खनियाधाना रियासत
खनियाधाना रियासत (Khaniadhana State) ब्रिटिश राज के काल में भारत की एक रियासत थी। यह बुंदेला राजपूतों के ओरछा राजवंंश द्वारा शासित थी और खनियाधाना इसकी राजधानी थी, जो आधुनिक मध्य प्रदेश के शिवपुरी ज़िले में है। यह रियासत बुंदेलखंड एजेंसी और बाद में सेंट्रल इंडिया एजेंसी का हिस्सा था। खनियाधना की रियासत, कई छोटे परिक्षेत्रों से बनी थी, जो पूर्व में झांसी के ब्रिटिश जिले से घिरा था, लेकिन अन्यथा पूरी तरह से ग्वालियर राज्य के नरवर जिले से घिरा हुआ था। खानियाधना राज्य ग्वालियर रेजीडेंसी का हिस्सा था। यह ओरछा राज्य के पश्चिम में स्थित था । [२] इसने ५५ गांवों में फैले १०१ वर्ग मीटर के कुल क्षेत्र को कवर किया और १९४१ की जनगणना के अनुसार ब्रिटिश शासन के दौरान क्षेत्र की कुल आबादी २०,१२४ थी।[1].[2]
Khaniadhana State खनियाधाना रियासत | |||||||
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रियासत | |||||||
1724–1948 | |||||||
इम्पीरियल गजेटियर आफ़ इण्डिया में खनियाधाना रियासत | |||||||
Area | |||||||
• 1941 | 176 कि॰मी2 (68 वर्ग मील) | ||||||
Population | |||||||
• 1941 | 20,124 | ||||||
History | |||||||
• Established | 1724 | ||||||
1948 | |||||||
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इतिहास
संपादित करें1724 में, ओरछा राज्य के राजा उदोट सिंह ने अपने बेटे अमर सिंह को खनियाधना और कई अन्य गांव दिए। जब बुंदेलखंड में मराठा सर्वोच्च शक्ति बन गए , तो पेशवा ने 1751 में अमर सिंह को उनके अनुदान की पुष्टि करते हुए एक सनद प्रदान की। इस समय के बाद, ओरछा और झाँसी के मराठा राज्य, पेशवा के अंतिम उत्तराधिकारी के बीच आधिपत्य हमेशा विवाद में था। जब 1854 में झांसी राज्य समाप्त हो गया, तो खानधियाना जागीरदार ने पूर्ण स्वतंत्रता का दावा किया। मामला केवल 1862 में सुलझाया गया था जब खानियाधना को झांसी दरबार और पेशवा के उत्तराधिकारी के रूप में ब्रिटिश सरकार से सीधे निर्भर घोषित किया गया था। राज्य 1920 में स्थापित एक संस्था, चैंबर ऑफ प्रिंसेस के मूल घटक सदस्यों में से एक था। 1948 में, खनियाधाना राज्य को स्वीकार कर लिया भारत संघ और खनियाधाना के आधे (27 गांव) के बारे में में शामिल किया गया था शिवपुरी जिले के मध्य भारत , जबकि अन्य आधा (28 गांवों) में शामिल किया गया था विंध्य प्रदेश ।, जो सभी अब का हिस्सा हैं मध्य प्रदेश ।
शासक
संपादित करेंखानियाधना के शासक परिवार बुंदेला राजपूत थे। खानियाधन की रियासत के शासक के पास जागीरदार की वंशानुगत उपाधि थी , लेकिन वर्ष 1911 से, शासक को राजा की उपाधि और शैली प्रदान की गई । यह एक गैर सलामी राज्य था और देशी शासक या रियासत के राजा एक शासक प्रमुख की शक्तियों और अधिकार का प्रयोग करते थे।
राजा
संपादित करें- १७२४-१७. . अमर सिंह जूदेव
- 1760-1869 राजसी का अज्ञात उत्तराधिकार
- १८६९-१९०९ चित्रा सिंह जूदेव
- १९०९-१९३८ खलक सिंह जूदेव
- 1938-1948 देवेंद्र प्रताप सिंह जूदेव
- 1948~वर्तमान महाराज भानु प्रताप सिंह जूदेव
महाराज ख़लक सिंह जूदेव एवं अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद
संपादित करेंखनियाधाना महाराज खलक सिंह जूदेव ( 1909-1938) एक देशभक्त व्यक्ति थे । उनके बारे में एक वाकया प्रचलित है , एक बार वे रोल्स रॉयस कार की सर्विसिंग के बाद झांसी से एक मैकेनिक महाराजा खलक सिंह जूदेव के साथ उनकी स्वतंत्र रियासत खनियाधाना जा रहा था. बुंदेलखंड गैराज के मालिक अलाउद्दीन ने उसे महाराजा के साथ इसलिए भेजा, ताकि रास्ते में अगर गाड़ी खराब हो जाए तो राजा साहब को कोई तकलीफ न हो. राजा साहब ने रास्ते में एक जगह गाड़ी रोकी और पेशाब करने चले गए. तभी झाड़ियों में से एक सांप उनकी तरफ बढ़ रहा था. मैकेनिक की निगाह जैसे ही सांप पर पड़ी उसने बिना देरी किए तपाक से अपना तमंचा निकाला और सटीक निशाना लगाते हुए सांप को मार गिराया.
