श्री गायत्री देवी

वैष्णवी आभीर देवी
(गायत्री से अनुप्रेषित)

गायत्री देवी यह हिन्दू धर्म की एक देवी है। इसका संशोधन महर्षि विश्वामित्र द्वारा किया गया है। अपितु यह ब्रह्म देव की निर्मिती और पत्नी है। इसका मूल रूप सावित्री देवी है। यह एक कठोर परंतु सर्व सिद्धी दाई देवी मानी जाती है।

श्री गायत्री देवी
देवी
राजा रवी वर्मा द्वारा चित्रित श्री गायत्री देवी
संबंध हिन्दू धर्म ,
निवासस्थान सत्य लोक
मंत्र ॐ भूर्भूवः स्वः।
तत्सवितुर्वरेण्यं।
भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्।
अस्त्र शंख, चक्र, पद्म, परशु, गदा और पाश
जीवनसाथी ब्रह्मदेव
सवारी हंस
शास्त्र श्री गायत्री सहस्रनामस्तोत्र

गायत्री देवी की साधना के हेतु गायत्री मंत्र का जप-अनुष्ठानादी किया जाता है। गायत्री मंत्र इस प्रकार है

ॐ भूर्भुवः स्वः।
तत्सवितुर्वरेण्यम्।
भर्गो देवस्य धीमही।
धियो योनः प्रचोदयात्।

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गायत्री मंत्र

प्रबुद्ध सोसाइटी के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा0 श्री प्रकाश बरनवाल का कहना है कि गायत्री वह दैवी शक्ति है जिससे सम्बन्ध स्थापित करके मनुष्य अपने जीवन विकास के मार्ग में बड़ी सहायता प्राप्त कर सकता है। परमात्मा की अनेक शक्तियाँ हैं, जिनके कार्य और गुण पृथक् पृथक् हैं। उन शक्तियों में गायत्री का स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यह मनुष्य को सद्बुद्धि की प्रेरणा देती है। गायत्री से आत्मसम्बन्ध स्थापित करने वाले मनुष्य में निरन्तर एक ऐसी सूक्ष्म एवं चैतन्य विद्युत् धारा संचरण करने लगती है, जो प्रधानतः मन, बुद्धि, चित्त और अन्तःकरण पर अपना प्रभाव डालती है। बौद्धिक क्षेत्र के अनेकों कुविचारों, असत् संकल्पों, पतनोन्मुख दुर्गुणों का अन्धकार गायत्री रूपी दिव्य प्रकाश के उदय होने से हटने लगता है। यह प्रकाश जैसे- जैसे तीव्र होने लगता है, वैसे- वैसे अन्धकार का अन्त भी उसी क्रम से होता जाता है।

मनोभूमि को सुव्यवस्थित, स्वस्थ, सतोगुणी एवं सन्तुलित बनाने में गायत्री का चमत्कारी लाभ असंदिग्ध है और यह भी स्पष्ट है कि जिसकी मनोभूमि जितने अंशों में सुविकसित है, वह उसी अनुपात में सुखी रहेगा, क्योंकि विचारों से कार्य होते हैं और कार्यों के परिणाम सुख- दुःख के रूप में सामने आते हैं। जिसके विचार उत्तम हैं, वह उत्तम कार्य करेगा, जिसके कार्य उत्तम होंगे, उसके चरणों तले सुख- शान्ति लोटती रहेगी।

गायत्री उपासना द्वारा साधकों को बड़े- बड़े लाभ प्राप्त होते हैं। हमारे परामर्श एवं पथ- प्रदर्शन में अब तक अनेकों व्यक्तियों ने गायत्री उपासना की है। उन्हें सांसारिक और आत्मिक जो आश्चर्यजनक लाभ हुए हैं, हमने अपनी आँखों देखे हैं। इसका कारण यही है कि उन्हें दैवी वरदान के रूप में सद्बुद्धि प्राप्त होती है और उसके प्रकाश में उन सब दुर्बलताओं, उलझनों, कठिनाइयों का हल निकल आता है, जो मनुष्य को दीन- हीन, दुःखी, दरिद्र, चिन्तातुर, कुमार्गगामी बनाती हैं। जैसे प्रकाश का न होना ही अन्धकार है, जैसे अन्धकार स्वतन्त्र रूप से कोई वस्तु नहीं है; इसी प्रकार सद्ज्ञान का न होना ही दुःख है, अन्यथा परमात्मा की इस पुण्य सृष्टि में दुःख का एक कण भी नहीं है। परमात्मा सत्- चित् स्वरूप है, उसकी रचना भी वैसी ही है। केवल मनुष्य अपनी आन्तरिक दुर्बलता के कारण, सद्ज्ञान के अभाव के कारण दुःखी रहता है, अन्यथा सुर दुर्लभ मानव शरीर ‘‘स्वर्गादपि गरीयसी’’ धरती माता पर दुःख का कोई कारण नहीं, यहाँ सर्वत्र, सर्वथा आनन्द ही आनन्द है।

सद्ज्ञान की उपासना का नाम ही गायत्री उपासना है। जो इस साधना के साधक हैं, उन्हें आत्मिक एवं सांसारिक सुखों की कमी नहीं रहती, ऐसा हमारा सुनिश्चित विश्वास और दीर्घकालीन अनुभव है। — श्रीराम शर्मा आचार्य


वेद कहते हैं- ज्ञान को। ज्ञान के चार भेद हैं- ऋक्, यजुः, साम और अथर्व। कल्याण, प्रभु- प्राप्ति, ईश्वरीय दर्शन, दिव्यत्व, आत्म- शान्ति, ब्रह्म- निर्वाण, धर्म- भावना, कर्तव्य पालन, प्रेम, तप, दया, उपकार, उदारता, सेवा आदि ऋक् के अन्तर्गत आते हैं। पराक्रम, पुरुषार्थ, साहस, वीरता, रक्षा, आक्रमण, नेतृत्व, यश, विजय, पद, प्रतिष्ठा, यह सब ‘यजु:’ के अन्तर्गत हैं। क्रीड़ा, विनोद, मनोरञ्जन, संगीत, कला, साहित्य, स्पर्श इन्द्रियों के स्थूल भोग तथा उन भोगों का चिन्तन, प्रिय कल्पना, खेल, गतिशीलता, रुचि, तृप्ति आदि को ‘साम’ के अन्तर्गत लिया जाता है। धन, वैभव, वस्तुओं का संग्रह, शास्त्र, औषधि, अन्न, वस्तु, धातु, गृह, वाहन आदि सुख- साधनों की सामग्रियाँ ‘अथर्व’ की परिधि में आती हैं।

किसी भी जीवित प्राणधारी को लीजिए, उसकी सूक्ष्म और स्थूल, बाहरी और भीतरी क्रियाओं और कल्पनाओं का गम्भीर एवं वैज्ञानिक विश्लेषण कीजिए, प्रतीत होगा कि इन्हीं चार क्षेत्रों के अन्तर्गत उसकी समस्त चेतना परिभ्रमण कर रही है। (१) ऋक्- कल्याण (२) यजुः- पौरुष (३) साम- क्रीड़ा (४) अथर्व- अर्थः इन चार दिशाओं के अतिरिक्त प्राणियों की ज्ञान- धारा और किसी ओर प्रवाहित नहीं होती। ऋक् को धर्म, यजुः: को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। यही चार ब्रह्माजी के चार मुख हैं। ब्रह्मा को चतुर्मुख इसलिए कहा गया है कि वे एक मुख होते हुए चार प्रकार की ज्ञान- धारा का निष्क्रमण करते हैं। वेद शब्द का अर्थ है- ‘ज्ञान’। इस प्रकार वह एक है, परन्तु एक होते हुए भी वह प्राणियों के अन्तःकरण में चार प्रकार का दिखाई देता है। इसलिए एक वेद को सुविधा के लिए चार भागों में विभक्त कर दिया गया है। भगवान् विष्णु की चार भुजाएँ भी यही हैं। इन चार विभागों को स्वेच्छापूर्वक विभक्त करने के लिए चार आश्रम और चार वर्णों की व्यवस्था की गयी। बालक क्रीड़ावस्था में, तरुण अर्थावस्था में, वानप्रस्थ पौरुषावस्था में और संन्यासी कल्याणावस्था में रहता है। ब्राह्मण ऋक् है, क्षत्रिय यजु: है, वैश्य अथर्व है और साम शूद्र है। इस प्रकार यह चतुर्विध विभागीकरण हुआ।

यह चारों प्रकार के ज्ञान उस चैतन्य शक्ति के ही स्फुरण हैं, जो सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी ने उत्पन्न किया था और जिसे शास्त्रकारों ने गायत्री नाम से सम्बोधित किया है। इस प्रकार चारों वेदों की माता गायत्री हुई। इसी से उसे ‘वेदमाता’ भी कहा जाता है। इस प्रकार जल तत्त्व को बर्फ, भाप (बादल, ओस, कुहरा आदि), वायु (हाइड्रोजन- ऑक्सीजन) तथा पतले पानी के चार रूपों में देखा जाता है। जिस प्रकार अग्रि तत्त्व को ज्वलन, गर्मी, प्रकाश तथा गति के रूप में देखा जाता है, उसी प्रकार एक ‘ज्ञान- गायत्री’ के चार वेदों के चार रूपों में दर्शन होते हैं। गायत्री माता है तो चार वेद इसके पुत्र हैं। यह तो हुआ सूक्ष्म गायत्री का, सूक्ष्म वेदमाता का स्वरूप। अब उसके स्थूल रूप पर विचार करेंगे। ब्रह्मा ने चार वेदों की रचना से पूर्व चौबीस अक्षर वाले गायत्री मन्त्र की रचना की। इस एक मन्त्र के एक- एक अक्षर में सूक्ष्म तत्त्व समाहित हैं, जिनके पल्लवित होने पर चार वेदों की शाखा- प्रशाखाएँ उद्भूत हो गयीं। एक वट बीज के गर्भ में महान वट वृक्ष छिपा होता है। जब वह अंकुर रूप में उगता है, वृक्ष के रूप में बड़ा होता है, तो उसमें असंख्य शाखाएँ, टहनियाँ, पत्ते, फूल, फल लद जाते हैं। इन सबका इतना बड़ा विस्तार होता है, जो उस मूल वट बीज की अपेक्षा करोड़ों- अरबों गुना बड़ा होता है। गायत्री के चौबीस अक्षर भी ऐसे ही बीज हैं, जो प्रस्फुटित होकर वेदों के महाविस्तार के रूप में अवस्थित होते हैं।

व्याकरण शास्त्र का उद्गम शंकर जी के वे चौदह सूत्र हैं, जो उनके डमरू से निकले थे। एक बार महादेव जी ने आनन्द- मग्न होकर अपना प्रिय वाद्य डमरू बजाया। उस डमरू में से चौदह ध्वनियाँ निकलीं। इन (अइउण्, ऋलृक्, एओङ्, ऐऔच्, हयवरट्, लण् आदि) चौहद सूत्रों को लेकर पाणिनि ने महाव्याकरण शास्त्र रच डाला। उस रचना के पश्चात् उसकी व्याख्याएँ होते- होते आज इतना बड़ा व्याकरण शास्त्र प्रस्तुत है, जिसका एक भारी संग्रहालय बन सकता है। गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों से इसी प्रकार वैदिक साहित्य के अंग- प्रत्यंगों का प्रादुर्भाव हुआ है। गायत्री सूत्र है, तो वैदिक ऋचाएँ उनकी विस्तृत व्याख्या हैं। अनादि परमात्मतत्त्व ब्रह्म से यह सब कुछ उत्पन्न हुआ। सृष्टि उत्पन्न करने का विचार उठते ही ब्रह्म में एक स्फुरणा उत्पन्न हुई, जिसका नाम है- शक्ति। शक्ति के द्वारा दो प्रकार की सृष्टि उत्पन्न हुई- एक जड़, दूसरी चैतन्य। जड़ सृष्टि का संचालन करने वाली शक्ति ‘प्रकृति’ और चैतन्य सृष्टि का संचालन करने वाली शक्ति का नाम ‘सावित्री’ है।

पुराणों में वर्णन मिलता है कि सृष्टि के आदिकाल में भगवान् की नाभि में से कमल उत्पन्न हुआ। कमल के पुष्प में से ब्रह्मा हुए, ब्रह्मा से सावित्री हुई, सावित्री और ब्रह्मा के संयोग से चारों वेद उत्पन्न हुए। वेद से समस्त प्रकार के ज्ञानों का उद्भव हुआ। तदनन्तरं ब्रह्माजी ने पंचभौतिक सृष्टि की रचना की। इस आलंकारिक गाथा का रहस्य यह है- निर्लिप्त, निर्विकार, निर्विकल्प परमात्मतत्त्व की नाभि में से- केन्द्र भूमि में से, अन्तःकरण में से कमल उत्पन्न हुआ और वह पुष्प की तरह खिल गया। श्रुति ने कहा कि सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा की इच्छा हुई कि ‘एकोऽहं बहुस्याम्’ मैं एक से बहुत हो जाऊँ। यह उसकी इच्छा, स्फुरणा नाभि देश में से निकल कर स्फुटित हुई अर्थात् कमल की लतिका उत्पन्न हुई और उसकी कली खिल गई।

इस कमल पुष्प पर ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं। ये ब्रह्मा सृष्टि निर्माण की त्रिदेव शक्ति का प्रथम अंश है। आगे चलकर यह त्रिदेवी शक्ति उत्पत्ति, स्थिति और नाश का कार्य करती हुई ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रूप में दृष्टिगोचर होती है। आरम्भ में कमल के पुष्प पर केवल ब्रह्माजी ही प्रकट होते हैं, क्योंकि सर्वप्रथम उत्पन्न करने वाली शक्ति की आवश्यकता हुई।

अब ब्रह्माजी का कार्य आरम्भ होता है। उन्होंने दो प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की- एक चैतन्य, दूसरी जड़। चैतन्य शक्ति के अन्तर्गत सभी जीव आ जाते हैं, जिनमें इच्छा, अनुभूति, अहंभावना पाई जाती है। चैतन्य की एक स्वतन्त्र सृष्टि है, जिसे विश्व का ‘प्राणमय कोश’ कहते हैं। निखिल विश्व में एक चैतन्य तत्त्व भरा हुआ है, जिसे ‘प्राण’ नाम से पुकारा जाता है। विचार, संकल्प, भाव, इस प्राण तत्त्व के तीन वर्ग हैं और सत्, रज, तम- तीन इसके वर्ण हैं। इन्हीं तत्त्वों को लेकर आत्माओं के स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर बनते हैं। सभी प्रकार के प्राणी इसी प्राण तत्त्व से चैतन्यता एवं जीवन सत्ता प्राप्त करते हैं।

जड़ सृष्टि निर्माण के लिए ब्रह्माजी ने पञ्चभूतों का निर्माण किया। पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश के द्वारा विश्व के सभी परमाणुमय पदार्थ बने। ठोस, द्रव, गैस- इन्हीं तीन रूपों में प्रकृति के परमाणु अपनी गतिविधि जारी रखते हैं। नदी, पर्वत, धरती आदि का सभी पसारा इन पंचभौतिक परमाणुओं का खेल है। प्राणियों के स्थूल शरीर भी इन्हीं प्रकृतिजन्य पंचतत्त्वों के बने होते हैं।

क्रिया जड़- चेतन दोनों सृष्टि में है। प्राणमय चैतन्य सृष्टि में अहंभाव, संकल्प और प्रेरणा की गतिविधियाँ विविध रूपों में दिखलाई पड़ती हैं। भूतमय जड़ सृष्टि में शक्ति, हलचल और सत्ता इन आधारों के द्वारा विविध प्रकार के रंग- रूप, आकार- प्रकार बनते- बिगड़ते रहते हैं। जड़ सृष्टि का आधार परमाणु और चैतन्य सृष्टि का आधार संकल्प है। दोनों ही आधार अत्यन्त सूक्ष्म और अत्यन्त बलशाली हैं। इनका नाश नहीं होता, केवल रूपान्तर होता रहता है। जड़- चेतन सृष्टि के निर्माण में ब्रह्माजी की दो शक्तियाँ काम कर रही हैं—(१) संकल्प शक्ति (२) परमाणु शक्ति। इन दोनों में प्रथम संकल्प शक्ति की आवश्यकता हुई, क्योंकि बिना उसके चैतन्य का आविर्भाव नहीं होता और बिना चैतन्य के परमाणु का उपयोग किसलिए होता? अचैतन्य सृष्टि तो अपने में अचैतन्य थी, क्योंकि न तो उसको किसी का ज्ञान होता और न उसका कोई उपयोग होता है। ‘चैतन्य’ के प्रकटीकरण की सुविधा के लिए उसकी साधन- सामग्री के रूप में ‘जड़’ का उपयोग होता है। अस्तु, आरम्भ में ब्रह्माजी ने चैतन्य बनाया, ज्ञान के संकल्प का आविष्कार किया, पौराणिक भाषा में यह कहिए कि सर्वप्रथम वेदों का प्राकट्य हुआ।

पुराणों में वर्णन मिलता है कि ब्रह्मा के शरीर से एक सर्वांग सुन्दर तरुणी उत्पन्न हुई, यह उनके अगं से उत्पन्न होने के कारण उनकी पुत्री हुई। इसी तरुणी की सहायता से उन्होंने अपना सृष्टि निर्माण कार्य जारी रखा। इसके पश्चात् उस अकेली रूपवती युवती को देखकर उनका मन विचलित हो गया और उन्होंने उससे पत्नी के रूप में रमण किया। इस मैथुन से मैथुनी संयोजक परमाणुमय पंचभौतिक सृष्टि उत्पन्न हुई। इस कथा के आलंकारिक रूप को, रहस्यमय पहेली को न समझकर कई व्यक्ति अपने मन में प्राचीन तत्त्वों को उथली और अश्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। वे भूल जाते हैं कि ब्रह्मा कोई मनुष्य नहीं है और न ही उनसे उत्पन्न हुई शक्ति पुत्री या स्त्री है और न पुरुष- स्त्री की तरह उनके बीच में समागम होता है। इस सृष्टि निर्माण काल के एक तथ्य को गूढ़ पहेली के रूप में आलंकारिक ढंग से प्रस्तुत करके रचनाकार ने अपनी कलाकारिता का परिचय दिया है।

ब्रह्मा निर्विकार परमात्मा की शक्ति है, जो सृष्टि का निर्माण करती है। इस निर्माण कार्य को चालू करने के लिए उसकी दो भुजाएँ हैं, जिन्हें संकल्प और परमाणु शक्ति कहते हैं। संकल्प शक्ति चेतन सत्- संभव होने से ब्रह्मा की पुत्री है। परमाणु शक्ति स्थूल क्रियाशील एवं तम- संभव होने से ब्रह्मा की पत्नी है। इस प्रकार गायत्री और सावित्री ब्रह्मा की पुत्री तथा पत्नी नाम से प्रसिद्ध हुईं।

पिछले पृष्ठों पर बतलाया जा चुका है कि एक अव्यय, निर्विकार, अजर- अमर परमात्मा की ‘एक से अधिक हो जाने की’ इच्छा हुई। ब्रह्म में स्फुरण हुआ कि ‘एकोऽहं बहुस्याम् मैं अकेला हूँ, बहुत हो जाऊँ। उसकी यह इच्छा ही शक्ति बन गयी। इस अच्छा, स्फुरणा या शक्ति को ही ब्रह्म- पत्नी कहते हैं। इस प्रकार ब्रह्म एक से दो हो गया। अब उसे लक्ष्मी- नारायण, सीता- राम, राधे- श्याम, उमा- महेश, शक्ति- शिव, माया- ब्रह्म, प्रकृति- परमेश्वर आदि नामों से पुकारने लगे।

इस शक्ति के द्वारा अनेक पदार्थों तथा प्राणियों का निर्माण होना था, इसलिए उसे भी तीन भागों में अपने को विभाजित कर देना पड़ा, ताकि अनेक प्रकार के सम्मिश्रण तैयार हो सकें और विविध गुण, कर्म, स्वभाव वाले जड़, चेतन पदार्थ बन सकें। ब्रह्मशक्ति के ये तीन टुकड़े- (१) सत् (२) रज (३) तम- इन तीन नामों से पुकारे जाते हैं। सत् का अर्थ है- ईश्वर का दिव्य तत्त्व। तम का अर्थ है- निर्जीव पदार्थों में परमाणुओं का अस्तित्व। रज का अर्थ है- जड़ पदार्थों और ईश्वरीय दिव्य तत्त्व के सम्मिश्रण से उत्पन्न हुई आनन्द दायक चैतन्यता। ये तीन तत्त्व स्थूल सृष्टि के मूल कारण हैं। इनके उपरान्त स्थूल उपादान के रूप में मिट्टी, पानी, हवा, अग्रि, आकाश- ये पाँच स्थूल तत्त्व और उत्पन्न होते हैं। इन तत्त्वों के परमाणुओं तथा उनकी शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तन्मात्राओं द्वारा सृष्टि का सारा कार्य चलता है। प्रकृति के दो भाग हैं—सूक्ष्म प्रकृति, जो शक्ति प्रवाह के रूप में, प्राण संचार के रूप में कार्य करती है, वह सत्, रज, तममयी है। स्थूल प्रकृति, जिससे दृश्य पदार्थों का निर्माण एवं उपयोग होता है, परमाणुमयी है। यह मिट्टी, पानी, हवा आदि स्थूल पंचतत्त्वों के आधार पर अपनी गतिविधि जारी रखती है।

