सामान्य अर्थ में ख्याति से तात्पर्य प्रसिद्धि, प्रशंसा, प्रकाश, ज्ञान आदि समझा जाता है। पर दार्शनिकों ने इसे सर्वथा भिन्न अर्थ में ग्रहण किया है। उन्होंने वस्तुओं के विवेचन की शक्ति को ख्याति कहा है और विभिन्न दार्शनिकों ने उसकी अलग-अलग ढंग से व्याख्या की है। इसकी पाँच व्याख्याएँ अधिक प्रसिद्ध हैं :

1. आत्मख्याति - विज्ञानवादी बौद्धों के अनुसार आत्मा के साथ जो बुद्धि है उसकी ख्याति विषय के रूप में प्रतिभासित होती है। यथा-सीप को देखकर चाँदी का भ्रम उत्पन्न होता है। इस भ्रम का कारण बुद्धि द्वारा उनका तदाकार मान लिया जाना है। इस स्थिति में अन्य को बाह्य विषय की उपेक्षा नहीं होती।

2. असत् ख्याति - शून्यवादी बौद्धों के मत से चाँदी का सीप प्रतीत होना असत ख्याति है। वाचस्पति ने इसी असत ख्याति का प्रतिपादन किया है।

3. अख्याति - 'यह चाँदी है' - इस वाक्य में यह प्रत्यक्ष प्रतीति का विषय है। चाँदी प्रत्यक्ष प्रतीति का विषय नहीं है क्योंकि नेत्रादि का उसके साथ कोई संबंध नहीं। वस्तुत: चाँदी की प्रतीति स्मरण रूप मात्र है। किंतु यह भेद समझ नहीं पड़ता। इसलिये यह अख्याति है। मीमांसक इस प्रकार के अख्यातिवादी हैं।

4. अन्यथा ख्याति - एक वस्तु से दूसरे वस्तु के आकार की प्रतीति को अन्यथाख्याति कहते हैं। यथा-सदोष इंद्रियों के संयोग के कारण ही सीप चाँदी जान पड़ता है। यह नैयायिकों का कहना है।

5. अनर्विचनीय ख्याति - जिसमें सत् असत् समझ न पड़े; इस प्रकार वस्तु की प्रतीति इसका स्वरूप है। यथा-सीप के स्थान पर चाँदी का आभास सत्य नहीं है। प्रमाण का निरूपण करने से सत् वस्तु का बोध होता है या नहीं, यह विचारणीय है। विवेचन से जान पड़ता है कि यह चाँदी नहीं है। इस प्रमाण से वह असत है किंतु वह असत है ही यह निश्चित नहीं; क्योंकि असत है उसकी प्रतीति संभव नहीं। यहाँ सीपी चाँदी जान पड़ती है। इस प्रकार भ्रामक पदार्थ की प्रतीति अनिर्वचनीय ख्याति है, यह वेदांतियों का कथन है। जय श्रीमननारायण