मैकेनिक की सूझ-बूझ और सटीक निशाने को देख राजा साहब हैरान रह गए. इसी हैरानी के बीच राजा साहब के मन में मैकेनिक के प्रति संदेह भी हुआ. गाड़ी खनियाधाना के पास बसई गांव के रेस्टहाउस पर रुकी. राजा साहब मैकेनिक को लेकर एकांत में गए और उन्होंने पूछा, कौन हो तुम? और किस मकसद से मेरे पास आए हो. राजा साहब ने कहा कि वो बिना किसी संकोच के उन्हें अपनी असलियत बता सकता है और वो इसके बारे में किसी से नहीं कहेंगे. तब मैकेनिक ने उन्हें काकोरी कांड का पूरा किस्सा सुनाते हुए बताया कि वो हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के चंद्रशेखर आजाद हैं.
खनियाधाना स्टेट के राजा खलक सिंह जूदेव राष्ट्रभक्त थे. इसी लिए आजाद एक खास योजना के तहत उनके साथ मैकेनिक बनकर झांसी से निकले थे. ताकि राजा साहब से मुलाकात हो सके और सही समय आने पर उन्हें असलियत बता उनसे आर्थिक और शस्त्रों के लिए मदद ली जा सके.
काकोरी कांड के बाद चंद्रशेखर आजाद झांसी आए और यहां उन्होंने बचे हुए संगठन को इकट्ठा करने का काम किया. इसके लिए उन्हें धन और हथियारों की जरूरत थी. ऐसे में खलक सिंह जूदेव से बढ़कर कौन मदद कर सकता था. जब जूदेव को आजाद की असलियत का पता चला तो वो उन्हें गोविंद बिहारी मंदिर का पुजारी बना पंडित हरिशंकर शर्मा का छद्म नाम देकर खनियाधाना ले आए. ये राज उन्होंने सिर्फ अपने तक ही सीमित रखा. आजाद 6-7 महीने खनियाधाना के गोविंद बिहारी मंदिर में रुके. रात को वो यहां आराम करते और दिन में तीन किलोमीटर दूर सीतापाठा मंदिर की पहाड़ी पर चले जाते और बमों की टेस्टिंग करते.
अपने अज्ञातवास के दौरान जब आजाद खनियाधाना रहे थे, तब उन्हें बम बनाने का जरूरी सामान राजा जूदेव उपलब्ध करा देते थे. यहां आजाद ने बम बनाए और उन्हें टेस्ट भी किया. उनके टेस्ट किए बमों के निशान आज भी सीतापाठा की चट्टानों पर मौजूद हैं. हालांकि ये दुख की बात है कि अमृतसर के जलियांवाला बाग में अंग्रेजों की एक-एक गोली सहेज कर रखने वाले देश में महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर के बमों के निशान आज भी आजाद हैं. देखभाल के आभाव में ये निशान धीरे-धीरे आजाद की तरह ही खुद को खत्म करते जा रहे हैं.
सीतापाठा की पहाड़ी पर आजाद ने सिर्फ बमों का परिक्षण ही नहीं किया बल्कि अपने कई क्रांतिकारी साथियों को यहां गोली चलाने की ट्रेनिंग भी दी. इन साथियों में मास्टर रुद्रनारायण, सदाशिव मलकापुरकर और भगवानदास माहौर के नाम शामिल हैं.