उपर्युक्त पंक्तियों के पाठक समझ गए होंगे कि पहले एक ब्रह्म था, उसकी स्फुरणा से आदिशक्ति का आविर्भाव हुआ। इस आदिशक्ति का नाम ही गायत्री है। जैसे ब्रह्म ने अपने तीन भाग कर लिए- (१) सत्- जिसे ह्रीं या सरस्वती कहते हैं, (२) रज- जिसे ‘श्रीं’ या लक्ष्मी कहते हैं, (३) तम- जिसे ‘क्लीं’ या काली कहते हैं। वस्तुत: ‘सत्’ और ‘तम’ दो ही विभाग हुए थे; इन दोनों के मिलने से जो धारा उत्पन्न हुई, वह रज कहलाती है। जैसे गंगा, यमुना जहाँ मिलती हैं, वहाँ उनकी मिश्रित धारा को सरस्वती कहते हैं। सरस्वती वैसे कोई पृथक् नदी नहीं है। जैसे इन दो नदियों के मिलने से सरस्वती हुई, वैसे ही सत् और तम के योग से रज उत्पन्न हुआ और यह त्रिधा प्रकृति कहलाई।

अद्वैतवाद, द्वैतवाद, त्रैतवाद का बहुत झगड़ा सुना जाता है, वस्तुतः: यह समझने का अन्तर मात्र है। ब्रह्म, जीव, प्रकृति यह तीनों ही अस्तित्व में हैं। पहले एक ब्रह्म था, यह ठीक है, इसलिए अद्वैतवाद भी ठीक है। पीछे ब्रह्म और शक्ति (प्रकृति) दो हो गए, इसलिए द्वैतवाद भी ठीक है। प्रकृति और परमेश्वर के संस्पर्श से जो रसानुभूति और चैतन्यता मिश्रित रज सत्ता उत्पन्न हुई, वह जीव कहलाई। इस प्रकार त्रैतवाद भी ठीक है। मुक्ति होने पर जीव सत्ता नष्ट हो जाती है। इससे भी स्पष्ट है कि जीवधारी की जो वर्तमान सत्ता मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के ऊपर आधारित है, वह एक मिश्रण मात्र है।

तत्त्वदर्शन के गम्भीर विषय में प्रवेश करके आत्मा के सूक्ष्म विषयों पर प्रकाश डालने का यहाँ अवसर नहीं है। इन पंक्तियों में तो स्थूल और सूक्ष्म प्रकृति का भेद बताया था, क्योंकि विज्ञान के दो भाग यहीं से होते हैं, मनुष्य की द्विधा प्रकृति यहीं से बनती है। पंचतत्त्वों द्वारा काम करने वाली स्थूल प्रकृति का अन्वेषण करने वाले मनुष्य भौतिक विज्ञानी कहलाते हैं। उन्होंने अपने बुद्धि बल से पंचतत्त्वों के भेद- उपभेदों को जानकर उनसे अनेक लाभदायक साधन प्राप्त किये। रसायन, कृषि, विद्युत्, वाष्प, शिल्प, संगीत, भाषा, साहित्य, वाहन, गृह निर्माण, चिकित्सा, शासन, खगोल विद्या, अस्त्र- शस्त्र, दर्शन, भू- परिशोध आदि अनेक प्रकार के सुख- साधन खोज निकाले और रेल, मोटर, तार, डाक, रेडियो, टेलीविजन, फोटो आदि विविध वस्तुएँ बनाने के बड़े- बड़े यन्त्र निर्माण किए। धन, सुख- सुविधा और आराम के साधन सुलभ हुए। इस मार्ग से जो लाभ मिलता है, उसे शास्त्रीय भाषा में ‘प्रेय’ या ‘भोग’ कहते हैं। यह विज्ञान भौतिक विज्ञान कहलाता है। यह स्थूल प्रकृति के उपयोग की विद्या है।

सूक्ष्म प्रकृति वह है जो आद्यशक्ति गायत्री से उत्पन्न होकर सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा में बँटती है। यह सर्वव्यापिनी शक्ति- निर्झरिणी पंचतत्त्वों से कहीं अधिक सूक्ष्म है। जैसे नदियों के प्रवाह में, जल की लहरों पर वायु के आघात होने के कारण ‘कल- कल’ से मिलती- जुलती ध्वनियाँ उठा करती हैं, वैसे ही सूक्ष्म प्रकृति की शक्ति- धाराओं से तीन प्रकार की शब्द- ध्वनियाँ उठती हैं। सत् प्रवाह में ह्रीं, रज प्रवाह में ‘श्रीं’ और तम प्रवाह में ‘क्लीं’ शब्द से मिलती- जुलती ध्वनि उत्पन्न होती है। उससे भी सूक्ष्म ब्रह्म का ऊँकार ध्वनि- प्रवाह है। नादयोग की साधना करने वाले ध्यानमग्न होकर इन ध्वनियों को पकड़ते हैं और उनका सहारा पकड़ते हुए सूक्ष्म प्रकृति को भी पार करते हुए ब्रह्मसायुज्य तक जा पहुँचते हैं। यह योग साधना पथ आपको आगे पढ़ने को मिलेगा।

प्राचीन काल में हमारे पूजनीय पूर्वजों ने, ऋषियों ने अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से विज्ञान के इस सूक्ष्म तत्त्व को पकड़ा था, उसी की शोध और सफलता में अपनी शक्तियों को लगाया था। फलस्वरूप वे वर्तमान काल के यशस्वी भौतिक विज्ञान की अपेक्षा अनेक गुने लाभों से लाभान्वित होने में समर्थ हुए थे। वे आद्यशक्ति के सूक्ष्म शक्ति प्रवाहों पर अपना अधिकार स्थापित करते थे। यह प्रकट तथ्य है कि मनुष्य के शरीर में अनेक प्रकार की शक्तियों का आविर्भाव होता है। हमारे ऋषिगण योग- साधना के द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में छिपे पड़े हुए शक्ति- केन्द्रों को, चक्रों को, ग्रन्थियों को, मातृकाओं को, ज्योतियों को, भ्रमरों को जगाते थे और उस जागरण से जो शक्ति प्रवाह उत्पन्न होता था, उसे आद्यशक्ति के त्रिविध प्रवाहों में से जिसके साथ आवश्यकता होती थी, उससे सम्बन्धित कर देते थे। जैसे रेडियो का स्टेशन के ट्रान्समीटर यन्त्र से सम्बन्ध स्थापित कर दिया जाता है, तो दोनों की विद्युत् शक्तियाँ सम श्रेणी में होने के कारण आपस में सम्बन्धित हो जाती हैं तथा उन स्टेशनों के बीच आपसी वार्तालाप का, सम्वादों के आदान- प्रदान का सिलसिला चल पड़ता है; इसी प्रकार साधना द्वारा शरीर के अन्तर्गत छिपे हुए और तन्द्रित पड़े हुए केन्द्रों का जागरण करके सूक्ष्म प्रकृति के शक्ति प्रवाहों से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, तो मनुष्य और आद्यशक्ति आपस में सम्बन्धित हो जाते हैं। इस सम्बन्ध के कारण मनुष्य उस आद्यशक्ति के गर्भ में भरे हुए रहस्यों को समझने लगता है और अपनी इच्छानुसार उनका उपयोग करके लाभान्वित हो सकता है। चूँकि संसार में जो भी कुछ है, वह सब आद्यशक्ति के भीतर है, इसलिए वह सम्बन्धित व्यक्ति भी संसार के सब पदार्थों और साधनों से अपना सम्बन्ध स्थापित कर सकता है।

वर्तमान काल के वैज्ञानिक पंचतत्त्वों की सीमा तक सीमित, स्थूल प्रकृति के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए बड़ी- बड़ी कीमती मशीनों को विद्युत्, वाष्प, गैस, पेट्रोल आदि का प्रयोग करके कुछ आविष्कार करते हैं और थोड़ा- सा लाभ उठाते हैं। यह तरीका बड़ा श्रम- साध्य, कष्ट- साध्य, धन- साध्य और समय- साध्य है। उसमें खराबी, टूट- फूट और परिवर्तन की खटपट भी आये दिन लगी रहती है। उन यन्त्रों की स्थापना, सुरक्षा और निर्माण के लिए हर समय काम जारी रखना पड़ता है। उनका स्थान परिवर्तन तो और भी कठिन होता है। ये सब झंझट भारतीय योग विज्ञान के विज्ञानवेत्ताओं के सामने नहीं थे। वे बिना किसी यन्त्र की सहायता के, बिना संचालक, विद्युत्, पेट्रोल आदि के केवल अपने शरीर के शक्ति- केन्द्रों का सम्बन्ध सूक्ष्म प्रकृति से स्थापित करके ऐसे आश्चर्यजनक कार्य कर लेते थे, जिनकी सम्भावना तक को आज के भौतिक विज्ञानी समझने में समर्थ नहीं हो पा रहे हैं।

महाभारत और लंका युद्ध में जो अस्त्र- शस्त्र व्यवहृत हुए थे, उनमें से बहुत थोड़ों का धुँधला रूप अभी सामने आया है। रडार, गैस बम, अणु बम, रोग कीटाणु बम, परमाणु बम, मृत्यु किरण आदि का धुँधला चित्र अभी तैयार हो पाया है। प्राचीनकाल में मोहक शस्त्र, ब्रह्मपाश, नागपाश, वरुणास्त्र, आग्रेय बाण, शत्रु को मारकर तरकस में लौट आने वाले बाण आदि व्यवहृत होते थे; शब्दवेध का प्रचलन था। ऐसे अस्त्र- शस्त्र किन्हीं कीमती मशीनों से नहीं, मन्त्र बल से चलाए जाते थे, जो शत्रु को जहाँ भी वह छिपा हो, ढूँढ़कर उसका संहार करते थे। लंका में बैठा हुआ रावण और अमेरिका में बैठा हुआ अहिरावण आपस में भली प्रकार वार्तालाप करते थे; उन्हें किसी रेडियो या ट्रान्समीटर की जरूरत नहीं थी। विमान बिना पेट्रोल के उड़ते थे।

अष्ट- सिद्धि और नव निधि का योगशास्त्रों में जगह- जगह पर वर्णन है। अग्रि में प्रवेश करना, जल पर चलना, वायु के समान तेज दौडऩा, अदृश्य हो जाना, मनुष्य से पशु- पक्षी और पशु- पक्षी से मनुष्य का शरीर बदल लेना, शरीर को बहुत छोटा या बड़ा, हल्का या भारी बना लेना, शाप से अनिष्ट उत्पन्न कर देना, वरदानों से उत्तम लाभों की प्राप्ति, मृत्यु को रोक लेना, पुत्रेष्टि यज्ञ, भविष्य का ज्ञान, दूसरों के अन्तस् की पहचान, क्षण भर में यथेष्ट धन, ऋतु, नगर, जीव- जन्तुगण, दानव आदि उत्पन्न कर लेना, समस्त ब्रह्माण्ड की हलचलों से परिचित होना, किसी वस्तु का रूपान्तर कर देना, भूख, प्यास, नींद, सर्दी- गर्मी पर विजय, आकाश में उड़ना आदि अनेकों आश्चर्य भरे कार्य केवल मन्त्र बल से, योगशक्ति से, अध्यात्म विज्ञान से होते थे और उन वैज्ञानिक प्रयोजनों के लिए किसी प्रकार की मशीन, पेट्रोल, बिजली आदि की जरूरत न पड़ती थी। यह कार्य शारीरिक विद्युत् और प्रकृति के सूक्ष्म प्रवाह का सम्बन्ध स्थापित कर लेने पर बड़ी आसानी से हो जाते थे। यह भारतीय विज्ञान था, जिसका आधार था- साधना।

साधना द्वारा केवल ‘तम’ तत्त्व से सम्बन्ध रखने वाले उपरोक्त प्रकार के भौतिक चमत्कार ही नहीं होते वरन् ‘रज’ और ‘सत्’ क्षेत्र के लाभ एवं आनन्द भी प्रचुर मात्रा में प्राप्त किए जा सकते हैं। हानि, शोक, वियोग, आपत्ति, रोग, आक्रमण, विरोध, आघात आदि की विपन्न परिस्थितियों में पडक़र जहाँ साधारण मनोभूमि के लोग मृत्यु तुल्य मानसिक कष्ट पाते हैं, वहाँ आत्मशक्तियों के उपयोग की विद्या जानने वाला व्यक्ति विवेक, ज्ञान, वैराग्य, साहस, आशा और ईश्वर विश्वास के आधार पर इन कठिनाइयों को हँसते- हँसते आसानी से काट लेता है और बुरी अथवा साधारण परिस्थितियों में भी अपने आनन्द को बढ़ाने का मार्ग ढूँढ़ निकालता है। वह जीवन को इतनी मस्ती, प्रफुल्लता और मजेदारी के साथ बिताता है, जैसा कि बेचारे करोड़पतियों को भी नसीब नहीं हो सकता। जिसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य आत्मबल के कारण ठीक बना हुआ है, उसे बड़े अमीरों से भी अधिक आनन्दमय जीवन बिताने का सौभाग्य अनायास ही प्राप्त हो जाता है। रज शक्ति का उपयोग जानने का यह लाभ भौतिक विज्ञान द्वारा मिलने वाले लाभों की अपेक्षा कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है।

‘सत्’ तत्त्व के लाभों का वर्णन करना तो लेखनी और वाणी दोनों की ही शक्ति के बाहर है। ईश्वरीय दिव्य तत्त्वों की जब आत्मा में वृद्धि होती है, तो दया, करुणा, प्रेम, मैत्री, त्याग, सन्तोष, शान्ति, सेवा भाव, आत्मीयता, सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, संयम, नम्रता, पवित्रता, श्रमशीलता, धर्मपरायणता आदि सद्गुणों की मात्रा दिन- दिन बड़ी तेजी से बढ़ती जाती है। फलस्वरूप संसार में उसके लिए प्रशंसा, कृतज्ञता, प्रत्युपकार, श्रद्धा, सहायता, सम्मान के भाव बढ़ते हैं और उसे प्रत्युपकार से सन्तुष्ट करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त यह सद्गुण स्वयं इतने मधुर हैं कि जिस हृदय में इनका निवास होता है, वहीं आत्म- सन्तोष की शीतल निर्झरिणी सदा बहती रहती है। ऐसे लोग चाहे जीवित अवस्था में हों, चाहे मृत अवस्था में, उन्हें जीवन- मुक्ति, स्वर्ग, परमानन्द, ब्रह्मानन्द, आत्म- दर्शन, प्रभु- प्राप्ति, ब्रह्म- निर्वाण, तुरीयावस्था, निर्विकल्प समाधि का सुख प्राप्त होता रहता है। यही तो जीवन का लक्ष्य है। इसे पाकर आत्मा परितृप्ति के आनन्द सागर में निमग्न हो जाती है।

आत्मिक, मानसिक और सांसारिक तीनों प्रकार के सुख- साधन आद्यशक्ति गायत्री की सत्, रज, तममयी धाराओं तक पहुँचने वाला साधक सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकता है। सरस्वती, लक्ष्मी और काली की सिद्धियाँ पृथक्- पृथक् प्राप्त की जाती हैं। पाश्चात्य देशों में भौतिक विज्ञानी ‘क्लीं’ तत्त्व की काली शक्ति का अन्वेषण आराधना करने में निमग्न हैं। बुद्धिवादी, धर्म प्रचारक, सुधारवादी, गाँधीवादी, समाजसेवी, व्यापारी, श्रमिक, उद्योगी, समाजवादी, कम्युनिस्ट यह ‘श्रीं’ शक्ति की सुव्यवस्था में, लक्ष्मी के आयोजन में लगे हुए हैं। योगी, ब्रह्मवेत्ता, अध्यात्मवादी, तत्त्वदर्शी, भक्त, दार्शनिक, परमार्थी व्यक्ति ह्रीं तत्त्व की, सरस्वती की आराधना कर रहे हैं। यह तीनों ही वर्ग गायत्री की आद्यशक्ति के एक- एक चरण के उपासक हैं। गायत्री को ‘त्रिपदा’ कहा गया है। उसके तीन चरण हैं। यह त्रिवेणी उपर्युक्त तीनों ही प्रयोजनों को पूरा करने वाली है। माता बालक के सभी काम करती है। आवश्यकतानुसार वह उसके लिए मेहतर का, रसोइये का, कहार का, दाई का, घोड़े का, दाता का, दर्जी का, धोबी का, चौकीदार का काम बजा देती है। वैसे ही जो लोग आत्मशक्ति को आद्यशक्ति के साथ जोडऩे की विद्या को जानते हैं, वे अपने को सुसन्तति सिद्ध करते हैं। वे गायत्री रूपी सर्वशक्तिमयी माता से यथेष्ट लाभ प्राप्त कर लेते हैं।

संसार में दुःखों के तीन कारण हैं—(१) अज्ञान (२) अशक्ति (३) अभाव। इन तीन दुःखों को गायत्री की सूक्ष्म प्रकृति की तीनों धाराओं के सदुपयोग से मिटाया जा सकता है। ह्रीं अज्ञान को, श्रीं अभाव को, क्लीं अशक्ति को दूर करती है। भारतीय सूक्ष्म विद्या- विशेषज्ञों ने सूक्ष्म प्रकृति पर अधिकार करके अभीष्ट आनन्द प्राप्त करने के जिस विज्ञान का आविष्कार किया था, वह सभी दृष्टियों से असाधारण और महान है। उस आविष्कार का नाम है- साधना। साधना से सिद्धि मिलती है। गायत्री साधना अनेक सिद्धियों की जननी है।

पिछले पृष्ठों में लिखा जा चुका है कि गायत्री कोई देवी- देवता, भूत- पलीत आदि नहीं, वरन् ब्रह्म की स्फुरणा से उत्पन्न हुई आद्यशक्ति है, जो संसार के प्रत्येक पदार्थ का मूल कारण है और उसी के द्वारा जड़- चेतन सृष्टि में गति, शक्ति, प्रगति- प्रेरणा एवं परिणति होती है। जैसे घर में रखे हुए रेडियो यन्त्र का सम्बन्ध विश्वव्यापी ईथर तरंगों से स्थापित करके देश- विदेश में होने वाले प्रत्येक ब्राडकास्ट को सरलतापूर्वक सुन सकते हैं, उसी प्रकार आत्मशक्ति का विश्वव्यापी गायत्री शक्ति से सम्बन्ध स्थापित करके सूक्ष्म प्रकृति की सभी हलचलों को जान सकते हैं; और सूक्ष्म शक्ति को इच्छानुसार मोड़ने की कला विदित होने पर सांसारिक, मानसिक और आत्मिक क्षेत्र में प्राप्त हो सकने वाली सभी सम्पत्तियों को प्राप्त कर सकते हैं। जिस मार्ग से यह सब हो सकता है, उसका नाम है- साधना।

गायत्री साधना क्यों? कई व्यक्ति सोचते हैं कि हमारा उद्देश्य ईश्वर प्राप्ति, आत्म- दर्शन और जीवन मुक्ति है। हमें गायत्री के, सूक्ष्म प्रकृति के चक्कर में पडऩे से क्या प्रयोजन है? हमें तो केवल ईश्वर आराधना करनी चाहिए। सोचने वालों को जानना चाहिए कि ब्रह्म सर्वथा निर्विकार, निर्लेप, निरञ्जन, निराकार, गुणातीत है। वह न किसी से प्रेम करता है, न द्वेष। वह केवल द्रष्टा एवं कारण रूप है। उस तक सीधी पहुँच नहीं हो सकती, क्योंकि जीव और ब्रह्म के बीच सूक्ष्म प्रकृति (एनर्जी) का सघन आच्छादन है। इस आच्छादन को पार करने के लिए प्रकृति के साधनों से ही कार्य करना पड़ेगा। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, कल्पना, ध्यान, सूक्ष्म शरीर, षट्चक्र, इष्टदेव की ध्यान प्रतिमा, भक्ति, भावना, उपासना, व्रत, अनुष्ठान, साधना यह सभी तो माया निर्मित ही हैं। इन सभी को छोड़कर ब्रह्म प्राप्ति किस प्रकार होनी सम्भव है? जैसे ऊपर आकाश में पहुँचने के लिए वायुयान की आवश्यकता पड़ती है, वैसे ही ब्रह्म प्राप्ति के लिए भी प्रतिमामूलक आराधना का आश्रय लेना पड़ता है। गायत्री के आचरण में होकर पार जाने पर ही ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। सच तो यह है कि साक्षात्कार का अनुभव गायत्री के गर्भ में ही होता है। इससे ऊपर पहुँचने पर सूक्ष्म इन्द्रियाँ और उनकी अनुभव शक्ति भी लुप्त हो जाती है। इसलिए मुक्ति और ईश्वर प्राप्ति चाहने वाले भी ‘गायत्री मिश्रित ब्रह्म की, राधेश्याम, सीताराम, लक्ष्मीनारायण की ही उपासना करते हैं। निर्विकार ब्रह्म का सायुज्य तो तभी होगा, जब ब्रह्म ‘बहुत से एक होने’ की इच्छा करेगा और सब आत्माओं को समेटकर अपने में धारण कर लेगा। उससे पूर्व सब आत्माओं का सविकार ब्रह्म में ही सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य आदि हो सकता है। इस प्रकार गायत्री मिश्रित सविकार ब्रह्म ही हमारा उपास्य रह जाता है। उसकी प्राप्ति के साधन जो भी होंगे, वे सभी सूक्ष्म प्रकृति गायत्री द्वारा ही होंगे। इसलिए ऐसा सोचना उचित नहीं कि ब्रह्म प्राप्ति के लिए गायत्री अनावश्यक है। वह तो अनिवार्य है। नाम से कोई उपेक्षा या विरोध करे, यह उसकी इच्छा, पर गायत्री तत्त्व से बचकर अन्य मार्ग से जाना असंभव है।

