गढ़वाल की कला एवं चित्रकारी

चाँदी के समान श्वेत पर्वत शिखर कल-2 करती चमकदार सरिताएं, हरी भरी घाटियाँ एवं यहाँ की शीत जलवायु ने शान्ति एवं स्वास्थय लाभ हेतु एक विशाल संख्या में पर्यटकों को गढ़वाल के पर्वतों की ओर आकर्षित किया है। यह एक सौन्दर्यपूर्ण भूमि है जिसने महर्षि बाल्मिकी एवं कालीदास जैसे महान लेखकों को प्रेरणा प्रदान की है। इन सभी ने पेन्टिंग एवं कला के साथ-2 गढ़वाल की शैक्षिक सम्पदा को अन्तिम नीव प्रदान की है।

पत्थर पर नक्काशी की यहाँ की मूल कला धीरे-2 समाप्त हो गई है। परन्तु लकडी पर नक्काशी आज भी यहाँ उपलब्ध है। यहाँ पर केवल अर्द्धशताब्दी पूर्व तक के गृहों के प्रत्येक दरवाजे पर लकडी की नक्काशी का कार्य देखा जा सकता है इसके अतिरिक्त लकडी की नक्काशी का कार्य सम्पूर्ण गढ़वाल में स्थित सकडों मन्दिरों में देखा जा सकता है। वास्तुशिल्प कार्य के अवशेष गढ़वाल में निम्न स्थलों पर पाये जा सकते हैं। चान्दपुर किला, श्रीनगर-मन्दिर, बद्रीनाथ के निकट पाडुकेश्वर, जोशीमठ के निकट देवी मादिन एवं देवलगढ मन्दिर उपरोक्त सभी संरचनाएं गढ़वाल में एवं चन्डी जिले में स्थित है।

गढ़वाल पेन्टिंग स्कूल

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गढ़वाल को पर्यटकों, साहसिक व्यक्तियों, राजनीतिक निर्वासितों, दर्शनशास्त्रियों एवं प्रकृति प्रेमियों के लिए सदैव ही एक सुरक्षित स्वर्ग के रूप में जाना जाता रहा है। 17 वी सदी के मध्य में एक मुगल राजकुमार सुलेमान शिकोह ने गढ़वाल में शरण ली। राजकुमार अपने साथ एक कलाकार एवं उसके पुत्र को लाया जो कि उसके दरबारी पेन्टर थे एवं मुगल स्टाइल की पेन्टिंग में कुशल थे। उन्नीस माह बाद राजकुमार ने गढ़वाल को छोड दिया परन्तु उसके दरबारी पेन्टर जो यहाँ के मनोहर वातावरण से मन्त्रमुग्ध हो गये थे वे यहीं पर रुक गये। ये पेन्टर श्रीनगर (गढ़वाल) में स्थापित हो गया जो पंवार राज्य की तत्कालीन राजधानी थी एवं गढ़वाल में मुगल स्टाइल की पेन्टिंग को प्रस्तुत किया। धीरे-2 समय के साथ इन मूल पेन्टरों के उत्तराधिकारी विशिष्ट पेन्टर बन गये तथा उन्होने अपने प्रकार की नवीन मुल पद्धति को विकसित किया। यह स्टाइल बाद में गढ़वाल पेन्टिंग स्कूल के रूप में प्रसिद्ध हुआ। लगभग एक शताब्दी बाद एक प्रसिद्ध पेन्टर भोला राम ने पेन्टिंग की कुछ अन्य पध्दतियों द्वारा रोभानी आकर्षण के समतुल्य पेन्टिंग की एक नई पद्धति विकसित की। वे गढ़वाल स्कूल के एक महान मास्टर होने के साथ-2 अपने समय के एक महानतम कवि भी थे। भोला राम की पेन्टिंगों में हमे कुछ सुन्दर कविताएं प्राप्त होती हैं। यद्यपि इन पेन्टिंगों में अन्य पहाडी स्कूलों का प्रभाव निश्चित रूप में दिखाई पडता है तथापि इन पेन्टिंगों में गढ़वाल स्कूल की सम्पूर्ण मूलता को बनाए रखा गया है। गढ़वाल स्कूल की प्रमुख विशिष्टताओं में पूर्ण विकसित वक्षस्थलों, बारीक कटि-विस्तार, अण्डाकार मासूम चेहरा, संवेदनशील भी है एवं पतली सुन्दर नासिका से परिपूर्ण एक सौन्दर्यपूर्ण महिला की पेन्टिंग सम्मिलित है। अपनी लिखी कविताओं प्राकृतिक इतिहास पर लिखे विचारों, एकत्रित आंकडों एवं विविध विषयों पर विशाल मात्रा में बनाई गई पेन्टिंगों के आधार पर भोलाराम को निर्विवाद रूप में अपने समय के एक महान कलाकार एवं कवि के अपवाद व्यक्तित्व के रूप में जाना जा सकता है।

