खेचरी मुद्रा योगसाधना की एक मुद्रा है। इस मुद्रा में चित्त एवं जिह्वा दोनों ही आकाश की ओर केंद्रित किए जाते हैं जिसके कारण इसका नाम 'खेचरी' पड़ा है (ख = आकाश, चरी = चरना, ले जाना, विचरण करना)। इस मुद्रा की साधना के लिए पद्मासन में बैठकर दृष्टि को दोनों भौहों के बीच स्थिर करके फिर जिह्वा को उलटकर तालु से सटाते हुए पीछे रंध्र में डालने का प्रयास किया जाता है। इस स्थित में चित्त और जीभ दोनों ही 'आकाश' में स्थित रहते हैं, इसी लिये इसे 'खेचरी' मुद्रा कहते हैं । इसके साधन से मनुष्य को किसी प्रकार का रोग नहीं होता ।

इसके लिये जिह्वा को बढ़ाना आवश्यक होता है। जिह्वा को लोहे की शलाका से दबाकर बढ़ाने का विधान पाया जाता है। कौल मार्ग में खेचरी मुद्रा को प्रतीकात्मक रूप में 'गोमांस भक्षण' कहते हैं। 'गौ' का अर्थ इंद्रिय अथवा जिह्वा और उसे उलटकर तालू से लगाने को 'भक्षण' कहते हैं।

योगमार्ग की एक महान क्रिया :-

योगमार्ग में "खेचरी मुद्रा" को 'योगियों की माँ' कहकर सम्बोधित किया गया है। जिस प्रकार माँ अपनी सन्तान का पालन पोषण सभी संकट हटाकर करती है, ठीक उसी प्रकार खेचरी की शरण में रहने वाला साधक सदैव उसकी कृपा का पात्र बनता है। राजस्थान के पुष्कर निवासी योगीराज,परिव्राजक स्वामी श्री ब्रह्मानन्द जी के कथनानुसार -

"सुनो खेचरी बात साधो,सुनो खेचरी बात रे।।

सबसे बड़ी खेचरी मुद्रा,योगी जन की मात रे।

जो जन साधन करत निरन्तर,भव सागर तर जात रे।।

जीभ तले की नाड़ कटे जब,तब पीछे उलटात रे।

धीरे-धीरे गल के ऊपर,छेद मांही ठहरात रे।।

पीछे ध्यान धरे भृकुटी में,कांपे सब ही गात रे ।

ब्रह्मज्योति का दर्शन होवे,झरे सुधा दिन रात रे।।

दिन-दिन ध्यान करे जब योगी,काया सुध बिसरात रे ।

"ब्रह्मानन्द" स्वरूप समावे,फेर जन्म नहि आत रे।।"

को व्यक्त करते निम्नलिखित दो श्लोक इसे स्पष्ट कर देते है.....

१) "कपालकुहरे जिव्हा प्रविष्टा विपरितगा।

     ध्यानं भ्रूमध्यदेशे च मुद्रा भवति खेचरी।।"

२) "खेचरियोगतो योगी शिरश्चंद्रादुपागतम्।

     रसंदिव्यंपिबेन्नित्यं सर्वव्याधिविनाशनम्।।"

योग की इस महान क्रिया का साधक आज के इस युग में दुर्लभ है, योग की इस क्रिया को सदैव योगी,साधक गुरु के सानिध्य में ही सीखने का प्रयास करें।

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