कई व्यक्ति कहते हैं कि हम निष्काम साधना करते हैं। हमें किसी फल की कामना नहीं, फिर सूक्ष्म प्रकृति का आश्रय क्यों लें? ऐसे लोगों को जानना चाहिए कि निष्काम साधना का अर्थ भौतिक लाभ न चाहकर आत्मिक साधना का है। बिना परिणाम सोचे यदि चाहें तो किसी कार्य में प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती; यदि कुछ मिल भी जाय, तो उससे समय एवं शक्ति के अपव्यय के अतिरिक्त और कुछ परिणाम नहीं निकलता। निष्काम कर्म का तात्पर्य दैवी, सतोगुणी, आत्मिक कामनाओं से है। ऐसी कामनाएँ भी गायत्री के प्रथम पाद के ह्रीं तत्त्व में सरस्वती भाग में आती हैं, इसलिए निष्काम भाव की उपासना भी गायत्री क्षेत्र से बाहर नहीं है।

मन्त्र विद्या के वैज्ञानिक जानते हैं कि जीभ से जो शब्द निकलते हैं, उनका उच्चारण कण्ठ, तालु, मूर्धा, ओष्ठ, दन्त, जिह्वमूल आदि मुख के विभिन्न अंगों द्वारा होता है। इस उच्चारण काल में मुख के जिन भागों से ध्वनि निकलती है, उन अंगों के नाड़ी तन्तु शरीर के विभिन्न भागों तक फैलते हैं। इस फैलाव क्षेत्र में कई ग्रन्थियाँ होती हैं, जिन पर उन उच्चारणों का दबाव पड़ता है। जिन लोगों की सूक्ष्म ग्रन्थियाँ रोगी या नष्ट हो जाती हैं, उनके मुख से कुछ खास शब्द अशुद्ध या रुक- रुककर निकलते हैं, इसी को हकलाना या तुतलाना कहते हैं। शरीर में अनेक छोटी- बड़ी, दृश्य- अदृश्य ग्रन्थियाँ होती हैं। योगी लोग जानते हैं कि उन कोशों में कोई विशेष शक्ति- भण्डार छिपा रहता है। सुषुम्ना से सम्बद्ध षट्चक्र प्रसिद्ध हैं, ऐसी अगणित ग्रन्थियाँ शरीर में हैं। विविध शब्दों का उच्चारण इन विविध ग्रन्थियों पर अपना प्रभाव डालता है और इसके प्रभाव से उन ग्रन्थियों का शक्ति- भण्डार जाग्रत् होता है। मन्त्रों का गठन इसी आधार पर हुआ है। गायत्री मन्त्र में २४ अक्षर हैं। इनका सम्बन्ध शरीर में स्थित ऐसी २४ ग्रन्थियों से है, जो जाग्रत् होने पर सद्बुद्धि प्रकाशक शक्तियों को सतेज करती हैं। गायत्री मन्त्र के उच्चारण से सूक्ष्म शरीर का सितार २४ स्थानों से झंकार देता है और उससे एक ऐसी स्वर- लहरी उत्पन्न होती है, जिसका प्रभाव अदृश्य जगत् के महत्त्वपूर्ण तत्त्वों पर पड़ता है। यह प्रभाव ही गायत्री साधना के फलों का प्रभाव- हेतु है।

शब्द की शक्ति :— शब्दों का ध्वनि प्रवाह तुच्छ चीज नहीं है। शब्द- विद्या के आचार्य जानते हैं कि शब्द में कितनी शक्ति है और उसकी अज्ञात गतिविधि के द्वारा क्या- क्या परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं। शब्द को ब्रह्म कहा गया है। ब्रह्म की स्फुरणा कम्पन उत्पन्न करती है। वह कम्पन ब्रह्म से टकराकर ऊँ ध्वनियों के रूप में सात बार ध्वनित होता है। जैसे घड़ी का लटकन घण्टा पेण्डुलम झूमता हुआ घड़ी के पुर्जों में चाल पैदा करता रहता है, इसी प्रकार वह ऊँकार ध्वनि प्रवाह सृष्टि को चलाने वाली गति पैदा करता है। आगे चलकर उस प्रवाह में ह्रीं, श्रीं, क्लीं की तीन प्रधान सत्, रज, तममयी धाराएँ बहती हैं। तदुपरान्त उसकी और भी शाखा- प्रशाखाएँ हो जाती हैं, जो बीज मन्त्र के नाम से पुकारी जाती हैं। ये ध्वनियाँ अपने- अपने क्षेत्र में सृष्टि कार्य का संचालन करती हैं। इस प्रकार सृष्टि का संचालन कार्य शब्द तत्त्व द्वारा होता है। ऐसे तत्त्व को तुच्छ नहीं कहा जा सकता। गायत्री की शब्दावली ऐसे चुने हुए शृंखलाबद्ध शब्दों से बनाई गई है, जो क्रम और गुम्फन की विशेषता के कारण अपने ढंग का एक अद्भुत ही शक्ति प्रवाह उत्पन्न करती है।

दीपक राग गाने से बुझे हुए दीपक जल उठते हैं। मेघमल्हार गाने से वर्षा होने लगती है। वेणुनाद सुनकर सर्प लहराने लगते हैं, मृग सुध- बुध भूल जाते हैं, गायें अधिक दूध देने लगती हैं। कोयल की बोली सुनकर काम भाव जाग्रत् हो जाता है। सैनिकों के कदम मिलाकर चलने की शब्द- ध्वनि से लोहे के पुल तक गिर सकते हैं, इसलिए पुलों को पार करते समय सेना को कदम न मिलाकर चलने की हिदायत कर दी जाती है। अमेरिका के डॉक्टर हचिंसन ने विविध संगीत ध्वनियों से अनेक असाध्य और कष्टसाध्य रोगियों को अच्छा करने में सफलता और ख्याति प्राप्त की है। भारतवर्ष में तान्त्रिक लोग थाली को घड़े पर रखकर एक विशेष गति से बजाते हैं और उस बाजे से सर्प, बिच्छू आदि जहरीले जानवरों के काटे हुए, कण्ठमाला, विषवेल, भूतोन्माद आदि के रोगी बहुत करके अच्छे हो जाते हैं। कारण यह है कि शब्दों के कम्पन सूक्ष्म प्रकृति से अपनी जाति के अन्य परमाणुओं को लेकर ईथर का परिभ्रमण करते हुए जब अपने उद्गम केन्द्र पर कुछ ही क्षणों में लौट आते हैं, तो उसमें अपने प्रकार की एक विशेष विद्युत् शक्ति भरी होती है और परिस्थिति के अनुसार उपयुक्त क्षेत्र पर उस शक्ति का एक विशिष्ट प्रभाव पड़ता है। मन्त्रों द्वारा विलक्षण कार्य होने का भी यही कारण है।

गायत्री मन्त्र द्वारा भी इसी प्रकार शक्ति का आविर्भाव होता है। मन्त्रोच्चारण में मुख के जो अगं क्रियाशील होते हैं, उन भागों में नाड़ी तन्तु कुछ विशेष ग्रन्थियों को गुदगुदाते हैं। उनमें स्फुरण होने से एक वैदिक छन्द का क्रमबद्ध यौगिक सङ्गीत प्रवाह ईथर तत्त्व में फैलता है और अपनी कुछ क्षणों में होने वाली विश्व परिक्रमा से वापस आते- आते एक स्वजातीय तत्त्वों की सेना साथ ले आता है, जो अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में बड़ी सहायक होती है। शब्द संगीत के शक्तिमान कम्पनों का पंचभौतिक प्रवाह और आत्म- शक्ति की सूक्ष्म प्रकृति की भावना, साधना, आराधना के आधार पर उत्पन्न किया गया सम्बन्ध, यह दोनों कारण गायत्री शक्ति को ऐसा बलवान बनाते हैं, जो साधकों के लिए दैवी वरदान सिद्ध होता है।

गायत्री मन्त्र को और भी अधिक सूक्ष्म बनाने वाला कारण है साधक का ‘श्रद्धामय विश्वास’। विश्वास से सभी मनोवेत्ता परिचित हैं। हम अपनी पुस्तकों और लेखों में ऐसे असंख्य उदाहरण अनेकों बार दे चुके हैं जिनसे सिद्ध होता है कि केवल विश्वास के आधार पर लोग भय की वजह से अकारण काल के मुख में चले गये और विश्वास के कारण मृतप्राय लोगों ने नवजीवन प्राप्त किया। रामायण में तुलसीदास जी ने ‘भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ’ गाते हुए श्रद्धा और विश्वास को भवानी- शंकर की उपमा दी है। झाड़ी को भूत, रस्सी को सर्प, मूर्ति को देवता बना देने की क्षमता विश्वास में है। लोग अपने विश्वासों की रक्षा के लिए धन, आराम तथा प्राणों तक को हँसते- हँसते गँवा देते हैं। एकलव्य, कबीर आदि ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिससे प्रकट है कि गुरु द्वारा नहीं, केवल अपनी श्रद्धा के आधार पर गुरु द्वारा प्राप्त होने वाली शिक्षा से भी अधिक विज्ञ बना जा सकता है। हिप्रोटिज्म का आधार रोगी को अपने वचन पर विश्वास कराके उससे मनमाने कार्य करा लेना ही तो है। तान्त्रिक लोग मन्त्र सिद्धि की कठोर साधना द्वारा अपने मन में कितनी अगाध श्रद्धा जमाते हैं। आमतौर पर जिसके मन में उस मन्त्र के प्रति जितनी गहरी श्रद्धा जमी होती है, उस तान्त्रिक का मन्त्र भी उतना काम करता है। जिस मन्त्र से श्रद्धालु तान्त्रिक चमत्कारी काम कर दिखाता है, उस मन्त्र को अश्रद्धालु साधक चाहे सौ बार बके, कुछ लाभ नहीं होता। गायत्री मन्त्र के सम्बन्ध में भी यह तथ्य बहुत हद तक काम करता है। जब साधक श्रद्धा और विश्वासपूर्वक आराधना करता है, तो शब्द विज्ञान और आत्म- सम्बन्ध दोनों की महत्ता से संयुक्त गायत्री का प्रभाव और अधिक बढ़ जाता है और वह एक अद्वितीय शक्ति सिद्ध होती है।

उन स्थलों पर कौन यौगिक ग्रन्थिचक्र हैं, इसका परिचय इस प्रकार है— अक्षर ग्रन्थि का नाम उसमें भरी हुई शक्ति :-

१. तत् तापिनी सफलता २. स सफला पराक्रम ३. वि विश्वा पालन ४. तुर् तुष्टि कल्याण ५. व वरदा योग ६. रे रेवती प्रेम ७. णि सूक्ष्मा धन ८. यं ज्ञाना तेज ९. भर् भर्गा रक्षा १०. गो गोमती बुद्धि ११. दे देविका दमन १२. व वराही निष्ठा १३. स्य सिंहनी धारणा १४. धी ध्याना प्राण १५. म मर्यादा संयम १६. हि स्फुटा तप १७. धि मेधा दूरदर्शिता १८. यो योगमाया जागृति १९. यो योगिनी उत्पादन २०. न: धारिणी सरसता २१. प्र प्रभवा आदर्श २२. चो ऊष्मा साहस २३. द दृश्या विवेक २४. यात् निरञ्जना सेवा

गायत्री उपर्युक्त २४ शक्तियों को साधक में जाग्रत् करती है। यह गुण इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि इनके जागरण के साथ- साथ अनेक प्रकार की सफलताएँ, सिद्धियाँ और सम्पन्नता प्राप्त होना आरम्भ हो जाता है। कई लोग समझते हैं कि यह लाभ अनायास कोई देवी- देवता दे रहा है। कारण यह है कि अपने अन्दर हो रहे सूक्ष्म तत्त्वों की प्रगति और परिणति को देख और समझ नहीं पाते। यदि वे समझ पाएँ कि उनकी साधना से क्या- क्या सूक्ष्म प्रक्रियाएँ हो रही हैं, तो यह समझने में देर न लगेगी कि यह सब कुछ कहीं से अनायास दान नहीं मिल रहा है, वरन् आत्म- विद्या की सुव्यवस्थित वैज्ञानिक प्रक्रिया का ही यह परिणाम है। गायत्री साधना कोई अन्धविश्वास नहीं, एक ठोस वैज्ञानिक कृत्य है और उसके द्वारा लाभ भी सुनिश्चित ही होते हैं। गायत्री कोई स्वतन्त्र देवी- देवता नहीं है। यह तो परब्रह्म परमात्मा का क्रिया भाग है। ब्रह्म निर्विकार है, अचिन्त्य है, बुद्धि से परे है, साक्षी रूप है, परन्तु अपनी क्रियाशील चेतना शक्ति रूप होने के कारण उपासनीय है और उस उपासना का अभीष्ट परिणाम भी प्राप्त होता है। ईश्वर- भक्ति, ईश्वर- उपासना, ब्रह्म- साधना, आत्म- साक्षात्कार, ब्रह्म- दर्शन, प्रभुपरायणता आदि पुरुषवाची शब्दों का जो तात्पर्य और उद्देश्य है, वही ‘गायत्री उपासना’ आदि स्त्री वाची शब्दों का मन्तव्य है।

गायत्री उपासना वस्तुत: ईश्वर उपासना का एक अत्युत्तम सरल और शीघ्र सफल होने वाला मार्ग है। इस मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति एक सुरम्य उद्यान से होते हुए जीवन के चरम लक्ष्य ‘ईश्वर प्राप्ति’ तक पहुँचते हैं। ब्रह्म और गायत्री में केवल शब्दों का अन्तर है, वैसे दोनों ही एक हैं। इस एकता के कुछ प्रमाण नीचे देखिए—

गायत्री छन्दसामहम्। —श्रीमद् भगवद् गीता अ० १०.३५ छन्दों में मैं गायत्री हूँ। भूर्भुव: स्वरिति चैव चतुर्विंशाक्षरा तथा। गायत्री चतुरोवेदा ओंकार: सर्वमेव तु॥ —बृ० यो० याज्ञ० २/६६ भूर्भुव: स्व: यह तीन महाव्याहृतियाँ, चौबीस अक्षर वाली गायत्री तथा चारों वेद निस्सन्देह ओंकार (ब्रह्म) स्वरूप हैं। देवस्य सवितुर्यस्य धियो यो न: प्रचोदयात्। भर्गो वरेण्यं तद्ब्रह्म धीमहीत्यथ उच्यते॥ —विश्वामित्र उस दिव्य तेजस्वी ब्रह्म का हम ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करता है। अथो वदामि गायत्रीं तत्त्वरूपां त्रयीमयीम्। यया प्रकाश्यते ब्रह्म सच्चिदानन्दलक्षणम्॥ —गायत्री तत्त्व० श्लोक १ त्रिवेदमयी (वेदत्रयी) तत्त्व स्वरूपिणी गायत्री को मैं कहता हूँ, जिससे सच्चिदानन्द लक्षण वाला ब्रह्म प्रकाशित होता है अर्थात् ज्ञात होता है। गायत्री वा इदं सर्वम्। —नृसिंहपूर्वतापनीयोप० ४/३ यह समस्त जो कुछ है, गायत्री स्वरूप है। गायत्री परमात्मा। —गायत्रीतत्त्व०

गायत्री (ही) परमात्मा है। ब्रह्म गायत्रीति- ब्रह्म वै गायत्री। —शतपथ ब्राह्मण ८/५/३/७ -ऐतरेय ब्रा० अ० १७ खं० ५ ब्रह्म गायत्री है, गायत्री ही ब्रह्म है। सप्रभं सत्यमानन्दं हृदये मण्डलेऽपि च। ध्यायञ्जपेत्तदित्येतन्निष्कामो मुच्यतेऽचिरात्॥ —विश्वामित्र प्रकाश सहित सत्यानन्द स्वरूप ब्रह्म को हृदय में और सूर्य मण्डल में ध्यान करता हुआ, कामना रहित हो गायत्री मन्त्र को यदि जपे, तो अविलम्ब संसार के आवागमन से छूट जाता है। ओंकारस्तत्परं ब्रह्म सावित्री स्यात्तदक्षरम्। —कूर्म पुराण उ० विभा० अ० १४/५७ ओंकार परब्रह्म स्वरूप है और गायत्री भी अविनाशी ब्रह्म है। गायत्री तु परं तत्त्वं गायत्री परमागति:। —बृहत्पाराशर गायत्री मन्त्र पुरश्चरण वर्णनम् ४/४ गायत्री परम तत्त्व है, गायत्री परम गति है। सर्वात्मा हि सा देवी सर्वभूतेषु संस्थिता। गायत्री मोक्षहेतुश्च मोक्षस्थानमसंशयम्॥ —ऋषि शृंग यह गायत्री देवी समस्त प्राणियों में आत्मा रूप में विद्यमान है, गायत्री मोक्ष का मूल कारण तथा सन्देह रहित मुक्ति का स्थान है। गायत्र्येव परो विष्णुर्गायत्र्येव पर: शिव:। गायत्र्येव परो ब्रह्म गायत्र्येव त्रयी तत:॥ —स्कन्द पुराण काशीखण्ड ४/९/५८, वृहत्सन्ध्या भाष्य गायत्री ही दूसरे विष्णु हैं और शंकर जी दूसरे गायत्री ही हैं। ब्रह्माजी भी गायत्री में परायण हैं, क्योंकि गायत्री तीनों देवों का स्वरूप है।

गायत्री परदेवतेति गदिता ब्रह्मवै चिद्रूपिणी॥ ३॥ —गायत्री पुरश्चरण प० गायत्री परम श्रेष्ठ देवता और चित्त रूपी ब्रह्म है, ऐसा कहा गया है। गायत्री वा इदं सर्वं भूतं यदिदं किंच। —छान्दोग्योपनिषद् ३/१२/१ यह विश्व जो कुछ भी है, वह समस्त गायत्रीमय है। नभिन्नां प्रतिपद्येत गायत्रीं ब्रह्मणा सह। सोऽहमस्मीत्युपासीत विधिना येन केनचित् —व्यास गायत्री और ब्रह्म में भिन्नता नहीं है। अत: चाहे जिस किसी भी प्रकार से ब्रह्म स्वरूपी गायत्री की उपासना करे। गायत्री प्रत्यग्ब्रह्मौक्यबोधिका। —शकंर भाष्य गायत्री प्रत्यक्ष अद्वैत ब्रह्म की बोधिका है।

परब्रह्मस्वरूपा च निर्वाणपददायिनी। ब्रह्मतेजोमयी शक्तिस्तदधिष्ठतृ देवता —— देवी भागवत स्कन्ध ९ अ.१/४२ गायत्री मोक्ष देने वाली, परमात्मस्वरूप और ब्रह्मतेज से युक्त शक्ति है और मन्त्रों की अधिष्ठात्री है। गायत्र्याख्यं ब्रह्म गायत्र्यनुगतं गायत्री मुखेनोक्तम्॥ —छान्दोग्य० शकंर भाष्य ३/१२/१५ गायत्री स्वरूप एवं गायत्री से प्रकाशित होने वाला ब्रह्म गायत्री नाम से वर्णित है। प्रणवव्याहृतिभ्याञ्च गायत्र्या त्रितयेन च। उपास्यं परमं ब्रह्म आत्मा यत्र प्रतिष्ठित —— तारानाथ कृ० गाय० व्या० पृ० २५ प्रणव, व्याहृति और गायत्री इन तीनों से परम ब्रह्म की उपासना करनी चाहिए, उस ब्रह्म में आत्मा स्थित है।

ते वा एते पचं ब्रह्मपुरुषा: स्वर्गस्य लोकस्य द्वारपा: स य एतानेवं पचं ब्रह्मपुरुषान् स्वर्गस्य लोकस्य द्वारपान् वेदास्य कुले वीरो जायते प्रतिपद्यते स्वर्गलोकम्। —— छा० ३/१३/६