राजा प्रदुमन शाह (1797-1804AD) द्वारा कांगडा की एक गुलर राज कुमारी के साथ किये गये विवाह ने अनेकों गुलर कलाकारों को गढ़वाल में आकर बसने पर प्रेरित किया। इस तकनीक ने गढ़वाल की पेन्टिंग सटाइल को अत्यधिक प्रभावित किया। आदर्श सौन्दर्य की वैचारिकता, धर्म एवं रोमांस में विलयकरण, कला एवं मनोभाव के सम्मिश्रण सहित गढ़वाल की पेन्टिंग प्रेम के प्रति भारतीय मनोवृत्ति के साकार स्वरुप को दर्शाती है। विशिष्ट शोधकर्ताओं एवं एतिहासिक कलाकारों द्वारा किये गये कुछ कठिन शोध कार्यों के कारण इस अवधि के कुछ पेन्टरों के नाम प्रसिद्ध हैं। पेन्टरों के पारिवारिक वृक्ष में श्याम दास हर दास के नाम सर्वप्रथम लिये जाते हैं जो राजकुमार सुलेमान के साथ गढ़वाल आने वाले प्रथम व्यक्ति थे। इस कला विद्यालय के कुछ महान शिक्षकों में हीरालाल, मंगतराम, भोलाराम, ज्वालाराम, तेजराम, ब्रजनाथ प्रमुख हैं।

गढ़वाल पेन्टिंग स्कूल की कुछ उत्कृष्ट कलाकृतियाँ निम्न हैं।

रामायण (1780AD) का चित्रण, ब्रहमा जी के जन्म दिवस (1780AD) का आयोजन, शिव एवं पार्वती रागिनी, उत्कट नायिका, अभिसारिका नायिका, कृष्ण पेन्टिंग, राधा के चरण, दर्पण देखती हुई राधा, कालिया दमन, गीता गोविन्दा चित्रण पुरातत्वीय अन्वेषणों से प्राप्त अनेकों प्रतिमाओं सहित वृहत्त मात्रा में इन पेन्टिंगों को श्रीनगर (गढ़वाल) में विश्वविद्यालय संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है।

गढ़वाल के निवासियों के जीवन में मूर्ति पूजा का विशिष्ट महत्व होने के कारण देवी एवं देवताओं की विसशिष्ट प्रतिमाओं को बनाया गया है। डेकारा देवी देवताओं की चिकनी मिट्टी में निर्मित प्रतिमाएं हैं। जिन्हे रिलीफ या त्रिविमिय स्वरुप में तैयार किया गया है तथा मुख्य रूप में पूजा-अर्चना हेतु स्थापित किये गये। इन प्रतिमाओं को बारीक चिकनी मिट्टी में रंग मिलाकर तैयार किया गया है। इसके बाद उन्हे आकर्षित बनाने के लिए उनमे विभिन्न रंग भरे गये मकर सक्रान्ति के अवसर पर गेहूँ के मीठे आटे में जंगली सुअर या घुगटा (जिसकी प्रतिमाएं कुमाऊ के रोमान्टिक लोक संगीतों में स्थापित है) को चित्रित करती माला बनाई जाती है। बच्चे इन घुगटा प्रतिमाओं को कौओ को खिलाते हैं। कर्क सक्रान्ति के अवसर पर डेकारा के नाम से प्रसिद्ध भगवान शिव की प्रतिमाएं बनाई जाती है जो शिव एवं हिमालय पुत्री पार्वती के विवाह का चित्रण करती है।

गढ़वाल एवं कुमाऊ के प्रत्येक भाग में पारम्परिक स्वर्णकार हजारों वर्ष पुराने डिजाइनों एवं पद्धतियों का प्रयोग करके पारम्परिक आभूषण निर्मित करते हैं। ये आभूषण सोने, चाँदी एवं अक्सर ताँबे के बने होते हैं।