'हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था? जन्मा तो क्यों वीर हुआ?

कवच और कुण्डल-भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ?

धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान?

जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान?



'नहीं पूछता है कोई तुम व्रती, वीर या दानी हो?

सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो?

मगर, मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं,

चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं।



'मैं कहता हूँ, अगर विधाता नर को मुठ्ठी में भरकर,

कहीं छींट दें ब्रह्मलोक से ही नीचे भूमण्डल पर,

तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है;

नीचे हैं क्यारियाँ बनीं, तो बीज कहाँ जा सकता है?



'कौन जन्म लेता किस कुल में? आकस्मिक ही है यह बात,

छोटे कुल पर, किन्तु यहाँ होते तब भी कितने आघात!

हाय, जाति छोटी है, तो फिर सभी हमारे गुण छोटे,

जाति बड़ी, तो बड़े बनें, वे, रहें लाख चाहे खोटे।'



गुरु को लिए कर्ण चिन्तन में था जब मग्न, अचल बैठा,

तभी एक विषकीट कहीं से आसन के नीचे पैठा।

वज्रदंष्ट्र वह लगा कर्ण के उरु को कुतर-कुतर खाने,

और बनाकर छिद्र मांस में मन्द-मन्द भीतर जाने।



कर्ण विकल हो उठा, दुष्ट भौरे पर हाथ धरे कैसे,

बिना हिलाये अंग कीट को किसी तरह पकड़े कैसे?

पर भीतर उस धँसे कीट तक हाथ नहीं जा सकता था,

बिना उठाये पाँव शत्रु को कर्ण नहीं पा सकता था।


किन्तु, पाँव के हिलते ही गुरुवर की नींद उचट जाती,

सहम गयी यह सोच कर्ण की भक्तिपूर्ण विह्वल छाती।


सोचा, उसने, अतः, कीट यह पिये रक्त, पीने दूँगा,

गुरु की कच्ची नींद तोड़ने का, पर पाप नहीं लूँगा।



बैठा रहा अचल आसन से कर्ण बहुत मन को मारे,

आह निकाले बिना, शिला-सी सहनशीलता को धारे।

किन्तु, लहू की गर्म धार जो सहसा आन लगी तन में,

परशुराम जग पड़े, रक्त को देख हुए विस्मित मन में।



कर्ण झपट कर उठा इंगितों में गुरु से आज्ञा लेकर,

बाहर किया कीट को उसने क्षत में से उँगली देकर।

परशुराम बोले- 'शिव! शिव! तूने यह की मूर्खता बड़ी,

सहता रहा अचल, जाने कब से, ऐसी वेदना कड़ी।'



तनिक लजाकर कहा कर्ण ने, 'नहीं अधिक पीड़ा मुझको,

महाराज, क्या कर सकता है यह छोटा कीड़ा मुझको?

मैंने सोचा, हिला-डुला तो वृथा आप जग जायेंगे,

क्षण भर को विश्राम मिला जो नाहक उसे गँवायेंगे।



'निश्चल बैठा रहा, सोच, यह कीट स्वयं उड़ जायेगा,

छोटा-सा यह जीव मुझे कितनी पीड़ा पहुँचायेगा?

पर, यह तो भीतर धँसता ही गया, मुझे हैरान किया,

लज्जित हूँ इसीलिए कि सब-कुछ स्वयं आपने देख लिया।'



परशुराम गंभीर हो गये सोच न जाने क्या मन में,

फिर सहसा क्रोधाग्नि भयानक भभक उठी उनके तन में।

दाँत पीस, आँखें तरेरकर बोले- 'कौन छली है तू?

ब्राह्मण है या और किसी अभिजन का पुत्र बली है तू?


'सहनशीलता को अपनाकर ब्राह्मण कभी न जीता है,

किसी लक्ष्य के लिए नहीं अपमान-हलाहल पीता है।

सह सकता जो कठिन वेदना, पी सकता अपमान वही,

बुद्धि चलाती जिसे, तेज का कर सकता बलिदान वही।



'तेज-पुंज ब्राह्मण तिल-तिल कर जले, नहीं यह हो सकता,

किसी दशा में भी स्वभाव अपना वह कैसे खो सकता?

कसक भोगता हुआ विप्र निश्चल कैसे रह सकता है?

इस प्रकार की चुभन, वेदना क्षत्रिय ही सह सकता है।



'तू अवश्य क्षत्रिय है, पापी! बता, न तो, फल पायेगा,

परशुराम के कठिन शाप से अभी भस्म हो जायेगा।'

'क्षमा, क्षमा हे देव दयामय!' गिरा कर्ण गुरु के पद पर,

मुख विवर्ण हो गया, अंग काँपने लगे भय से थर-थर!



'सूत-पूत्र मैं शूद्र कर्ण हूँ, करुणा का अभिलाषी हूँ,

जो भी हूँ, पर, देव, आपका अनुचर अन्तेवासी हूँ

छली नहीं मैं हाय, किन्तु छल का ही तो यह काम हुआ,

आया था विद्या-संचय को, किन्तु, व्यर्थ बदनाम हुआ।



'बड़ा लोभ था, बनूँ शिष्य मैं कार्त्तवीर्य के जेता का,

तपोदीप्त शूरमा, विश्व के नूतन धर्म-प्रणेता का।

पर, शंका थी मुझे, सत्य का अगर पता पा जायेंगे,

महाराज मुझ सूत-पुत्र को कुछ भी नहीं सिखायेंगे।



'बता सका मैं नहीं इसी से प्रभो! जाति अपनी छोटी,

करें देव विश्वास, भावना और न थी कोई खोटी।

पर इतने से भी लज्जा में हाय, गड़ा-सा जाता हूँ,

मारे बिना हृदय में अपने-आप मरा-सा जाता हूँ।