हृदय चैतन्य ज्योति गायत्री रूप ब्रह्म के प्राप्ति स्थान के प्राण, व्यान, अपान, समान, उदान ये पाँच द्वारपाल हैं। इन्हीं को वश में करे, जिससे हृदयस्थित गायत्री स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति हो। उपासना करने वाला स्वर्गलोक को प्राप्त होता है और उसके कुल में वीर पुत्र या शिष्य उत्पन्न होता है। भूमिरन्तरिक्षं द्यौरित्यष्टवक्षराण्यष्टक्षरं ह वा एकं गायत्र्यै पदमेतदु हैवास्या एतत्स यावदेषु त्रिषु लोकेषु तावद्ध जयति योऽस्या एतदेवं पदं वेद। —बृह० ५/१४/१ भूमि, अन्तरिक्ष, द्यौ- ये तीनों गायत्री के प्रथम पाद के आठ अक्षरों के बराबर हैं। अत: जो गायत्री के प्रथम पद को भी जान लेता है, वह त्रिलोक विजयी होता है।

स वै नैव रेमे, तस्मादेकाकी न रमते, सद्वितीयमैच्छत्। सहैतावानास। यथा स्त्रीपुमान्सौ संपरिष्वक्तौ स। इममेवात्मानं द्वेधा पातयत्तत: पतिश्च पत्नी चाभवताम्। —बृह० १/४/३

वह ब्रह्म रमण न कर सका, क्योंकि अकेला था। अकेला कोई भी रमण नहीं कर सकता। उसका स्वरूप संयुक्त स्त्री- पुरुष की भाँति था। उसने दूसरे की इच्छा की तथा अपने संयुक्त रूप को द्विधा विभक्त किया, तब दोनों रूप पत्नी और पति भाव को प्राप्त हुए। निर्गुण: परमात्मा तु त्वदाश्रयतया स्थित:। तस्य भट्टरिकासि त्वं भुवनेश्वरि! भोगदा॥ —शक्ति दर्शन परमात्मा निर्गुण है और तेरे ही आश्रित ठहरा हुआ है। तू ही उसकी साम्राज्ञी और भोगदा है। शक्तिश्च शक्तिमद्रूपाद् व्यतिरेकं न वाञ्छति। तादात्म्यमनयोर्नित्यं वह्निदाहिकयोरिव॥ — शक्ति दर्शन

शक्ति, शक्तिमान से कभी पृथक् नहीं रहती। इन दोनों का नित्य सम्बन्ध है। जैसे अग्रि और दाहक शक्ति का नित्य परस्पर सम्बन्ध है, उसी प्रकार शक्तिमान् का भी है।

सदैकत्वं न भेदोऽस्ति सर्वदैव ममास्य च। योऽसौ साहमहं योऽसौ भेदोऽस्ति मतिविभ्रमात्॥ —देवी भागवत पु० ३/६/२ शक्ति का और उस शक्तिमान् पुरुष का सदा सम्बन्ध है, कभी भेद नहीं है। जो वह है, सो मैं हूँ और जो मैं हूँ, सो वह है। यदि भेद है, तो केवल बुद्धि का भ्रम है।

जगन्माता च प्रकृति: पुरुषश्च जगत्पिता। गरीयसी त्रिजगतां माता शतगुणै: पितु:॥ — ब्र० वै० पु० कृ० ज० अ० ५२/३४ संसार की जन्मदात्री प्रकृति है और जगत् का पालनकर्ता या रक्षा करने वाला पुरुष है। जगत् में पिता से माता सौ गुनी अधिक श्रेष्ठ है। इन प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्म ही गायत्री है और उसकी उपासना ब्रह्म प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग है।

हिन्दू धर्म में अनेक मान्यताएँ प्रचलित हैं। विविध बातों के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी मतभेद भी हैं, पर गायत्री मन्त्र की महिमा एक ऐसा तत्त्व है जिसे सभी सम्प्रदायों ने, सभी ऋषियों ने एक मत से स्वीकार किया है। अथर्ववेद १९- ७१ में गायत्री की स्तुति की गयी है, जिसमें उसे आयु, प्राण, शक्ति, कीर्ति, धन और ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली कहा गया है। विश्वामित्र का कथन है—‘गायत्री के समान चारों वेदों में मन्त्र नहीं है। सम्पूर्ण वेद, यज्ञ, दान, तप गायत्री मन्त्र की एक कला के समान भी नहीं हैं।’ भगवान् मनु का कथन है—‘ब्रह्मजी ने तीनों वेदों का सार तीन चरण वाला गायत्री मन्त्र निकाला है। गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाला और कोई मन्त्र नहीं है। जो मनुष्य नियमित रूप से तीन वर्ष तक गायत्री जप करता है, वह ईश्वर को प्राप्त करता है। जो द्विज दोनों सन्ध्याओं में गायत्री जपता है, वह वेद पढऩे के फल को प्राप्त करता है। अन्य कोई साधन करे या न करे, केवल गायत्री जप से भी सिद्धि पा सकता है।

नित्य एक हजार जप करने वाला पापों से वैसे ही छूट जाता है, जैसे केंचुली से साँप छूट जाता है। जो द्विज गायत्री की उपासना नहीं करता, वह निन्दा का पात्र है।’ योगिराज याज्ञवल्क्य कहते हैं—‘गायत्री और समस्त वेदों को तराजू में तौला गया। एक ओर षट् अंगों समेत वेद और दूसरी ओर गायत्री, तो गायत्री का पलड़ा भारी रहा। वेदों का सार उपनिषद् हैं, उपनिषदों का सार व्याहृतियों समेत गायत्री है। गायत्री वेदों की जननी है, पापों का नाश करने वाली है, इससे अधिक पवित्र करने वाला अन्य कोई मन्त्र स्वर्ग और पृथ्वी पर नहीं है। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं, केशव से श्रेष्ठ कोई देव नहीं। गायत्री से श्रेष्ठ मन्त्र न हुआ, न आगे होगा। गायत्री जान लेने वाला समस्त विद्याओं का वेत्ता, श्रेष्ठी और श्रोत्रिय हो जाता है। जो द्विज गायत्री परायण नहीं, वह वेदों में पारंगत होते हुए भी शूद्र के समान है, अन्यत्र किया हुआ उसका श्रम व्यर्थ है। जो गायत्री नहीं जानता, ऐसा व्यक्ति ब्राह्मणत्व से च्युत और पापयुक्त हो जाता हे पाराशर जी कहते हैं—‘समस्त जप सूक्तों तथा वेद मन्त्रों में गायत्री मन्त्र परम श्रेष्ठ है। वेद और गायत्री की तुलना में गायत्री का पलड़ा भारी है। भक्तिपूर्वक गायत्री का जप करने वाला मुक्त होकर पवित्र बन जाता है। वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास पढ़ लेने पर भी जो गायत्री से हीन है, उसे ब्राह्मण नहीं समझना चाहिए।’ शङ्ख ऋषि का मत है—‘नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़ कर बचाने वाली गायत्री ही है। उससे उत्तम वस्तु स्वर्ग और पृथ्वी पर कोई नहीं है। गायत्री का ज्ञाता नि:सन्देह स्वर्ग को प्राप्त करता है।’ शौनक ऋषि का मत है—‘अन्य उपासनाएँ करें चाहे न करें, केवल गायत्री जप से ही द्विज जीवन मुक्त हो जाता है। सांसारिक और पारलौकिक समस्त सुखों को पाता है। संकट के समय दस हजार जप करने से विपत्ति का निवारण होता है।’ अत्रि मुनि कहते हैं—

‘गायत्री आत्मा का परम शोधन करने वाली है। उसके प्रताप से कठिन दोष और दुर्गुणों का परिमार्जन हो जाता है। जो मनुष्य गायत्री तत्त्व को भली प्रकार समझ लेता है, उसके लिए इस संसार में कोई सुख शेष नहीं रह जाता।’ महर्षि व्यास जी कहते हैं—

‘जिस प्रकार पुष्प का सार शहद, दूध का सार घृत है, उसी प्रकार समस्त वेदों का सार गायत्री है। सिद्ध की हुई गायत्री कामधेनु के समान है। गंगा शरीर के पापों को निर्मल करती है, गायत्री रूपी ब्रह्म- गंगा से आत्मा पवित्र होती है। जो गायत्री को छोडक़र अन्य उपासनाएँ करता है, वह पकवान छोडक़र भिक्षा माँगने वाले के समान मूर्ख है। काम्य सफलता तथा तप की वृद्धि के लिए गायत्री से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है।’ भारद्वाज ऋषि कहते हैं—

‘ब्रह्म आदि देवता भी गायत्री का जप करते हैं। वह ब्रह्म साक्षात्कार कराने वाली है। अनुचित काम करने वालों के दुर्गुण गायत्री के कारण छूट जाते हैं। गायत्री से रहित व्यक्ति शूद्र से भी अपवित्र है।’ चरक ऋषि कहते हैं—‘जो ब्रह्मचर्यपूर्वक गायत्री की उपासना करता है और आँवले के ताजे फलों का सेवन करता है, वह दीर्घजीवी होता है।’ नारदजी की उक्ति है—‘गायत्री भक्ति का ही स्वरूप है। जहाँ भक्ति रूपी गायत्री है, वहाँ श्रीनारायण का निवास होने में कोई सन्देह नहीं करना चाहिए।’ वशिष्ठ जी का मत है—‘मन्दमति, कुमार्गगामी और अस्थिर मति भी गायत्री के प्रभाव से उच्च पद को प्राप्त करते हैं, फिर सद्गति होना निश्चित है। जो पवित्रता और स्थिरतापूर्वक गायत्री की उपासना करते हैं, वे आत्मलाभ प्राप्त करते हैं।’ उपर्युक्त अभिमतों से मिलते- जुलते अभिमत प्राय: सभी ऋषियों के हैं। इससे स्पष्ट है कि कोई ऋषि अन्य विषयों में चाहे अपना मतभेद रखते हों, पर गायत्री के बारे में उन सबमें समान श्रद्धा थी और वे सभी अपनी उपासना में उसका प्रथम स्थान रखते थे। शास्त्रों में, धर्मग्रन्थों में, स्मृतियों में, पुराणों में गायत्री की महिमा तथा साधना पर प्रकाश डालने वाले सहस्रों श्लोक भरे पड़े हैं। इन सबका संग्रह किया जाए, तो एक बड़ा भारी गायत्री पुराण बन सकता है। वर्तमान शताब्दी के आध्यात्मिक तथा दार्शनिक महापुरुषों ने भी गायत्री के महत्त्व को उसी प्रकार स्वीकार किया है जैसा कि प्राचीन काल के तत्त्वदर्शी ऋषियों ने किया था।

आज का युग बुद्धि और तर्क का, प्रत्यक्षवाद का युग है। इस शताब्दी के प्रभावशाली गणमान्य व्यक्तियों की विचारधारा केवल धर्मग्रन्थ या परम्पराओं पर आधारित नहीं रही है। उन्होंने बुद्धिवाद, तर्कवाद और प्रत्यक्षवाद को अपने सभी कार्यों में प्रधान स्थान दिया है। ऐसे महापुरुषों को भी गायत्री तत्त्व सब दृष्टिकोणों से परखने पर खरा सोना प्रतीत हुआ है। नीचे उनमें से कुछ के विचार देखिए— महात्मा गाँधी कहते हैं

‘गायत्री मन्त्र का निरन्तर जप रोगियों को अच्छा करने और आत्मा की उन्नति के लिए उपयोगी है। गायत्री का स्थिर चित्त और शान्त हृदय से किया हुआ जप आपत्तिकाल में संकटों को दूर करने का प्रभाव रखता है।’ लोकमान्य तिलक कहते हैं—‘जिस बहुमुखी दासता के बन्धन में भारतीय प्रजा जकड़ी हुई है, उसके लिए आत्मा के अन्दर प्रकाश उत्पन्न होना चाहिए, जिससे सत् और असत् का विवेक हो, कुमार्ग को छोडक़र श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले; गायत्री मन्त्र में यही भावना विद्यमान है।’ महामना मदनमोहन मालवीयजी ने कहा है—‘ऋषियों ने जो अमूल्य रत्न हमें दिए हैं, उनमें से एक अनुपम रत्न गायत्री है। गायत्री से बुद्धि पवित्र होती है, ईश्वर का प्रकाश आत्मा में आता है। इस प्रकाश से असंख्य आत्माओं को भव- बन्धन से त्राण मिला है। गायत्री में ईश्वरपरायणता के भाव उत्पन्न करने की शक्ति है। साथ ही वह भौतिक अभावों को दूर करती है। गायत्री की उपासना ब्राह्मणों के लिए तो अत्यन्त आवश्यक है। जो ब्राह्मण गायत्री जप नहीं करता, वह अपने कर्तव्य धर्म को छोड़ने का अपराधी होता है।’ कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर कहते हैं

‘भारत वर्ष को जगाने वाला जो मन्त्र है, वह इतना सरल है कि एक ही श्वास में उसका उच्चारण किया जा सकता है। वह है- गायत्री मन्त्र। इस पुनीत मन्त्र का अभ्यास करने में किसी प्रकार के तार्किक ऊहापोह, किसी प्रकार के मतभेद अथवा किसी प्रकार के बखेड़े की गुंजायश नहीं है।’ योगी अरविन्द ने कई जगह गायत्री का जप करने का निर्देश किया है। उन्होंने बताया कि गायत्री में ऐसी शक्ति सन्निहित है, जो महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकती है। उन्होंने कइयों को साधना के तौर पर गायत्री का जप बताया है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस का उपदेश है—‘मैं लोगों से कहता हूँ कि लम्बी साधना करने की उतनी आवश्यकता नहीं है। इस छोटी- सी गायत्री की साधना करके देखो। गायत्री का जप करने से बड़ी- बड़ी सिद्धियाँ मिल जाती हैं। यह मन्त्र छोटा है, पर इसकी शक्ति बड़ी भारी है।’ स्वामी विवेकानन्द का कथन है—‘राजा से वही वस्तु माँगी जानी चाहिए, जो उसके गौरव के अनुकूल हो। परमात्मा से माँगने योग्य वस्तु सद्बुद्धि है। जिस पर परमात्मा प्रसन्न होते हैं, उसे सद्बुद्धि प्रदान करते हैं। सद्बुद्धि से सत् मार्ग पर प्रगति होती है और सत्कर्मों से सब प्रकार के सुख मिलते हैं। जो सत् की ओर बढ़ रहा है, उसे किसी प्रकार के सुख की कमी नहीं रहती। गायत्री सद्बुद्धि का मन्त्र है, इसलिए उसे मन्त्र का मुकुटमणि कहा है।’ जगद्गुरु शंकराचार्य का कथन है—‘गायत्री की महिमा का वर्णन करना मनुष्य की सामर्थ्य के बाहर है। सद्बुद्धि का होना इतना बड़ा कार्य है, जिसकी समता संसार के और किसी काम से नहीं हो सकती। आत्म- प्राप्ति करने की दिव्य दृष्टि जिस बुद्धि से प्राप्त होती है, उसकी प्रेरणा गायत्री द्वारा होती है। गायत्री आदि मन्त्र है। उसका अवतार दुरितों को नष्ट करने और ऋत के अभिवर्धन के लिए हुआ है।’ स्वामी रामतीर्थ ने कहा है—‘राम को प्राप्त करना सबसे बड़ा काम है। गायत्री का अभिप्राय बुद्धि को काम- रुचि से हटाकर राम- रुचि में लगा देना है। जिसकी बुद्धि पवित्र होगी,

वही राम को प्राप्त कर सकेगा। गायत्री पुकारती है कि बुद्धि में इतनी पवित्रता होनी चाहिए कि वह राम को काम से बढक़र समझे।’ महर्षि रमण का उपदेश है—‘योग विद्या के अन्तर्गत मन्त्रविद्या बड़ी प्रबल है। मन्त्रों की शक्ति से अद् भुत सफलताएँ मिलती हैं। गायत्री ऐसा मन्त्र है जिससे आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के लाभ मिलते हैं।’ स्वामी शिवानन्दजी कहते ब्रह्ममुहूर्त में गायत्री का जप करने से चित्त शुद्ध होता है, हृदय में निर्मलता आती है, शरीर नीरोग रहता है, स्वभाव में नम्रता आती है, बुद्धि सूक्ष्म होने से दूरदर्शिता बढ़ती है और स्मरण शक्ति का विकास होता है। कठिन प्रसंगों में गायत्री द्वारा दिव्य सहायता मिलती है। उसके द्वारा आत्मदर्शन भी हो सकता है।’ काली कमली वाले बाबा विशुद्धानन्द जी कहते थे—‘गायत्री ने बहुतों को सुमार्ग पर लगाया है। कुमार्गगामी मनुष्य की पहले तो गायत्री की ओर रुचि ही नहीं होती, यदि ईश्वर कृपा से हो जाए, तो फिर वह कुमार्गगामी नहीं रहता। गायत्री जिसके हृदय में निवास करती है, उसका मन ईश्वर की ओर जाता है। विषय- विकारों की व्यर्थता उसे भली प्रकार अनुभव होने लगती है। कई महात्मा गायत्री जप करके परम सिद्ध हुए हैं। परमात्मा की शक्ति ही गायत्री है। जो गायत्री के निकट आता है, वह शुद्ध होकर रहता है। 

आत्मकल्याण के लिए मन की शुद्धि आवश्यक है। मन की शुद्धि के लिए गायत्री मन्त्र अद्भुत है। ईश्वर प्राप्ति के लिए गायत्री जप को प्रथम सीढ़ी समझना चाहिए।’ दक्षिण भारत के प्रसिद्ध आत्मज्ञानी टी० सुब्बाराव कहते हैं- सविता नारायण की दैवी प्रकृति को गायत्री कहते हैं। आदिशक्ति होने के कारण इसको गायत्री कहते हैं। गीता में इसका वर्णन आदित्यवर्णं कहकर किया गया है। गायत्री की उपासना करना योग का सबसे प्रथम अंग है। श्री स्वामी करपात्री जी का कथन है—‘जो गायत्री के अधिकारी हैं, उन्हें नित्य- नियमित रूप से जप करना चाहिए। द्विजों के लिए गायत्री का जप अत्यन्त आवश्यक धर्मकृत्य है।’ गीता धर्म के व्याख्याता श्री स्वामी विद्यानन्द कहते हैं—‘गायत्री बुद्धि को पवित्र करती है। बुद्धि की पवित्रता से बढ़कर जीवन में दूसरा लाभ नहीं है, इसलिए गायत्री एक बहुत बड़े लाभ की जननी है।’ सर राधाकृष्णन कहते हैं—‘यदि हम इस सार्वभौमिक प्रार्थना गायत्री पर विचार करें, तो हमें मालूम होगा कि यह वास्तव में कितना ठोस लाभ देती है। गायत्री हम में फिर से जीवन का स्रोत उत्पन्न करने वाली आकुल प्रार्थना है।’

प्रसिद्ध आर्यसमाजी महात्मा सर्वदानन्द का कथन है—‘गायत्री मन्त्र द्वारा प्रभु का पूजन सदा से आर्यों की रीति रही है।’ आर्य समाज के जन्मदाता ऋषि दयानन्द ने भी उसी शैली का अनुसरण करके सन्ध्या का विधान तथा वेदों के स्वाध्याय का प्रयत्न करना बताया है। ऐसा करने से अन्तःकरण की शुद्धि तथा बुद्धि निर्मल होकर मनुष्य का जीवन अपने तथा दूसरों के लिए हितकर हो जाता है। जितना भी इस शुभ कर्म में श्रद्धा और विश्वास हो, उतना ही अविद्या आदि क्लेशों का ह्रास होता है। जो जिज्ञासु गायत्री मन्त्र का प्रेम और नियमपूर्वक उच्चारण करते हैं, उनके लिए यह संसार सागर से तरने की नाव और आत्मप्राप्ति की सडक़ है। स्वामी दयानन्द गायत्री के श्रद्धालु उपासक थे।

ग्वालियर के राजा साहब से स्वामीजी ने कहा कि भागवत सप्ताह की अपेक्षा गायत्री पुरश्चरण अधिक श्रेष्ठ है। जयपुर में सच्चिदानन्द, हीरालाल रावल, घोड़लसिंह आदि को गायत्री जप की विधि सिखलाई थी। मुलतान में उपदेश के समय स्वामी जी ने गायत्री मन्त्र का उच्चारण किया और कहा कि यह मन्त्र सबसे श्रेष्ठ है। चारों वेदों का मूल यही गुरुमन्त्र है। आदिकाल में सभी ऋषि- मुनि इसी का जप किया करते थे। थियोसोफिकल सोसाइटी के एक वरिष्ठ सदस्य प्रो० आर. श्रीनिवास का कथन है—‘हिन्दू धार्मिक विचारधारा में गायत्री को सबसे अधिक शक्तिशाली मन्त्र माना गया है। उसका अर्थ भी बड़ा दूरगामी और गूढ़ है। इस मन्त्र के अनेक अर्थ होते हैं और भिन्न- भिन्न प्रकार की चित्तवृत्ति वाले व्यक्तियों पर इसका प्रभाव भी भिन्न- भिन्न प्रकार का होता है। इसमें दृष्ट और अदृष्ट, उच्च और नीच, मानव और देव सबको किसी रहस्यमय तन्तु द्वारा एकत्रित कर लेने की शक्ति पाई जाती है। 