चंद्रशेखर आजाद की सिर्फ दो तस्वीरें ही मिलती हैं. इनमें से एक जिसमें वो आधे नंगे बदन मूंछों पर ताव देते हुए दिखते हैं. ये तस्वीर खनियाधाना से आजाद का एक और संबंध बयां करती है. आजाद की ये दमदार तस्वीर खनियाधाना में ही बनाई गई थी. आजाद एक रोज गोविंद बिहारी मंदिर पर नहा कर आए थे, तब खनियाधाना के मम्माजू पेंटर ने उनकी ये तस्वीर बनाई थी. आजाद ने तस्वीर बनाने से इनकार किया, लेकिन खलक सिंह जूदेव के आग्रह और ये आश्वासन देने कि इसका कोई गलत इस्तेमाल नहीं होगा, आजाद राजी हो गए.
आजाद ने रोजाना होने वाली बैठकों में से एक दिन राजा खलक सिंह जूदेव से एक अंग्रेजी पिस्तौल का आग्रह किया. खलक सिंह ने अपने प्रिय मित्र की इस इच्छा को सुनते ही राज्य को एक जैसी दो रिवॉल्वर खरीदने का आदेश दिया. तब ऐसी आधुनिक रिवॉल्वर खरीदने के लिए वायसराय की अनुमति लेनी होती थी और उसे खरीदने का कारण बताना होता था.
हालांकि राजा खलक सिंह जूदेव के पत्र पर रिवॉल्वर खरीदने की इजाजत मिल गई और एक जैसी गोलियों वाली दो रिवॉल्वर खरीदी गईं. राज्य के शस्त्र रिकॉर्ड में आमद दर्ज होने के बाद राजा जूदेव ने अपने रोजनामचे में शिकार खेलने जाने की रवानगी डाली और दूसरे दिन लौटकर रोजनामचे में लिखा की राजा के शिकार खेलते समय नदी के ऊपर से उनके घोड़े ने छलांगा मारी और इस दौरान रिवॉल्वर कमर से छूटकर नदी में गिर गई. इसके बाद गोताखोरों से बहुत खोज कराई गई, लेकिन रिवॉल्वर नहीं मिली.
असल में वो रिवॉल्वर गोविंद बिहारी के मंदिर में आजाद को सौंपी गई. जूदेव ने एक जैसी दो रिवॉल्वर इसलिए ली थीं, ताकि उसके लिए गोलियां ली जाएं और आजाद को दी जा सकें. आजाद नहाकर आए थे तब उन्होंने उस रिवॉल्वर को लिया और अपनी कमर में बांधकर मूछों पर ताव देते हुए अपना फोटू खिंचवाया. आजाद की शहादत के बाद उनकी बंदूक आज प्रयागराज के म्यूजियम में है. वहीं जो दूसरी बंदूक थी वो काफी समय तक खनियाधाना रियासत के पास रही, लेकिन अब वो डिस्पोज की जा चुकी है. भानू प्रताप सिंह बताते हैं कि वो बंदूक बहुत शानदार थी, उसकी मारक क्षमता भी काफी अच्छी थी, लेकिन अब उसे डिस्पोज कर दिया है.
आजाद और खलक सिंह जूदेव के बीच घनिष्ठ संबंधों और क्रांतिकारी इतिहास में खनियाधाना के निशान अब जूदेव की बंदूक की तरह ही धीरे-धीरे धुंधलाते जा रहे हैं.
- भारतीय रियासत खानियाधन राजकोषीय न्यायालय शुल्क और राजस्व टिकट
- इंपीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया, वी. 15, पी। 243.
खनियाधाना राजमहल के वर्तमान महाराज श्री भानुप्रताप सिंह जूदेव बुंदेला पिछोर विधानसभा से विधायक रहे ..वर्तमान में राजपरिवार के सदस्यों में श्री कौशलेंद्र प्रताप सिंह जूदेव, श्री शैलेन्द्र प्रताप सिंह जूदेव नगर परिषद खनियाधाना के अध्यक्ष हैं/रहे है एवं श्री सतेंद्र प्रताप सिंह जूदेव है।
इन्हें भी देखें
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करें- ↑ Bundela Rajas of Bundelkhand (Panna)
- ↑ David P. Henige, Princely states of India: a guide to chronology and rulers, Orchid Press, 2004 pp:104-5