर्भ, पालाश, कमंडलु-एक ओर तप के साधन,

एक ओर हैं टँगे धनुष, तूणीर, तीर, बरझे भीषण।

चमक रहा तृण-कुटी-द्वार पर एक परशु आभाशाली,

लौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमाली।


श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है,

युद्ध-शिविर या तपोभूमि यह, समझ नहीं कुछ पड़ता है।

हवन-कुण्ड जिसका यह उसके ही क्या हैं ये धनुष-कुठार?

जिस मुनि की यह स्रुवा, उसी की कैसे हो सकती तलवार?



आयी है वीरता तपोवन में क्या पुण्य कमाने को?

या संन्यास साधना में है दैहिक शक्ति जगाने को?

मन ने तन का सिद्ध-यन्त्र अथवा शस्त्रों में पाया है?

या कि वीर कोई योगी से युक्ति सीखने आया है?



परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार,

क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार।

तप से मनुज दिव्य बनता है, षड् विकार से लड़ता है,

तन की समर-भूमि में लेकिन, काम खड्ग ही करता है।



किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला?

एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करनेवाला?

कहता है इतिहास, जगत् में हुआ एक ही नर ऐसा,

रण में कुटिल काल-सम क्रोधी तप में महासूर्य-जैसा!



मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल,

शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान ऋषि के सम्बल।

यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम बलशाली का,

भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का।



हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर,

सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किंचित् हटकर।

पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है,

पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है।

कर्ण मुग्ध हो भक्ति-भाव में मग्न हुआ-सा जाता है,

कभी जटा पर हाथ फेरता, पीठ कभी सहलाता है,

चढें नहीं चीटियाँ बदन पर, पड़े नहीं तृण-पात कहीं,

कर्ण सजग है, उचट जाय गुरुवर की कच्ची नींद नहीं।



'वृद्ध देह, तप से कृश काया, उस पर आयुध-संचालन,

हाथ, पड़ा श्रम-भार देव पर असमय यह मेरे कारण।

किन्तु, वृद्ध होने पर भी अंगों में है क्षमता कितनी,

और रात-दिन मुझ पर दिखलाने रहते ममता कितनी।



'कहते हैं, 'ओ वत्स! पुष्टिकर भोग न तू यदि खायेगा,

मेरे शिक्षण की कठोरता को कैसे सह पायेगा?

अनुगामी यदि बना कहीं तू खान-पान में भी मेरा,

सूख जायगा लहू, बचेगा हड्डी-भर ढाँचा तेरा।



'जरा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे चलाता हूँ,

और नहीं तो एक पाव दिन भर में रक्त जलाता हूँ।

इसकी पूर्ति कहाँ से होगी, बना अगर तू संन्यासी,

इस प्रकार तो चबा जायगी तुझे भूख सत्यानाशी।



'पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुज-दण्ड अभय,

नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय।

विप्र हुआ तो क्या, रक्खेगा रोक अभी से खाने पर?

कर लेना घनघोर तपस्या वय चतुर्थ के आने पर।



'ब्राह्मण का है धर्म त्याग, पर, क्या बालक भी त्यागी हों?

जन्म साथ, शिलोंछवृत्ति के ही क्या वे अनुरागी हों?

क्या विचित्र रचना समाज की? गिरा ज्ञान ब्राह्मण-घर में,

मोती बरसा वैश्य-वेश्म में, पड़ा खड्‌ग क्षत्रिय-कर में।