जब इस मन्त्र का अधिकारी व्यक्ति गायत्री के अर्थ और रहस्य, मन और हृदय को एकाग्र करके उसका शुद्ध उच्चारण करता है, तब उसका सम्बन्ध दृश्य सूर्य में अन्तर्निहित महान् चैतन्य शक्ति से स्थापित हो जाता है। वह मनुष्य कहीं भी मन्त्रोच्चारण करता हो, पर उसके ऊपर तथा आस- पास के वातावरण में विराट् आध्यात्मिक प्रभाव उत्पन्न हो जाता है। यही प्रभाव एक महान् आध्यात्मिक आशीर्वाद है। इन्हीं कारणों से हमारे पूर्वजों ने गायत्री मन्त्र की अनुपम शक्ति के लिए उसकी स्तुतियाँ की हैं।’ इस प्रकार वर्तमान शताब्दी के अनेकों गणमान्य बुद्धिवादी महापुरुषों के अभिमत हमारे पास संगृहीत हैं। उन पर विचार करने से इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि गायत्री उपासना कोई अन्धविश्वास, अन्ध परम्परा नहीं है, वरन् उसके पीछे आत्मोन्नति प्रदान करने वाले ठोस तत्त्वों का बल है। इस महान् शक्ति को अपनाने का जिसने भी प्रयत्न किया है, उसे लाभ मिला है। गायत्री साधना कभी निष्फल नहीं जाती।

समस्त दु:खों के कारण तीन हैं—(१) अज्ञान (२) अशक्ति (३) अभाव। जो इन तीनों कारणों को जिस सीमा तक अपने से दूर करने में समर्थ होगा, वह उतना ही सुखी बन सकेगा।

अज्ञान के कारण मनुष्य का दृष्टिकोण दूषित हो जाता है। वह तत्त्वज्ञान से अपरिचित होने के कारण उलटा- सीधा सोचता है और उलटे काम करता है, तदनुरूप उलझनों में अधिक फँसता जाता है और दुःखी होता है। स्वार्थ, भोग, लोभ, अहंकार, अनुदारता और क्रोध की भावनाएँ मनुष्य को कर्तव्यच्युत करती हैं और वह दूरदर्शिता को छोड़कर क्षणिक, क्षुद्र एवं हीन बातें सोचता है तथा वैसे ही काम करता है। फलस्वरूप उसके विचार और कार्य पापमय होने लगते हैं। पापों का निश्चित परिणाम दुःख है। दूसरी ओर अज्ञान के कारण वह अपने और दूसरे सांसारिक गतिविधियों के मूल हेतुओं को नहीं समझ पाता। फल स्वरूप असम्भव आशाएँ, तृष्णाएँ, कल्पनाएँ किया करता है। इस उलटे दृष्टिकोण के कारण साधारण- सी बातें उसे बड़ी दुःखमय दिखाई देती हैं, जिसके कारण वह रोता- चिल्लाता रहता है। आत्मीयों की मृत्यु, साथियों की भिन्न रुचि, परिस्थितियों का उतार- चढ़ाव स्वाभाविक है, पर अज्ञानी सोचता है कि मैं जो चाहता हूँ, वही सदा होता रहे। प्रतिकूल बात सामने आये ही नहीं। इस असम्भव आशा के विपरीत घटनाएँ जब भी घटित होती हैं, तभी वह रोता- चिल्लाता है। तीसरे अज्ञान के कारण भूलें भी अनेक प्रकार की होती हैं, समीपस्थ सुविधाओं से वञ्चित रहना पड़ता है, यह भी दु:ख का हेतु है। इस प्रकार अनेक दु:ख मनुष्य को अज्ञान के कारण प्राप्त होते हैं।

अशक्ति का अर्थ है- निर्बलता। शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, बौद्धिक, आत्मिक निर्बलता के कारण मनुष्य अपने स्वाभाविक जन्मसिद्ध अधिकारों का भार अपने कन्धों पर उठाने में समर्थ नहीं होता, फल स्वरूप उसे वञ्चित रहना पडऩा है। स्वास्थ्य खराब हो, बीमारी ने घेर रखा हो, तो स्वादिष्ट भोजन, रूपवती तरुणी, मधुर गीत- वाद्य, सुन्दर दृश्य निरर्थक हैं। धन- दौलत का कोई कहने लायक सुख उसे नहीं मिल सकता। बौद्धिक निर्बलता हो तो साहित्य, काव्य, दर्शन, मनन, चिन्तन का रस प्राप्त नहीं हो सकता। आत्मिक निर्बलता हो तो सत्संग, प्रेम, भक्ति आदि का आत्मानन्द दुर्लभ है। इतना ही नहीं, निर्बलों को मिटा डालने के लिए प्रकृति का ‘उत्तम की रक्षा’ सिद्धान्त काम करता है। कमजोर को सताने और मिटाने के लिए अनेकों तथ्य प्रकट हो जाते हैं। निर्दोष, भले और सीधे- सादे तत्त्व भी उसके प्रतिकूल पड़ते हैं। सर्दी, जो बलवानों को बल प्रदान करती है, रसिकों को रस देती है, वह कमजोरों को निमोनिया, गठिया आदि का कारण बन जाती है। जो तत्त्व निर्बलों के लिए प्राणघातक हैं, वे ही बलवानों को सहायक सिद्ध होते हैं। बेचारी निर्बल बकरी को जंगली जानवरों से लेकर जगत् माता भवानी दुर्गा तक चट कर जाती है और सिंह को वन्य पशु ही नहीं, बड़े- बड़े सम्राट तक अपने राज्य चिह्न में धारण करते हैं। अशक्त हमेशा दुःख पाते हैं, उनके लिए भले तत्त्व भी आशाप्रद सिद्ध नहीं होते।

अभावजन्य दु:ख है- पदार्थों का अभाव। अन्न, वस्त्र, जल, मकान, पशु, भूमि, सहायक, मित्र, धन, औषधि, पुस्तक, शस्त्र, शिक्षक आदि के अभाव में विविध प्रकार की पीड़ाएँ, कठिनाइयाँ भुगतनी पड़ती हैं, उचित आवश्यकताओं को कुचलकर मन मानकर बैठना पड़ता है और जीवन के महत्त्वपूर्ण क्षणों को मिट्टी के मोल नष्ट करना पड़ता है। योग्य और समर्थ व्यक्ति भी साधनों के अभाव में अपने को लुजं-पुजं अनुभव करते हैं और दु:ख उठाते हैं।

गायत्री कामधेनु है— पुराणों में उल्लेख है कि सुरलोक में देवताओं के पास कामधेनु गौ है, वह अमृतोपम दूध देती है जिसे पीकर देवता लोग सदा सन्तुष्ट, प्रसन्न तथा सुसम्पन्न रहते हैं। इस गौ में यह विशेषता है कि उसके समीप कोई अपनी कुछ कामना लेकर आता है, तो उसकी इच्छा तुरन्त पूरी हो जाती है। कल्पवृक्ष के समान कामधेनु गौ भी अपने निकट पहुँचने वालों की मनोकामना पूरी करती है।

         यह कामधेनु गौ गायत्री ही है। इस महाशक्ति की जो देवता, दिव्य स्वभाव वाला मनुष्य उपासना करता है, वह माता के स्तनों के समान आध्यात्मिक दुग्ध धारा का पान करता है, उसे किसी प्रकार कोई कष्ट नहीं रहता। आत्मा स्वत: आनन्द स्वरूप है। आनन्द मग्न रहना उसका प्रमुख गुण है। दु:खों के हटते और मिटते ही वह अपने मूल स्वरूप में पहुँच जाता है। देवता स्वर्ग में सदा आनन्दित रहते हैं। मनुष्य भी भूलोक में उसी प्रकार आनन्दित रह सकता है, यदि उसके कष्टों का निवारण हो जाए। गायत्री रूपी कामधेनु मनुष्य के सभी कष्टों का समाधान कर देती है। जो उसकी पूजा, आराधना, अभिभावना व उपासना करता है, वह प्रतिक्षण माता का अमृतोपम दुग्ध पान करने का आनन्द लेता है और समस्त अज्ञानों, अशक्तियों और अभावों के कारण उत्पन्न होने वाले कष्टों से छुटकारा पाकर मनोवाँछित फल प्राप्त करता है। 

गायत्री सद्बुद्धिदायक मन्त्र है। वह साधक के मन को, अन्तःकरण को, मस्तिष्क को, विचारों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करता है। सत् तत्त्व की वृद्धि करना उसका प्रधान कार्य है। साधक जब इस महामन्त्र के अर्थ पर विचार करता है, तो वह समझ जाता है कि संसार की सर्वोपरि समृद्धि और जीवन की सबसे बड़ी सफलता ‘सद्बुद्धि’ को प्राप्त करना है। यह मान्यता सुदृढ़ होने पर उसकी इच्छाशक्ति इसी तत्त्व को प्राप्त करने के लिए लालायित होती है। यह आकांक्षा मन:लोक में एक प्रकार का चुम्बकत्व उत्पन्न करती है। उस चुम्बक की आकर्षण शक्ति से निखिल आकाश के ईथर तत्त्व में भ्रमण करने वाली सतोगुणी विचारधाराएँ, भावनाएँ और प्रेरणाएँ खिंच- खिंचकर उस स्थान पर जमा होने लगती हैं।

     विचारों की चुम्बकत्व शक्ति का विज्ञान सर्वविदित है। एक जाति के विचार अपने सजातीय विचारों को आकाश से खींचते हैं। फलस्वरूप संसार के मृत और जीवित सत्पुरुषों के फैलाए हुए अविनाशी संकल्प जो शून्य में सदैव भ्रमण करते रहते हैं, गायत्री साधक के पास दैवी वरदान की तरह अनायास ही आकर जमा होते रहते हैं और संचित पूँजी की भाँति उनका एक बड़ा भण्डार जमा हो जाता है।
     शरीर एवं मन में सतोगुण की मात्रा बढऩे का फल आश्चर्यजनक होता है। स्थूल दृष्टि से देखने पर यह लाभ न तो समझ पड़ता है, न अनुभव होता है और न उसकी कोई महत्ता मालूम पड़ती है; पर जो सूक्ष्म शरीर के सम्बन्ध में अधिक जानकारी रखते हैं, वे जानते हैं कि तम और रज का घटना और उसके स्थान पर सत् तत्त्व का बढऩा ऐसा ही है, जैसे शरीर में भरे हुए रोग, मल, विष आदि विजातीय पदार्थों का घट जाना और उनके स्थान पर शुद्ध, सजीव, परिपुष्ट रक्त और वीर्य की मात्रा बड़े परिमाण में बढ़ जाना। ऐसा परिवर्तन चाहे किसी की खुली आँखों से दिखाई न दे, पर उसका स्वास्थ्य की उन्नति पर जो चमत्कारी प्रभाव पड़ेगा, उसमें कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। इस प्रकार के लाभ को यदि ईश्वर प्रदत्त कहा जाए, तो किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। शरीर का कायाकल्प करना एक वैज्ञानिक कार्य है, उसके कारण सुनिश्चित लाभ होगा ही। यह लाभ दैवी है या मानवी, इस पर जो मतभेद हो सकता है, उसका कोई महत्त्व नहीं है। गायत्री द्वारा सतोगुण बढ़ता है और निम्नकोटि के तत्त्वों का निवारण हो जाता है। फलस्वरूप साधक का एक सूक्ष्म कायाकल्प हो जाता है। इस प्रक्रिया द्वारा होने वाले लाभों को वैयक्तिक लाभ कहें या दैवी वरदान, इस प्रश्र पर झगड़ने से कुछ लाभ नहीं, बात एक ही है। कोई कार्य किसी भी प्रकार हो, उससे ईश्वरीय सत्ता पृथक् नहीं है, इसलिए संसार के सभी कार्य ईश्वर इच्छा से हुए कहे जा सकते हैं। गायत्री साधना द्वारा होने वाले लाभ वैज्ञानिक आधार पर हुए भी कहे जा सकते हैं और ईश्वरीय कृपा के आधार पर हुए कहने में भी कोई दोष नहीं।
     शरीर में सत् तत्त्व की अभिवृद्धि होने से शरीरचर्या की गतिविधि में काफी हेर- फेर हो जाता है। इन्द्रियों के भोगों में भटकने की गति मन्द हो जाती है। चटोरपन, तरह- तरह के स्वादों के पदार्थ खाने के लिए मन ललचाते रहना, बार- बार खाने की इच्छा होना, अधिक मात्रा में खा जाना, भक्ष्याभक्ष्य का विचार न रहना, सात्त्विक पदार्थों में अरुचि और चटपटे, मीठे, गरिष्ठ पदार्थों में रुचि जैसी बुरी आदतें धीरे- धीरे कम होने लगती हैं। हलके, सुपाच्य, सरस, सात्त्विक भोजन से उसे तृप्ति मिलती है और राजसी, तामसी खाद्यों से घृणा हो जाती है। इसी प्रकार कामेन्द्रिय की उत्तेजना सतोगुणी विचारों के कारण संयमित हो जाती है। मन कुमार्ग में, व्यभिचार में, वासना में कम दौड़ता है। ब्रह्मचर्य के प्रति श्रद्धा बढ़ती है। फल स्वरूप वीर्य- रक्षा का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। कामेन्द्रिय और स्वादेन्द्रिय दो ही इन्द्रियाँ प्रधान हैं। इनका संयम होना स्वास्थ्य- रक्षा और शरीर- वृद्धि का प्रधान हेतु है। इसके साथ- साथ परिश्रम, स्नान, निद्रा, सोना- जागना, सफाई, सादगी और अन्य दिनचर्याएँ भी सतोगुणी हो जाती हैं, जिनके कारण आरोग्य और दीर्घ जीवन की जड़ें मजबूत होती हैं |

मानसिक क्षेत्र में सद्गुणों की वृद्धि के कारण काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, स्वार्थ, आलस्य, व्यसन, व्यभिचार, छल, झूठ, पाखण्ड, चिन्ता, भय, शोक, कदर्य सरीखे दोष कम होने लगते हैं। इनकी कमी से संयम, नियम, त्याग, समता, निरहंकारिता, सादगी, निष्कपटता, सत्यनिष्ठा, निर्भयता, निरालस्यता, शौर्य, विवेक, साहस, धैर्य, दया, प्रेम, सेवा, उदारता, कर्तव्यपरायणता, आस्तिकता सरीखे सद्गुण बढ़ने लगते हैं। इस मानसिक कायाकल्प का परिणाम यह होता है कि दैनिक जीवन में प्राय: नित्य ही आते रहने वाले अनेकों दु:खों का सहज ही समाधान हो जाता है। इन्द्रिय संयम और संयत दिनचर्या के कारण शारीरिक रोगों का बहुत बड़ा निराकरण हो जाता है। विवेक जाग्रत् होते ही अज्ञानजन्य चिन्ता, शोक, भय, आशंका, ममता, हानि आदि के दुःखों से छुटकारा मिल जाता है। ईश्वर- विश्वास के कारण मति स्थिर रहती है और भावी जीवन के बारे में निश्चिन्तता बनी रहती है। धर्म प्रवृत्ति के कारण पाप, अन्याय- अत्याचार नहीं बन पड़ते हैं। फलस्वरूप राज- दण्ड, समाज- दण्ड, आत्म- दण्ड और ईश्वर- दण्ड की चोटों से पीडि़त नहीं होना पड़ता। सेवा, नम्रता, उदारता, दान, ईमानदारी, लोकहित आदि गुणों के कारण दूसरों को लाभ पहुँचता है, हानि की आशंका नहीं रहती। इससे प्राय: सभी उनके कृतज्ञ, प्रशंसक, सहायक, भक्त एवं रक्षक होते हैं। पारस्परिक सद्भावनाओं के परिवर्तन से आत्मा को तृप्त करने वाले प्रेम और सन्तोष नामक रस दिन- दिन अधिक मात्रा में उपलब्ध होकर जीवन को आनन्दमय बनाते चलते हैं। इस प्रकार शारीरिक और मानसिक क्षेत्रों में सत् तत्त्व की वृद्धि होने से दोनों ओर आनन्द का स्रोत उमड़ता है और गायत्री का साधक उसमें निमग्न रहकर आत्मसन्तोष का, परमानन्द का रसास्वादन करता रहता है।

आत्मा ईश्वर का अंश होने से उन सब शक्तियों को बीज रूप में छिपाये रहती है जो ईश्वर में होती है। वे शक्तियाँ सुषुप्तावस्था में रहती हैं और मानसिक तापों के, विषय- विकारों के, दोष- दुर्गुणों के ढेर में दबी हुई अज्ञान रूप से पड़ी रहती हैं। लोग समझते हैं कि हम दीन- हीन, तुच्छ और अशक्त हैं, पर जो साधक मनोविकारों का पर्दा हटाकर निर्मल आत्मज्योति के दर्शन करने में समर्थ होते हैं, वे जानते हैं कि सर्वशक्तिमान् ईश्वरीय ज्योति उनकी आत्मा में मौजूद है और वे परमात्मा के सच्चे उत्तराधिकारी हैं। अग्रि के ऊपर से राख हटा दी जाए तो फिर दहकता हुआ अंगार प्रकट हो जाता है। वह अंगार छोटा होते हुए भी भयंकर अग्रिकाण्डों की संभावना से युक्त होता है। यह पर्दा हटते ही तुच्छ मनुष्य महान् आत्मा (महात्मा) बन जाता है। चूँकि आत्मा में अनेकों ज्ञान- विज्ञान, साधारण- असाधारण, अद्भुत, आश्चर्यजनक शक्ति के भण्डार छिपे पड़े हैं, वे खुल जाते हैं और वह सिद्ध योगी के रूप में दिखाई पड़ता है। सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए बाहर से कुछ लाना नहीं पड़ता, किसी देव- दानव की कृपा की जरूरत नहीं पड़ती, केवल अन्तःकरण पर पड़े हुए आवरणों को हटाना पड़ता है। गायत्री की सतोगुणी साधना का सूर्य तामसिक अन्धकार के पर्दे को हटा देता है और आत्मा का सहज ईश्वरीय रूप प्रकट हो जाता है। आत्मा का यह निर्मल रूप सभी ऋद्धि- सिद्धियों से परिपूर्ण होता है।

      गायत्री द्वारा हुई सतोगुण की वृद्धि अनेक प्रकार की आध्यात्मिक और सांसारिक समृद्धियों की जननी है। शरीर और मन की शुद्धि सांसारिक जीवन को अनेक दृष्टियों से सुख- शान्तिमय बनाती है। आत्मा में विवेक और आत्मबल की मात्रा बढ़ जाने से अनेक ऐसी कठिनाइयाँ जो दूसरे को पर्वत के समान मालूम पड़ती हैं, उस आत्मवान् व्यक्ति के लिए तिनके के समान हलकी बन जाती हैं। उसका कोई काम रुका नहीं रहता। या तो उसकी इच्छा के अनुसार परिस्थिति बदल जाती है या वह परिस्थिति के अनुसार अपनी इच्छाओं को बदल लेता है। क्लेश का कारण इच्छा और परिस्थिति के बीच प्रतिकूलता का होना ही तो है। विवेकवान् इन दोनों में से किसी को अपनाकर संघर्ष को टाल देता है और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। उसके लिए इस पृथ्वी पर भी स्वर्गीय आनन्द की सुरसरि बहने लगती है।
      वास्तव में सुख और आनन्द का आधार किसी बाहरी साधन सामग्री पर नहीं, मनुष्य की मनःस्थिति पर रहता है। मन की साधना से जो मनुष्य एक समय राजसी भोजनों और रेशमी गद्दे- तकियों से सन्तुष्ट नहीं होता, वह किसी सन्त के उपदेश से त्याग और संन्यास का व्रत ग्रहण कर लेने पर जंगल की भूमि को ही सबसे उत्तम शय्या और वन के कन्दमूल फलों को सर्वोत्तम आहार समझने लगता है। यह सब अन्तर मनोभाव और विचारधारा के बदल जाने से ही पैदा हो जाता है। गायत्री बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी है और उनसे हम सद्बुद्धि की याचना किया करते हैं। अतएव यदि गायत्री की उपासना के परिणाम स्वरूप हमारे विचारों का स्तर ऊँचा उठ जाए और मानव जीवन की वास्तविकता को समझकर अपनी वर्तमान स्थिति में ही आनन्द का अनुभव करने लगें, तो इसमें कुछ भी असम्भव नहीं है।
     काफी लम्बे समय से हम गायत्री उपासना के प्रचार का प्रयत्न कर रहे हैं, इसलिए अनेकों साधकों से हमारा परिचय है। हजारों व्यक्तियों ने इस दिशा में हमसे पथ- प्रदर्शन और प्रोत्साहन पाया है। इनमें से जो लोग दृढ़तापूर्वक साधना मार्ग पर चलते रहे हैं, उनमें से अनेकों को आश्चर्यजनक लाभ हुए हैं। वे इस सूक्ष्म विवेचना में जाने की इच्छा नहीं करते कि किस प्रकार कुछ वैज्ञानिक नियमों के आधार पर साधना श्रम का सीधा- सादा फल उन्हें मिला। इस विवेचना से उन्हें प्राय: अरुचि होती है। उनका कहना है कि भगवती गायत्री की कृपा के प्रति कृतज्ञता ही हमारी भक्ति- भावना को बढ़ाएगी और उसी से हमें अधिक लाभ होगा। उनका यह मन्तव्य बहुत हद तक ठीक ही है। श्रद्धा और भक्ति बढ़ाने के लिए इष्टदेव के साधना- स्वरूप के प्रति प्रगाढ़ प्रेम, कृतज्ञता, भक्ति और तन्मयता होनी आवश्यक है। गायत्री साधना द्वारा एक सूक्ष्म विज्ञान सम्मत प्रणाली से लाभ होते हैं, यह जानकर भी इस महातत्त्व से आत्मसम्बन्ध की दृढ़ता करने के लिए कृतज्ञता और भक्ति- भावना का पुट अधिकाधिक रखना आवश्यक है।

गायत्री को न जानने वाले अथवा जानने पर भी उसकी उपासना न करने वाले द्विजों की शास्त्रकारों ने कड़ी भर्त्सना की है और उन्हें अधोगामी बताया है। इस निन्दा में इस बात की चेतावनी दी है कि जो आलस्य या अश्रद्धा के कारण गायत्री साधना में ढील करते हों, उन्हें सावधान होकर इस श्रेष्ठ उपासना में प्रवृत्त होना चाहिए। गायत्र्युपासना नित्या सर्ववेदै: समीरिता। यया विना त्वध: पातो ब्राह्मणस्यास्ति सर्वथा॥ -देवी भागवत स्कं० १२, अ० ८/८९ गायत्री की उपासना नित्य करने योग्य है, ऐसा समस्त वेदों में वर्णित है। गायत्री के बिना ब्राह्मण की सब प्रकार से अधोगति होती है। सांगांश्च चतुरोवेदानधीत्यापि सवाङ् मयान्। गायत्रीं यो न जानाति वृथा तस्य परिश्रम:॥ -योगी याज्ञवल्क्य सस्वर और अंग- उपांग सहित चारों वेदों और समस्त वाङ्मयों पर अधिकार होने पर भी जो गायत्री मन्त्र को नहीं जानता, उसका परिश्रम व्यर्थ है।

गायत्रीं य: परित्यज्य चान्यमन्त्रमुपासते। न साफल्यमवाप्रोति कल्पकोटिशतैरपि॥ -बृ० सन्ध्या भाष्य जो गायत्री मन्त्र को छोडक़र अन्य मन्त्र की उपासना करते हैं, वे करोड़ों जन्मों में भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकते हैं। विहाय तां तु गायत्रीं विष्णूपासनतत्पर:। शिवोपासनतो विप्रो नरकं याति सर्वथा॥ देवी भागवत १२/८/९२ गायत्री को त्याग कर विष्णु और शिव की पूजा करने पर भी ब्राह्मण नरक में जाता है। गायत्र्या रहितो विप्र: शूद्रादप्यशुचिर्भवेत्। गायत्री- ब्रह्म: सम्पूज्यस्तु द्विजोत्तम:॥ -पारा० स्मृति ८/३१ ‘गायत्री से रहित ब्राह्मण शूद्र से भी अपवित्र है। गायत्री रूपी ब्रह्म तत्त्व को जानने वाला सर्वत्र पूज्य है।’ एतयर्चा विसंयुक्त: काले च क्रियया स्वया। ब्रह्मक्षत्रियविड्योनिर्गर्हणां याति साधुषु॥ मनुस्मृति अ० २/८० प्रणव व्याहृतिपूर्वक गायत्री मन्त्र का जप सन्ध्याकाल में न करने वाला द्विज सज्जनों में निन्दा का पात्र होता है। एवं यस्तु विजानाति गायत्रीं ब्राह्मणस्तु स:। अन्यथा शूद्रधर्मा स्याद् वेदानामपि पारग:॥ यो० याज्ञ० ४/४१- ४२ ‘जो गायत्री को जानता है और जपता है, वह ब्राह्मण है; अन्यथा वेदों में पारंगत होने पर भी शूद्र के समान है।’ अज्ञात्वैतां तु गायत्रीं ब्राह्मण्यादेव हीयते। अपवादेन संयुक्तो भवेच्छ्रुतिनिदर्शनात्॥ -यो० याज्ञ० ४/७१ ‘गायत्री को न जानने से ब्राह्मण ब्राह्मणत्व से हीन होकर पापयुक्त हो जाता है, ऐसा श्रुति में कहा गया है।’ किं वेदै: पठितै: सर्वै: सेतिहासपुराणकै:। सांगै: सावित्रिहीनेन न विप्रत्वमवाप्यते॥ बृ० पा० अ० ५/१४ ‘इतिहास, पुराणों के तथा समस्त वेदों के पढ़ लेने पर भी यदि ब्राह्मण गायत्री मन्त्र से हीन हो, तो वह ब्राह्मणत्व को प्राप्त नहीं होता।’ न ब्राह्मणो वेदपाठान्न शास्त्र पठनादपि। देव्यास्त्रिकालमभ्यासाद् ब्राह्मण: स्याद् द्विजोऽन्यथा॥ बृ० सन्ध्या भाष्य वेद और शास्त्रों के पढऩे से ब्राह्मणत्व नहीं हो सकता।

तीनों कालों में गायत्री की उपासना से ब्राह्मणत्व होता है, अन्यथा वह द्विज नहीं रहता है। ओंकार पितृरूपेण गायत्रीं मातरं तथा। पितरौ यो न जानाति स विप्रस्त्वन्यरेतस:॥ ‘ओंकार को पिता और गायत्री को माता रूप से जो नहीं जानता, वह पुरुष अन्य की संतान है, अर्थात् व्यभिचार से उत्पन्न है।’ उपलभ्य च सावित्रीं नोपतिष्ठति यो द्विज:। काले त्रिकालं सप्ताहात् स पतेन् नात्र संशय:॥ ‘गायत्री मन्त्र को जानकर जो द्विज इसका आचरण नहीं करता, अर्थात् इसे त्रिकाल में नहीं जपता, उसका निश्चित पतन हो जाता है।’ अस्तु हर मनुष्य को आत्म- कल्याण एवं जन- कल्याण के उद्देश्य से गायत्री साधना करनी चाहिए। गायत्री साधना से सतोगुणी सिद्धियाँ प्राचीन इतिहास, पुराणों से पता चलता है कि पूर्व युगों में प्राय: ऋषि- महर्षि गायत्री के आधार पर योग साधना तथा तपश्चर्या करते थे। वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य, अत्रि, विश्वामित्र, व्यास, शुकदेव, दधीचि, वाल्मीकि, च्यवन, शङ्ख, लोमश, जाबालि, उद्दालक, वैशम्पायन, दुर्वासा, परशुराम, पुलस्त्य, दत्तात्रेय, अगस्त्य, सनतकुमार, कण्व, शौनक आदि ऋषियों के जीवन वृत्तान्तों से स्पष्ट है कि उनकी महान् सफलताओं का मूल हेतु गायत्री ही थी। थोड़े ही समय पूर्व ऐसे अनेक महात्मा हुए हैं, जिन्होंने गायत्री का आश्रय लेकर अपने आत्मबल एवं ब्रह्मतेज को प्रकाशवान् किया था। उनके इष्टदेव, आदर्श, सिद्धान्त भिन्न भले ही रहे हों, वेदमाता के प्रति सभी की अनन्य श्रद्धा थी। उन्होंने प्रारम्भिक स्तन पान इसी महाशक्ति का किया था, जिससे वे इतने प्रतिभा सम्पन्न महापुरुष बन सके।

शंकराचार्य, समर्थ गुरु रामदास, नरसिंह मेहता, दादूदयाल, सन्त ज्ञानेश्वर, स्वामी रामानन्द, गोरखनाथ, मच्छीन्द्रनाथ, हरिदास, तुलसीदास, रामानुजाचार्य, माधवाचार्य, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, रामतीर्थ, योगी अरविन्द, महर्षि रमण, गौराङ्ग महाप्रभु, स्वामी दयानन्द, महात्मा एकरसानन्द आदि अनेक महात्माओं का विकास गायत्री महाशक्ति के अञ्चल में ही हुआ था। आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘माधव निदान’ के प्रणेता श्री माधवाचार्य ने आरम्भ में १३ वर्षों तक वृन्दावन में रहकर गायत्री अनुष्ठान किए थे। जब उन्हें कुछ भी सफलता न मिली, तो वे निराश होकर काशी चले गये और एक अवधूत की सलाह से भैरव की तान्त्रिक उपासना करने लगे। कुछ दिन में भैरव प्रसन्न हुए और पीठ पीछे से कहने लगे कि ‘वर माँग’। माधवाचार्यजी ने उनसे कहा- ‘आप सामने आइए और दर्शन दीजिए भैरव ने उत्तर दिया- ‘मैं गायत्री उपासक के सामने नहीं आ सकता।’ इस बात से माधवाचार्य जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उनने कहा- ‘यदि आप गायत्री उपासक के सम्मुख प्रकट नहीं हो सकते, तो मुझे वरदान क्या देंगे? कृपया अब आप केवल यह बता दीजिए कि मेरी अब तक की गायत्री साधना क्यों निष्फल हुई?’ भैरव ने उत्तर दिया- ‘तुम्हारे पूर्व जन्मों के पाप नाश करने में अब तक की साधना लग गई।

अब तुम्हारी आत्मा निष्पाप हो गई है। आगे की साधना करोगे तो सफल होगी।’ यह सुनकर माधवाचार्य फिर वृन्दावन आए और पुन: गायत्री साधना प्रारम्भ कर दी। अन्त में उन्हें माता के दर्शन हुए और पूर्ण सिद्धि प्राप्त हुई। श्री महात्मा देवगिरि जी के गुरु हिमालय की एक गुफा में गायत्री का जप करते थे। उनकी आयु ४०० वर्ष से अधिक थी। वे अपने आसन से उठकर भोजन, शयन, स्नान या मल- मूत्र त्यागने तक को कहीं नहीं जाते थे। इन कामों की उन्हें आवश्यकता भी नहीं पड़ती थी। नगराई के पास रामटेकरी के घने जंगल में एक हरिहर नाम के महात्मा ने गायत्री तप करके सिद्धि पाई थी। महात्मा जी की कुटी के पास जाने में सात कोस का घना जंगल पड़ता था। उसमें सैकड़ों सिंह- व्याघ्र रहते थे। कोई व्यक्ति महात्मा जी के दर्शनों को जाता, तो उसे दो चार व्याघ्रों से भेंट अवश्य होती। ‘हरिहर बाबा के दर्शन को जा रहे हैं’ इतना कह देने मात्र से हिंसक पशु रास्ता छोड़कर चले जाते थे। लक्ष्मणगढ़ में विश्वनाथ गोस्वामी नामक एक प्रसिद्ध गायत्री उपासक हुए हैं। उनके जीवन का अधिकांश भाग गायत्री उपासना में ही व्यतीत हुआ है।

उनके आशीर्वाद से सीकर का एक वीदावत परिवार गरीबी से छुटकारा पाकर बड़ा ही समृद्धिशाली एवं सम्पन्न बना। इस परिवार के लोग अब तक उन पण्डित जी की समाधि पर अपने बच्चों का मुण्डन कराते हैं। जयपुर रियासत के जौन नामक गाँव में पं. हरराय नामक नैष्ठिक गायत्री उपासक रहते थे। उनको अपनी मृत्यु का पहले से ही पता चल गया था। उनने सब परिजनों को बुलाकर धार्मिक उपदेश दिए और बोलते, बातचीत करते तथा गायत्री मन्त्र उच्चारण करते हुए प्राण त्याग दिए। जूनागढ़ के एक विद्वान् पं. मणिशंकर भट्ट पहले यजमानों के लिए गायत्री अनुष्ठान दक्षिणा लेकर करते थे। जब इससे अनेकों को भारी लाभ होते देखा, तो उन्होंने दूसरों के अनुष्ठान छोड़ दिए और अपना सारा जीवन गायत्री उपासना में लगा दिया। उनका शेष जीवन बहुत ही शान्ति से बीता। जयपुर के बूढ़ा देवल ग्राम में विष्णुदासजी का जन्म हुआ। वे आजीवन ब्रह्मचारी रहे। उन्होंने पुष्कर में एक कुटी बनाकर गायत्री की घोर तपस्या की थी, फल स्वरूप उन्हें अनेक सिद्धियाँ प्राप्त हो गयी थीं। बड़े- बड़े राजा उनकी कुटी की धूल मस्तक पर रखने लगे। जयपुर और जोधपुर के महाराजा अनेक बार उनकी कुटी पर उपस्थित हुए। महाराणा उदयपुर तो अत्यन्त आग्रह करके उन्हें अपनी राजधानी में ले आए और उनके पुरश्चरण की शाही तैयारी के साथ अपने यहाँ पूर्णाहुति कराई। ब्रह्मचारीजी के सम्बन्ध में अनेक चमत्कारी कथाएँ प्रसिद्ध हैं। खातौली से ७ मील दूर धौकलेश्वर में मगनानन्द नामक एक गायत्री सिद्ध महापुरुष रहते थे। उनके आशीर्वाद से खातौली के ठिकानेदार को उनकी छीनी हुई जागीर वापिस मिल गयी। रतनगढ़ के पं. भूदरमल नामक एक विद्वान् ब्राह्मण गायत्री के अनन्य उपासक हुए हैं। वे सम्वत् १९६६ में काशी आ गए थे और अन्त तक वहीं रहे।

अपनी मृत्यु की पूर्व जानकारी होने से उनने विशाल धार्मिक आयोजन किया था और साधना करते हुए आषाढ़ सुदी ५ को शरीर त्याग किया। उनका आशीर्वाद पाने वाले बहुत से सामान्य मनुष्य आज भी लखपति बने हुए हैं। अलवर राज्य के अन्तर्गत एक ग्राम के सामान्य परिवार में पैदा हुए एक सज्जन को किसी कारणवश वैराग्य हो गया। वे मथुरा आए और एक टीले पर रहकर साधना करने लगे। एक करोड़ गायत्री जप करने के अनन्तर उन्हें गायत्री का साक्षात्कार हुआ और वे सिद्ध हो गए। वह स्थान गायत्री टीले के नाम से प्रसिद्ध है। वहाँ एक छोटा सा मन्दिर है, जिसमें गायत्री की सुन्दर मूर्ति स्थापित है। उनका नाम बूटी सिद्ध था। सदा मौन रहते थे। उनके आशीर्वाद से अनेकों का कल्याण हुआ। धौलपुर अलवर के राजा उनके प्रति बड़ी श्रद्धा रखते थे। आर्य समाज के संस्थापक श्री स्वामी दयानन्दजी के गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती ने बड़ी तपश्चर्यापूर्वक गंगा तीर पर रहकर तीन वर्ष तक जप किया था। इस अन्धे संन्यासी ने अपने तपोबल से अगाध विद्या और अलौकिक ब्रह्मतेज प्राप्त किया था। मान्धाता ओंकारेश्वर मन्दिर के पीछे गुफा में एक महात्मा गायत्री जप करते थे। मृत्यु के समय उनके परिवार के व्यक्ति उपस्थित थे। परिवार के एक बालक ने प्रार्थना की कि ‘मेरी बुद्धि मन्द है, मुझे विद्या नहीं आती, कुछ आशीर्वाद दे जाइए जिससे मेरा दोष दूर हो जाए।’ महात्मा जी ने बालक को समीप बुलाकर उसकी जीभ पर कमण्डल से थोड़ा- सा जल डाला और आशीर्वाद दिया कि ‘तू पूर्ण विद्वान् हो जाएगा।’ आगे चलकर यह बालक असाधारण प्रतिभाशाली विद्वान् हुआ और इन्दौर में ओंकार जोशी के नाम से प्रसिद्धि पायी। इन्दौर नरेश उनसे इतने प्रभावित थे कि सबेरे घूमने जाते समय उनके घर से उन्हें साथ ले जाते थे।

चन्देल क्षेत्र निवासी गुप्त योगेश्वर श्री उद्धडज़ी जोशी एक सिद्ध पुरुष हो गये। गायत्री उपासना के फलस्वरूप उनकी कुण्डलिनी जाग्रत् हुई और वे परम सिद्ध बन गए। उनकी कृपा से कई मनुष्यों के प्राण बचे थे, कई को धन प्राप्त हुआ था, कई आपत्तियों से छूटे थे। उनकी भविष्यवाणियाँ सदा सत्य होती थीं। एक व्यक्ति ने उनकी परीक्षा करने तथा उपहास करने का दुस्साहस किया तो वह कोढ़ी हो गया। बड़ौदा के पास जम्बुसर के निवासी श्री मुकुटराम जी महाराज गायत्री उपासना में परम सिद्धि प्राप्त कर ली हैं। प्राय: आठ घण्टे नित्य जप करते थे। उन्हें अनेकों सिद्धियाँ प्राप्त थीं। दूर देशों के समाचार वे ऐसे सच्चे बताते थे मानो सब हाल आँखों से देख रहे हों। पीछे परीक्षा करने पर वे समाचार सोलह आने सच निकलते। उन्होंने गुजराती की एक दो- कक्षा तक पढऩे की स्कूली शिक्षा पाई थी, तो भी वे संसार की सभी भाषाओं को भली प्रकार बोल और समझ लेते थे। विदेशी लोग उनके पास आकर अपनी भाषा में घण्टों तक वार्तालाप करते थे। योग, ज्योतिष, वैद्यक, तन्त्र तथा धर्म शास्त्र का उन्हें पूरा- पूरा ज्ञान था। बड़े- बड़े पण्डित उनसे अपनी गुत्थियाँ सुलझवाने आते थे। उन्होंने कितनी ही ऐसी करामातें दिखाई थीं, जिनके कारण लोगों की उन पर अटूट श्रद्धा हो गई थी। बरसोड़ा में एक ऋषिराज ने सात वर्ष तक निराहार रहकर गायत्री पुरश्चरण किए थे। उनकी वाणी सिद्ध थी। जो कह देते थे, वही होता था। मासिक कल्याण पत्रिका के सन्त अंक में हरेराम नामक एक ब्रह्मचारी का जिक्र छपा है। यह ब्रह्मचारी गंगाजी के भीतर उठी हुई एक टेकरी पर रहते थे और गायत्री जी की आराधना करते थे।

उनका ब्रह्मतेज अवर्णनीय था। सारा शरीर तेज से दमकता था। उन्होंने अपनी सिद्धियों से अनेकों के दु:ख दूर किए थे। देव प्रयाग के विष्णुदत्त जी वानप्रस्थी ने चान्द्रायण व्रतों के साथ सवा लक्ष जप के सात अनुष्ठान किये थे। इससे उनका आत्मबल बहुत बढ़ गया था। उन्हें कितनी ही सिद्धियाँ मिल गयी थीं। लोगों को जब पता चला, तो अपने कार्य सिद्ध कराने के लिए उनके पास दूर- दूर से भी आने लगे। वानप्रस्थी जी इस खेल में उलझ गये। रोज- रोज बहुत खर्च करने से उनका शक्ति भण्डार चुक गया। पीछे उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ और फिर मृत्युकाल तक एकान्त साधना करते रहे। रुद्र प्रयाग के स्वामी निर्मलानन्द संन्यासी को गायत्री साधना से भगवती के दिव्य दर्शन और ईश्वर साक्षात्कार का लाभ प्राप्त हुआ था। इससे उन्हें असीम तृप्ति हुई। बिठूर के पास खाँडेराव नामक एक वयोवृद्ध तपस्वी एक विशाल खिरनी के पेड़ के नीचे गायत्री साधना करते थे। एक बार उन्होंने विराट् गायत्री यज्ञ का ब्रह्मभोज किया। दिन भर हजारों आदमियों की पंगतें होती रहीं। रात नौ बजे भोजन समाप्त हो गया। भोजन अभी कई हजार आदमियों का होना शेष था। खाँडेरावजी को सूचना दी गयी तो उन्होंने आज्ञा दी, गङ्गा जी में से चार कनस्तर पानी भरकर लाओ और उसमें पूडिय़ाँ सिकने दो। ऐसा ही किया गया। पूडिय़ाँ घी के समान स्वादिष्ट थीं। दूसरे दिन चार कनस्तर घी मँगवाकर गंगाजी में डलवा दिया। काशी में जिस समय बाबू शिवप्रसाद जी गुप्त द्वारा ‘भारत माता मन्दिर’ का शिलारोपण समारोह किया गया था, उस समय २०० दिन तक का एक बड़ा महायज्ञ किया गया, जिसमें विद्वानों द्वारा २० लाख गायत्री जप किया गया। यज्ञ की पूर्णाहुति के दिन पास में लगे पेड़ों के सूखे पत्ते फिर से हरे हो गये थे और एक पेड़ में तो असमय ही फल भी आ गए थे।

इस अवसर पर पं. मदनमोहन मालवीय, राजा मोतीचन्द्र, हाई कोर्ट के जज श्री कन्हैयालाल और अन्य अनेक गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे, जिन्होंने यह घटना अपनी आँखों से देखी और गायत्री के प्रभाव को स्वयं अनुभव किया। गढ़वाल के महात्मा गोविन्दानन्द अत्यन्त विषधर साँपों के काटे हुए रोगियों की प्राण रक्षा करने के लिए प्रसिद्ध थे। उनका कहना था कि मैं गायत्री जप से ही सब रोगियों को ठीक करता हूँ। इसी प्रकार समस्तीपुर के एक सम्पन्न व्यक्ति शोभान साहू भी गायत्री मन्त्र से अत्यन्त जहरीले बिच्छुओं और पागल कुत्ते के काटे तक को चंगा कर देते थे। अनेक सात्त्विक साधक केवल गायत्री मन्त्र से अभिमन्त्रित जल द्वारा बड़े- बड़े रोगों को दूर कर देते हैं। स्वर्गीय पण्डित मोतीलालजी नेहरू का जीवन उस समय के वातावरण के कारण यद्यपि एक भिन्न कर्तव्य क्षेत्र में व्यतीत हुआ था, पर जीवन के अन्तिम समय में उनको गायत्री का ध्यान आया और उसे जपते हुए ही उन्होंने जीवन लीला समाप्त की। इससे विदित होता है कि गायत्री का संस्कार शीघ्र ही समाप्त नहीं होता, वरन् आगामी पीढिय़ों तक भी प्रभाव डालता रहता है। 

पण्डितजी के पूर्वज धार्मिक प्रवृत्ति के गायत्री उपासक थे। उसी के प्रभाव से उनको भी मृत्युकाल जैसे महत्त्व के अवसर पर उसका ध्यान आ गया। अहमदाबाद के श्री डाह्यभाई रामचन्द्र मेहता गायत्री के श्रद्धालु उपासक और प्रचारक हैं। इनकी आयु ८० वर्ष है। शरीर और मन में सतोगुण की अधिकता होने से वह सभी गुण उनमें परिलक्षित होते हैं, जो महात्माओं में पाए जाते हैं। दीनवा के स्वामी मनोहर दासजी ने गायत्री के कई पुरश्चरण किए हैं। उनका कहना है कि इस महासाधना से मुझे इतना अधिक लाभ हुआ है कि उसे प्रकट करने की उसी प्रकार इच्छा नहीं होती, जैसे कि लोभी को अपना धन प्रकट करने में संकोच होता है। हटा के श्री रमेशचन्द्र दुबे को गायत्री साधना के कारण कई बार बड़े अनुभव हुए हैं, जिनके कारण उनकी निष्ठा में वृद्धि हुई है। पाटन के श्री जटाशंकर नन्दी की आयु ७७ वर्ष से अधिक है। वे गत पचास वर्षों से गायत्री उपासना कर रहे हैं। कुविचारों और कुसंस्कारों से मुक्ति एवं दैवी तत्त्वों की अधिकता का लाभ उन्होंने प्राप्त किया है और उसे वे जीवन की प्रधान सफलता मानते हैं। वृन्दावन के काठिया बाबा, उडिय़ा बाबा, प्रज्ञाचक्षु स्वामी गंगेश्वरानन्द जी गायत्री उपासना से आरम्भ करके अपनी साधना को आगे बढ़ाने में समर्थ हुए थे। वैष्णव सम्प्रदाय के प्राय: सभी आचार्य गायत्री की साधना पर विशेष जोर देते हैं। नवाबगंज के पण्डित बलभद्र जी ब्रह्मचारी, सहारनपुर जिले के श्रीस्वामी देवदर्शनजी, बुलन्दशहर, उ० प्र० के परिव्राजक महात्मा योगानन्दजी, ब्रह्मनिष्ठ श्री स्वामी ब्रह्मर्षिदासजी उदासीन, बिहार प्रान्त के महात्मा अनासक्तजी, यज्ञाचार्य पं. जगन्नाथ शास्त्री, राजगढ़ के महात्मा हरि ऊँ तत् सत् आदि कितने ही सन्त महात्मा गायत्री उपासना में पूर्ण मनोयोग के साथ संलग्न रहे हैं। अनेक गृहस्थ भी तपस्वी जीवन व्यतीत करते हुए महान् साधना में प्रवृत्त हैं।

इस मार्ग पर चलते हुए उन्हें महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक सफलताएँ प्राप्त हो रही हैं। हमने स्वयं अपने जीवन के आरम्भ काल में ही गायत्री की उपासना की है और वह हमारा जीवन आधार ही बन गयी है। दोषों, विकारों, कषाय- कल्मषों, कुविचार और कुसंस्कारों को हटा देने में जो थोड़ी- सी सफलता मिली है, यह श्रेय इसी साधना को है। ब्राह्मणत्व की ब्राह्मी भावनाओं की, धर्मपरायणता की, सेवा, स्वाध्याय, संयम और तपश्चर्या की जो यत्किञ्चित् प्रवृत्तियाँ हैं, वे माता की कृपा के कारण ही हैं। अनेक बार विपत्तियों से उसने बचाया है और अन्धकार में मार्ग दिखाया है। आपबीती इन घटनाओं का वर्णन बहुत विस्तृत है, जिसके कारण हमारी श्रद्धा दिन- दिन माता के चरणों में बढ़ती चली आयी है। इन वर्णनों के लिए इन पंक्तियों में स्थान नहीं है। हमारे प्रयत्न और प्रोत्साहन से जिन सज्जनों ने वेदमाता की उपासना की है, उनमें आत्मशुद्धि, पापों से घृणा, सन्मार्ग में श्रद्धा, सतोगुण की वृद्धि, संयम, पवित्रता, आस्तिकता, जागरूकता एवं धर्मपरायणता की प्रवृत्तियों को बढ़ते हुए पाया है। उन्हें अन्य प्रारम्भिक लाभ चाहे हुए हों या न हुए हों, पर आत्मिक लाभ हर एक को निश्चित रूप से हुए हैं। विवेकपूर्वक विचार किया जाय, तो यह लाभ इतने महान हैं कि इनके ऊपर धन- सम्पत्ति की छोटी- मोटी सफलताओं को न्योछावर करके फेंका जा सकता है। इसलिए हम अपने पाठकों से आग्रहपूर्वक अनुरोध करेंगे कि वे गायत्री की उपासना करके उसके द्वारा होने वाले लाभों का चमत्कार देखें। जो वेदमाता की शरण ग्रहण करते हैं, अन्तःकरण में सतोगुण, विवेक, सद्विचार और सत्कर्मों की ओर उनकी असाधारण प्रवृत्ति जाग्रत् होती है। यह आत्म- जागरण लौकिक और पारलौकिक, सांसारिक और आत्मिक सभी प्रकार की सफलताओं का दाता है। Gayatri_Mahavigyan-Sanyukt2.pdf Gayatri_Mahavigyan-Sanyukt3.pdf Gayatri_Mahavigyan-_part-1_sanyukt_.pdf गायत्री त्रिगुणात्मक है। उसकी उपासना से जहाँ सतोगुण बढ़ता है, वहाँ कल्याणकारक एवं उपयोगी रजोगुण की भी अभिवृद्धि होती है।

रजोगुणी आत्मबल बढऩे से मनुष्य की गुप्त शक्तियाँ जाग्रत् होती हैं, जो सांसारिक जीवन के संघर्ष में अनुकूल प्रतिक्रिया उत्पन्न करती हैं। उत्साह, साहस, स्फूर्ति, निरालस्यता, आशा, दूरदर्शिता, तीव्र बुद्धि, अवसर की पहचान, वाणी मंव माधुर्य, व्यक्तित्व में आकर्षण, स्वभाव में मिलनसारी जैसी अनेक छोटी- बड़ी विशेषताएँ उन्नत तथा विकसित होती हैं, जिसके कारण ‘श्रीं’ तत्त्व का उपासक भीतर ही भीतर एक नये ढाँचे में ढलता रहता है। उसमें ऐसे परिवर्तन हो जाते हैं, जिनके कारण साधारण व्यक्ति भी धनी, समृद्ध हो सकता है।

गायत्री उपासक में ऐसी त्रुटियाँ, जो मनुष्य को दु:खी बनाती हैं, नष्ट होकर वे विशेषताएँ उत्पन्न होती हैं, जिनके कारण मनुष्य क्रमश: समृद्धि, सम्पन्नता और उन्नति की ओर अग्रसर होता है। गायत्री अपने साधकों की झोली में सोने की अशर्फियाँ नहीं उड़ेलती- यह ठीक है, परन्तु यह भी ठीक है कि वह साधक में उन विशेषताओं को उत्पन्न करती है, जिनके कारण वह अभावग्रस्त और दीन- हीन नहीं रह सकता। इस प्रकार के अनेकों उदाहरण हमारी जानकारी में हैं। उनमें से कुछ नीचे दिये जाते हैं।

टिप्पणी—यहाँ ग्रन्थ रचना के समय (सन् ५० के दशक) तक जुड़े साधकों में से कुछ के विवरण भर दिए गए हैं। युगऋषि के जीवनकाल में उनके सान्निध्य में हुई साधना से प्राप्त सफलताओं का यदि संकलन किया जाय, तो इस ग्रन्थ के आकार के कई भाग प्रकाशित करने पड़ेंगे। —प्रकाशक ग्राम हर्रई, जिला छिन्दवाड़ा के पं. भूरेलाल ब्रह्मचारी लिखते हैं—‘रोजी में उत्तरोत्तर वृद्धि होने के कारण मैं धन- धान्य से परिपूर्ण हूँ। जिस कार्य में हाथ डालता हूँ, उसी में सफलता मिलती है। अनेक तरह के संकटों का निवारण आप ही आप हो जाता है, इतना तो अनुभव मेरे खुद का गायत्री मन्त्र जपने का है।’

झाँसी के पं. लक्ष्मीकान्त झा, व्याकरण, साहित्याचार्य लिखते हैं—‘बचपन से ही मुझे गायत्री पर श्रद्धा हो गयी थी और उसी समय से एक हजार मन्त्रों का नित्य जप करता हूँ। इसी के प्रताप से मैंने साहित्याचार्य, व्याकरणाचार्य, साहित्यरत्न तथा वेद- शात्री आदि परीक्षाएँ उत्तीर्ण की तथा संस्कृत कॉलेज झाँसी का प्रिन्सिपल बना। मैंने एक सेठ के १६ वर्षीय मरणासन्न पुत्र के प्राण गायत्री जप के प्रभाव से बचते हुए देखे हैं, जिससे मेरी श्रद्धा और भी सदृढ़ हो गयी है।’

वृन्दावन के पं. तुलसीदास शर्मा लिखते हैं—‘लगभग दस वर्ष हुए होंगे, श्री उडिय़ा बाबा की प्रेरणा से हाथरस निवासी लाला गणेशीलाल ने गंगा किनारे कर्णवास में २४ लक्ष गायत्री का अनुष्ठान कराया था। उसी समय से गणेशीलाल जी की आर्थिक दशा दिन- दिन ऊँची उठती गयी और अब उनकी प्रतिष्ठा- सम्पन्नता तब से चौगुनी है।’

प्रतापगढ़ के पं. हरनारायण शर्मा लिखते हैं—‘मेरे एक निकट सम्बन्धी ने काशी में एक महात्मा से धन प्राप्ति का उपाय पूछा। महात्मा ने उपदेश दिया कि प्रात:काल चार बजे उठकर शौचादि से निवृत्त होकर स्नान- सन्ध्या के बाद खड़े होकर नित्य एक हजार गायत्री मन्त्र का जप किया करो। उसने ऐसा ही किया, फलस्वरूप उसका आर्थिक कष्ट दूर हो गया।’

प्रयाग जिले के छितौना ग्राम निवासी पं. देवनारायण जी देवभाषा के असाधारण विद्वान् और गायत्री के अनन्य उपासक हैं। तीस वर्ष की आयु तक अध्ययन करने के उपरान्त उन्होंने गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। स्त्री बड़ी सुशील एवं पतिभक्त मिली। विवाह के बहुत काल बीत जाने पर भी जब कोई सन्तान नहीं हुई, तो वह अपने आपको बन्ध्यत्व से कलंकित समझकर दु:खी रहने लगी। पण्डित जी ने उसकी इच्छा जानकर सवा लक्ष जप का अनुष्ठान किया। कुछ ही दिन में उनके एक प्रतिभावान मेधावी पुत्र उत्पन्न हुआ।

प्रयाग के पास जमुनीपुर ग्राम में रामनिधि शास्त्री नामक एक विद्वान् ब्राह्मण रहते थे। वे अत्यन्त निर्धन थे, पर गायत्री साधना में उनकी बड़ी तत्परता थी। एक बार नौ दिन तक उपवास करके उन्होंने नवाह्न पुरश्चरण किया। पुरश्चरण के अन्तिम दिन अर्धरात्रि को भगवती गायत्री ने बड़े दिव्य स्वरूप में उन्हें दर्शन दिया और कहा, ‘तुम्हारे इस घर में अमुक स्थान पर अशर्फियों से भरा घड़ा रखा है, उसे निकालकर अपनी दरिद्रता दूर करो।’ पण्डित जी ने घड़ा निकाला और वे निर्धन से धनपति हो गये।

बड़ौदा के वकील रामचन्द्र कालीशंकर पाठक आरम्भ में १० रुपये मासिक की एक छोटी नौकरी करते थे। उस समय उन्होंने एक गायत्री पुरश्चरण किया, तब से उनकी रुचि विद्याध्ययन में लगी और धीरे- धीरे प्रसिद्ध कानूनदा हो गये। उनकी आमदनी भी कई गुनी बढ़ गयी।

गुजरात के मधुसूदन स्वामी का नाम संन्यास लेने के पहले मायाशंकर दयाशंकर पण्ड्या था। वे सिद्धपुर में रहते थे। आरम्भ में वे पच्चीस रुपये मासिक के नौकर थे। उन्होंने हर रोज एक हजार गायत्री जप से आरम्भ करके चार हजार तक बढ़ाया। फलस्वरूप उनकी पदवृद्धि हुई। वे राज्य रेलवे के असिस्टैण्ट ट्रैफिक सुपरिण्टेण्डेण्ट के ओहदे तक पहुँचे। उस समय उनका वेतन तीन सौ रुपया मासिक था। उत्तरावस्था में उन्होंने संन्यास ले लिया था।

माण्डूक्य उपनिषद् पर कारिका लिखने वाले विद्वान् श्री गौड़पाद का जन्म उनके पिता के उपवास पूर्वक सात दिन तक गायत्री जप करने के फलस्वरूप हुआ था।

   साहित्यकार पं. द्वारिकाप्रसाद चतुर्वेदी पहले इलाहाबाद में सिविल सर्जन विभाग में हैडक्लर्क थे। उन्होंने वारेन हैस्टिंग्ज का जीवन चरित्र लिखा, जो राजद्रोहात्मक समझा गया और नौकरी से हाथ धोना पड़ा। बड़ा कुटुम्ब और जीविका का साधन न रहना चिन्ता की बात थी। उन्होंने व्रतपूर्वक गायत्री का अनुष्ठान किया। इस तपस्या के फलस्वरूप उन्हें पुस्तक लेखन का स्वतन्त्र कार्य मिल गया और साहित्य रचना के क्षेत्र में उन्हें प्रसिद्धि प्राप्त हुई। उनकी आर्थिक स्थिति सुधर गयी। तब से उन्होंने पर्याप्त अनुष्ठान करने का अपना नियम बनाया और नित्य जप किया करते थे।

स्वर्गीय पं. बालकृष्ण भट्ट हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। वे नित्य गायत्री के ५०० मन्त्र जपते थे और कहा करते थे कि गायत्री जप करने वालों को कभी कोई कमी नहीं रहती। भट्टजी सदा विद्या, धन, जन से भरे पूरे रहे।

प्रयाग विश्वविद्यालय के प्रोफेसर क्षेत्रेशचन्द्र चट्टोपाध्याय का भानजा उनके यहाँ रहकर पढ़ता था। इण्टर परीक्षा के दौरान लौजिक के पर्चे के दिन वह बहुत दु:खी था, क्योंकि उस विषय में वह बालक कच्चा था। प्रोफेसर साहब ने उसे प्रोत्साहन देकर परीक्षा देने भेजा और स्वयं छुट्टी लेकर आसन जमाकर गायत्री जपने लगे। जब तक बालक लौटा, तब तक बराबर जप करते रहे। बालक ने बताया, उसका वह पर्चा बहुत ही अच्छा हुआ और लिखते समय उसे लगता था मानो उसकी कलम पकडक़र कोई लिखाता चलता है। वह बहुत अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण हुआ।

इलाहाबाद के पं. प्रताप नारायण चतुर्वेदी की नौकरी छूट गई। बहुत तलाश करने पर भी जब कोई जगह न मिली, तो उन्होंने अपने पिता के आदेशानुसार गायत्री का सवा लक्ष जप किया। समाप्त होने पर उसी पायेनियर प्रेस में पहली नौकरी की अपेक्षा ढाई गुने वेतन की जगह मिल गयी, जहाँ कि पहले उन्हें कितनी ही बार मना कर दिया गया था।

कलकत्ता के शा. मोडक़मल केजड़ीवाल आरम्भ में जोधपुर राज्य के एक गाँव में १२ रुपये मासिक के अध्यापक थे। एक छोटी- सी पुस्तक से आकर्षित होकर उन्होंने गायत्री जपने का नित्य नियम बनाया। जप करते- करते अचानक उनके मन में स्फुरणा हुई कि मुझे कलकत्ता जाना चाहिए, वहाँ मेरी आर्थिक उन्नति होगी। निदान वे कलकत्ता पहुँचे। वहाँ व्यापारिक क्षेत्र में वे नौकरी करते रहे और श्रद्धापूर्वक गायत्री आराधना करते रहे। रुई के व्यापार से उन्हें भारी लाभ हुआ और थोड़े ही दिन में लखपति बन गए।

बुलढाना के श्री बद्रीप्रसाद वर्मा बहुत निर्बल आर्थिक स्थिति के आदमी थे। ५० रुपये मासिक में उन्हें अपने आठ आदमी के परिवार का गुजारा करना पड़ता था। कन्या विवाह योग्य हो गई। अच्छे घर में विवाह करने के लिए हजारों रुपया दहेज की आवश्यकता थी। वे दु:खी रहते और गायत्री माता के चरणों में आँसू बहाते रहते। अचानक ऐसा संयोग हुआ कि एक डिप्टी कलक्टर के लडक़े की बरात कन्या पक्ष वालों से झगड़ा करके बिना ब्याहे वापस लौट रही थी। डिप्टी साहब वर्माजी को जानते थे। रास्ते में उनका गाँव पड़ता था। उन्होंने वर्माजी के पास प्रस्ताव भेजा कि अपनी कन्या का विवाह आज ही हमारे लडक़े से कर दें। वर्माजी राजी हो गये। एम. ए. पास लडक़ा जो नहर विभाग में ६०० रुपये मासिक का इञ्जीनियर था, उससे उनकी कन्या की शादी कुल १५० रुपये में हो गयी।

देहरादून का बसन्त कुमार नामक छात्र एक वर्ष मैट्रिक में फेल हो चुका था। दूसरी वर्ष भी पास होने की आशा न थी। उसने गायत्री उपासना की और परीक्षा में अच्छे नम्बरों से पास हुआ।

सम्भलपुर के बाबू कौशलकिशोर माहेश्वरी असवर्ण माता- पिता से उत्पन्न होने के कारण जाति से बहिष्कृत थे। विवाह न होने के कारण उनका चित्त बड़ा दु:खी रहता था। गायत्री माता से अपना दु:ख रोकर चित्त हलका कर लेते थे। २६ वर्ष की आयु में उनकी शादी एक सुशिक्षित उच्च घराने की अत्यन्त रूपवती तथा सर्वगुण सम्पन्न कन्या के साथ हुई। माहेश्वरी जी के अन्य भाई- बहिनों की शादी भी उच्च तथा सम्पन्न परिवारों में हुई। जाति बहिष्कार के अपमान से उनका परिवार पूर्णतया मुक्त हो गया।

बहालपुर के राधाबल्लभ तिवारी के विवाह से १६ वर्ष बीत जाने पर भी सन्तान न हुई। उन्होंने गायत्री उपासना का आश्रय लिया। फलस्वरूप उन्हें एक कन्या और एक पुत्र की प्राप्ति हुई।

प्राचीनकाल में दशरथजी को गायत्री द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ करने पर और राजा दिलीप को गुरु वशिष्ठ के आश्रम में गायत्री उपासना करते हुए गो- दुग्ध का कल्प करने पर सुसन्तति की प्राप्ति हुई थी। राजा अश्वपति ने गायत्री यज्ञ करके सन्तान पाई थी। कुन्ती ने बिना पुरुष संभोग के गायत्री मन्त्र द्वारा सूर्य को आकर्षित करके कर्ण को उत्पन्न किया था।

दिल्ली में नई सडक़ पर श्री बुद्धूराम भट्ट नामक एक दुकानदार हैं। इनके ४५ वर्ष की आयु तक कोई सन्तान न हुई थी। गायत्री उपासना से उन्हें बड़ा ही सुन्दर तथा होनहार पुत्र प्राप्त हुआ।

गुरुकुल वृन्दावन के एक कार्यकर्ता सुदामा मिश्र के यहाँ १४ वर्ष से कोई बालक जन्मा नहीं था। गायत्री पुरश्चरण करने से उनके यहाँ एक पुत्र उत्पन्न हुआ और वंश चलने तथा घर के किवाड़ खुले रहने की चिन्ता दूर हो गयी।

सरसई के जीवनलाल वर्मा का तीन वर्ष का होनहार बालक स्वर्गवासी हो गया। उनका घर भर बालक के बिछोह से उद्विग्न था। उनने गायत्री की विशेष उपासना की। दूसरे मास उनकी पत्नी ने स्वप्न में देखा कि उनका बच्चा गोदी में चढ़ आया है और जैसे ही छाती से लगाना चाहा कि बच्चा उनके पेट में घुस गया है। इस स्वप्न के नौ महीने बाद जो बालक जन्मा, वह हर बात में उसी मरे हुए बालक की प्रतिमूर्ति था। इस बच्चे को पाकर उनका शोक पूर्णतया शान्त हो गया।

बैजनाथ भाई रामजी भाई भुलारे ने कई बार विद्वानों के द्वारा गायत्री अनुष्ठान कराए। उन्हें हर अनुष्ठान में आश्चर्यजनक लाभ हुआ। छ: कन्याओं के बाद उन्हें पुत्र प्राप्त हुआ। १७ साल पुराना बवासीर अच्छा हो गया और व्यापार में इतना लाभ हुआ, जितना कि इससे पहले कभी नहीं हुआ था। डोरी बाजार के पं. पूजा मिश्र का कथन है कि हमारे पिता जी पं. देवीप्रसाद जी एक गायत्री उपासक महात्मा के शिष्य थे। पिता जी की आर्थिक स्थिति खराब थी। उनको दु:खी देखकर महात्मा जी ने उन्हें गायत्री उपासना बताई। फलस्वरूप खेती में भारी लाभ होने लगा। छोटी- सी खेती की विशुद्ध आमदनी से उनकी हालत बहुत अच्छी हो गयी और बचत का २० हजार रुपया बैंक में जमा हो गया।

गुजरात के ईडर रियासत के निवासी पं. गौरीशंकर रेवाशंकर याज्ञिक ने १५ वर्ष की आयु से गायत्री उपासना आरम्भ कर दी थी और छोटी आयु में ही गायत्री के २४- २४ लाख के तीन पुरश्चरण किये थे। इसके फल से विद्या, ज्ञान तथा अन्य शुभ संस्कारों की इतनी वृद्धि हुई कि ये जहाँ गये, वहीं इनका आदर- सम्मान हुआ, सफलता प्राप्त हुई। इनके पूर्वज पूना में एक पाठशाला चलाते थे, जिसमें विद्यार्थियों को उच्चकोटि की धार्मिक शिक्षा दी जाती थी। गौरीशंकर जी ने उस पाठशाला को अपने घर पर ही चलाना आरम्भ किया और विद्यार्थियों को गायत्री उपासना का उपदेश देने लगे। इन्होंने यह नियम बना दिया कि जो असहाय विद्यार्थी अपने भोजन की व्यवस्था स्वयं न कर सकें, उनको एक हजार गायत्री जप प्रति दिन करने पर पाठशाला की तरफ से ही भोजन मिला करेगा। इसका परिणाम यह हुआ कि पूना के ब्राह्मणों में इनका घराना गुरु- गृह के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

जबलपुर के राधेश्याम शर्मा के घर में आये दिन बीमारियाँ सताती थीं। उनकी आमदनी का एक बड़ा भाग वैद्य, डॉक्टरों के घर में चला जाता था। जब से उनने गायत्री उपासना आरम्भ की, उनके घर से बीमारी पूर्णतया विदा हो गयी।

सीकर के श्री शिव भगवान जी सोमानी तपेदिक से सख्त बीमार पड़े थे। उनके साले, मालेगाँव के शिवरतन जी मारू ने उन्हें गायत्री का मानसिक जप करने की सलाह दी, क्योंकि वे अपने पारिवारिक कलह तथा स्त्री की अस्वस्थता से छुटकारा प्राप्त कर चुके थे। सोमानी जी की बीमारी इतनी घातक हो चुकी थी कि डॉक्टर विलमोरिया जैसे सर्जन को कहना पड़ा कि पसली की तीन हड्डियाँ निकलवा दी जाएँ, तो ठीक होने की सम्भावना है, अन्यथा पन्द्रह दिन में हालत काबू से बाहर हो जायेगी। वैसी भयंकर स्थिति में सोमानी जी ने गायत्री माता का आँचल पकड़ा और पूर्ण स्वस्थ हो गये।

श्रीगोवर्धन पीठ के शंकराचार्य जी ने अपनी पुस्तक ‘मन्त्र- शक्ति योग’ के पृष्ठ १६७ पर लिखा है कि राव मामलतदार पहाड़पुर कोल्हापुर वाले गायत्री मन्त्र से साँप के जहर को उतार देते हैं।

रोहेड़ा निवासी श्री नैनूराम को बीस वर्ष की पुरानी वात व्याधि थी और बड़ी- बड़ी दवाएँ करा लेने पर भी अच्छी न हुई थी। गायत्री उपासना द्वारा उनका रोग पूर्णतया अच्छा हो गया। विपरीत परिस्थितियों का प्रवाह बड़ा प्रबल होता है। उसके थपेड़े में जो फँस गया, वह विपत्ति की ओर बढ़ता ही जाता है। बीमारी, धन- हानि, मुकदमा, शत्रुता, बेकारी, गृह- कलह, विवाद, कर्ज आदि की शृंखला जब चल पड़ती है, तो मनुष्य हैरान हो जाता है। कहावत है कि विपत्ति अकेली नहीं आती, वह हमेशा अपने बाल- बच्चे साथ लाती है। एक मुसीबत आने पर उसकी साथिन सहित और भी कई कठिनाइयाँ उसी समय आती हैं। चारों ओर से घिरा हुआ मनुष्य अपने को चक्रव्यूह में फँसा- सा अनुभव करता है। ऐसे विकट समय में जो लोग निराशा, चिन्ता, भय, निरुत्साह, घबराहट, किंकर्तव्यविमूढ़ में पड़कर हाथ- पाँव चलाना छोड़ देते हैं, रोने- कलपने में लगे रहते हैं, वे अधिक समय तक अधिक मात्रा में कष्ट भोगते हैं।

विपत्ति और विपरीत परिस्थितियों की धारा से त्राण पाने के लिए धैर्य, साहस, विवेक और प्रयत्न की आवश्यकता है। इन चारों कोनों वाली नाव पर चढक़र ही संकट की नदी को पार करना सुगम होता है। गायत्री की साधना आपत्ति के समय इन चार तत्त्वों को मनुष्य के अन्तःकरण में विशेष रूप से प्रोत्साहित करती है, जिससे वह ऐसा मार्ग ढूँढऩे में सफल हो जाता है जो उसे विपत्ति से पार लगा दे।

आपत्तियों में फँसे हुए अनेकों व्यक्ति गायत्री की कृपा से किस प्रकार पार उतरे, उनके कुछ उदाहरण हमारी जानकारी में इस पकार हैं— घाटकोपर बम्बई के श्री आर. बी. वेद गायत्री की कृपा से घोर साम्प्रदायिक दंगों के दिनों में मुस्लिम बस्तियों से निर्भय होकर निकलते रहते थे। उनकी पुत्री को एक बार भयंकर हैजा हुआ। यह भी उसी के अनुग्रह पर शान्त हुआ। एक महत्त्वपूर्ण मुकदमे में भी अनुकूल फैसला हुआ।

इन्दौर, काँगड़ा के चौ. अमरसिंह एक ऐसी जगह बीमार पड़े, जहाँ की जलवायु बड़ी खराब थी और जहाँ कोई चिकित्सक खोजे न मिलता था। उस भयंकर बीमारी में गायत्री प्रार्थना को उन्होंने औषधि बनाया और अच्छे हो गये।

बम्बई के पं. रामशरण शर्मा जब गायत्री अनुष्ठान कर रहे थे, उन्हीं दिनों उनके माता- पिता सख्त बीमार हुए। परन्तु अनुष्ठान के प्रभाव से उनका बाल भी बाँका न हुआ, दोनों ही नीरोग हो गये।

इटौआधुरा के डॉक्टर रामनारायण जी भटनागर को उनकी स्वर्गीया पत्नी ने स्वप्न में दर्शन देकर गायत्री जप करने की शिक्षा दी थी। तब से वे बराबर इस साधना को कर रहे हैं। चिकित्सा क्षेत्र में उनके हाथ में ऐसा यश आया है कि बड़े- बड़े कष्टसाध्य रोगी उनकी चिकित्सा से अच्छे हुए हैं।

कनकुवा जि० हमीरपुर के लक्ष्मीनारायण श्रीवास्तव बी० ए० एल० एल० बी० की धर्मपत्नी प्रसवकाल में अत्यन्त कष्ट पीडि़त हुआ करती थी। गायत्री उपासना से उनका कष्ट बहुत कम हो गया। एक बार उनका लडक़ा मोतीझरा से पीडि़त हुआ। बेहोशी और चीखने की दशा को देखकर सब लोग बड़े दु:खी थे। वकील साहब की गायत्री प्रार्थना के द्वारा बालक को गहरी नींद आ गयी और वह थोड़े ही दिनों में स्वस्थ हो गया।

जफरापुर के ठा० रामकरण सिंह जी वैद्य की धर्मपत्नी को दो वर्ष से संग्रहणी की बीमारी थी। अनेक प्रकार से चिकित्सा कराने पर भी जब लाभ न हुआ, तो सवालक्ष गायत्री जप का अनुष्ठान किया गया। फलस्वरूप वह पूर्ण स्वस्थ हो गयीं और उनके एक पुत्र पैदा हुआ।

कसराबाद, निमाड़ के श्री शंकरलाल व्यास का बालक इतना बीमार था कि डाक्टर वैद्यों ने आशा छोड़ दी। दस हजार गायत्री जप के प्रभाव से वह अच्छा हुआ।

एक बार व्यास जी रास्ता भूलकर रात के समय ऐसे पहाड़ी बीहड़ जंगल में फँस गये, जहाँ हिंसक जानवर चारों ओर शोर करते हुए घूम रहे थे। इस संकट के समय में उन्होंने गायत्री का ध्यान किया और उनके प्राण बच गये।

विहिया, शाहाबाद के श्री गुरुचरण आर्य एक अभियोग में जेल भेज दिये गये। छुटकारे के लिये वे जेल में जप करते रहते थे। वे अचानक जेल से छूट गये और मुकदमे में निर्दोष बरी हो गये।

मुन्द्रावजा के श्री प्रकाश नारायण मिश्र कक्षा १० की पढ़ाई में पारिवारिक कठिनाइयों के कारण ध्यान न दे सके ।। परीक्षा के २५ दिन रह गये, तब उन्होंने पढऩा और गायत्री का जप करना आरम्भ किया। उत्तीर्ण होने की आशा न थी, फिर भी उन्हें सफलता मिली। मिश्र जी के बाबा शत्रुओं के ऐसे कुचक्र में फँस गये कि जेल जाना पड़ा। गायत्री अनुष्ठान के कारण वे उस आपत्ति से बच गये ।।

काशी के पं० धरनीदत्त शास्त्री का कथन है कि उनके दादा पं० कन्हैयालाल गायत्री के उपासक थे। बचपन में शास्त्री जी अपने दादा के साथ रात के समय कुएँ पर पानी लेने गये ।। उन्होंने देखा कि वहाँ पर एक भयंकर प्रेत आत्मा है जो कभी भैंसा बनकर, कभी शूकर बनकर उन पर आक्रमण करना चाहती है। वह कभी मुख से, कभी सिर से भयंकर अग्रि ज्वालाएँ फेंकता रहा और कभी मनुष्य, कभी हिंसक जन्तु बनकर एक- डेढ़ घण्टे तक भयोत्पादन करता रहा। दादा ने मुझे डरा हुआ देखकर समझा दिया कि बेटा, हम गायत्री उपासक हैं, यह प्रेत आत्मा हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। अन्त में वे दोनों सकुशल घर को गये, प्रेत का क्रोध असफल रहा।

‘‘सनाढ्य जीवन’’ इटावा के सम्पादक पं० प्रभुदयाल शर्मा का कथन है कि उनकी पुत्रवधू तथा नातियों को कोई दुष्ट प्रेतात्मा लग गयी थी। हाथ, पैर और मस्तक में भारी पीड़ा होती थी और बेहोशी आ जाती थी। रोग- मुक्ति के जब सब प्रयत्न असफल हुए, तो गायत्री का आश्रय लेने से वह बाधा दूर हुई। इसी प्रकार शर्मा जी का भतीजा भी मृत्यु के मुँह में अटका था। उसे गोदी में लेकर गायत्री का जप किया गया, बालक अच्छा हो गया। शर्मा जी के ताऊ जी दानापुर (पटना) गये हुए थे। वहाँ वे स्नान के बाद गायत्री का जप कर रहे थे कि अचानक उनके कान में जोर से शब्द हुआ- ‘जल्दी निकल भाग, यह मकान अभी गिरने वाला है।’ वे खिडक़ी से कूद कर भागे। मुश्किल से चार- छ: कदम गये होंगे कि मकान गिर पड़ा और वे बाल- बाल बच गये।

शेखपुरा के अमोलकचन्द्र गुप्ता बचपन में ही पिता की और किशोरावस्था में माता की मृत्यु हो जाने से कुसंग में पडक़र अनेक बुरी आदतों में फँस गये थे। दोस्तों की चौकड़ी दिनभर जमी रहती और ताश, शतरंज, गाना- बजाना, वेश्या- नृत्य, सिगरेट, शराब, जुआ, व्यभिचार, नाच- तमाशा, सैर- सपाटा, भोजन पार्टी आदि के दौर चलते रहते। इसी कुचक्र में पाँच वर्ष के भीतर नकदी, जेवर, मकान और बीस हजार की जायदाद स्वाहा हो गयी। जब कुछ न रहा, तो जुए के अड्डे, व्यभिचार की दलाली, चोरी, जेबकटी, लूट, धोखाधड़ी आदि की नई- नई तरकीबें निकालकर एक छोटे गिरोह के साथ अपना गुजारा करने लगे। इसी स्थिति में उनका चित्त बड़ा अशान्त रहता। एक दिन एक महात्मा ने उन्हें गायत्री का उपदेश दिया। उनकी श्रद्धा जम गयी। धीरे- धीरे उत्तम विचारों की वृद्धि हुई। पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त की भावना बढऩे से उन्होंने चान्द्रायण व्रत, तीर्थ, अनुष्ठान और प्रायश्चित्त किये। अब वे एक दुकान करके अपना गुजारा करते हैं और पुरानी बुरी आदतों से मुक्त हैं।

रानीपुरा के ठा० अङ्गजीत राठौर एक डकैती के केस में फँस गये थे। जेल में गायत्री का जप करते रहते थे। मुकदमे में निर्दोष हो छुटकारा पाया। अम्बाला के मोतीलाल माहेश्वरी का लडक़ा कुसंग में पडक़र ऐसी बुरी आदतों का शिकार हो गया था, जिससे उनके प्रतिष्ठित परिवार पर कलंक के छींटे पड़ते थे। माहेश्वरी जी ने दु:खी होकर गायत्री की शरण ली। उस तपश्चर्या के प्रभाव से लडक़े की मति पलटी और अशान्त परिवार में शान्त वातावरण उत्पन्न हो गया।

टोंक के श्री शिवनारायण श्रीवास्तव के पिता जी के मरने पर जमींदारी की दो हजार रुपये सालाना आमदनी पर गुजारा करने वाले १९ व्यक्ति रह गये। परिश्रम कोई न करता, पर खर्च सब बढ़ाते और जमींदारी से माँगते। निदान वह घर फूट और कलह का अखाड़ा बन गया। फौजदारी और मुकदमेबाजी के आसार खड़े हो गये। श्रीवास्तव जी को इससे बड़ा दु:ख होता, क्योंकि वे पिताजी के उत्तराधिकारी गृहपति थे। दु:खी होकर एक महात्मा के आदेशानुसार उन्होंने गायत्री जप आरंभ किया। परिस्थिति बदली। बुद्धियों में सुधार हुआ। कमाने लायक लोग नौकरी तथा व्यापार में लग गये। झगड़े शान्त हुए। डगमगाता हुआ घर बिगडऩे से बच गया।

अमरावती के सोहनलाल मेहरोत्रा की स्त्री को भूत बाधा बनी रहती थी। बड़ा कष्ट था, हजारों रुपये खर्च हो चुके थे। स्त्री दिन- दिन घुलती जाती थी। एक दिन मेहरोत्रा जी से स्वप्न में उनके पिता जी ने कहा- ‘बेटा, गायत्री का जप कर, सब विपत्ति दूर हो जायेगी।’ दूसरे दिन से उन्होंने वैसा ही किया। फलस्वरूप उपद्रव शान्त हो गये और स्त्री नीरोग हो गयी। उनकी बहिन की ननद भी इस गायत्री जप द्वारा भूत बाधा से मुक्त हुई।

चाचौड़ा के डाँ० भगवान् स्वरूप की स्त्री भी प्रेत बाधा में मरणासन्न स्थिति को पहुँच गयी थी। उसकी प्राण रक्षा भी एक गायत्री उपासक के प्रयत्न से हुई। बिझौली के बाबा उमाशंकर खरे के परिवार से गाँव के जाट परिवार की पुश्तैनी दुश्मनी थी। इस रंजिश के कारण कई बार खरे के यहाँ डकैतियाँ हो चुकी थीं और बड़े- बड़े नुकसान हुए थे। सदा ही जान- जोखिम का अन्देशा रहता था। खरे जी ने गायत्री भक्ति का मार्ग अपनाया। उनके मधुर व्यवहार ने अपने परिवार को शान्त स्वभाव और गाँव को नरम बना लिया। पुराना बैर समाप्त होकर नई सद्भावना कायम हुई।

खडग़पुर के श्री गोकुलचन्द सक्सेना रेलवे के लोको दफ्तर में कर्मचारी थे। इनके दफ्तर में ऊँचे ओहदे के कर्मचारी उनसे द्वेष करते थे और षड्यन्त्र करके उनकी नौकरी छुड़ाना चाहते थे। उनके अनेकों हमले विफल हुए। सक्सेना जी का विश्वास है कि गायत्री उनकी रक्षा करती है और उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता ।।

बम्बई के श्री मानिकचन्द्र पाटोदिया व्यापारिक घाटे के कारण काफी रुपये के कर्जदार हो गये थे। कर्ज चुकाने की कोई व्यवस्था हो नहीं पायी थी कि सट्टे में और भी नुकसान हो गया। दिवालिया होकर अपनी प्रतिष्ठा खोने और भविष्य में दु:खी जीवन बिताने के लक्षण स्पष्ट रूप से सामने थे। विपत्ति में सहायता के लिये उन्होंने गायत्री अनुष्ठान कराया। साधना के प्रभाव से दिन- दिन लाभ होने लगा। रुई और चाँदी के चान्स अच्छे आ गये, जिसमे सारा कर्ज चुक गया। गिरा हुआ व्यापार फिर चमकने लगा।

दिल्ली के प्रसिद्ध पहलवान गोपाल विश्नोई कोई बड़ी कुश्ती लडऩे जाते थे, तो पहले गायत्री पुरश्चरण करते थे। प्राय: सदा ही विजयी होकर लौटते थे। बाँसवाड़ा के श्री सीताराम मालवीय को क्षय रोग हो गया था। एक्सरे होने पर डॉक्टरों ने बताया कि उनके फेफड़े खराब हो गये हैं। दशा निराशाजनक थी। सैकड़ों रुपये की दवा खाने पर भी जब कुछ आराम न हुआ, तो एक वयोवृद्ध विद्वान् के आदेशानुसार उन्होंने चारपाई पर पड़े- पड़े गायत्री का जप आरम्भ कर दिया और मन ही मन प्रतिज्ञा की कि यदि मैं बच गया, तो अपना जीवन देश हित में लगा दूँगा ।। प्रभु की कृपा से वे बच गये। धीरे- धीरे स्वास्थ्य सुधरा और बिलकुल भले चंगे हो गये ।। तब से अब तक वे आदिवासियों, भीलों तथा पिछड़ी हुई जातियों के लोगों की सेवा में लगे हुए हैं।

थरपारकर के ला० करनदास का लड़का बहुत ही दुबला और कमजोर था, आये दिन बीमार पड़ा रहता था। आयु १९ वर्ष की हो चुकी थी, पर देखने में १३ वर्ष से अधिक न मालूम पड़ता था। लडक़े को उनके कुलगुरु ने गायत्री की उपासना का आदेश दिया। उसका मन इस ओर लग गया। एक- एक करके उसकी सब बीमारियाँ छूट गयीं। कसरत करने लगा, खाना भी हजम होने लगा। दो- तीन वर्ष में उसका शरीर ड्यौढ़ा हो गया और घर का सब काम- काज होशियारी के साथ सँभालने लगा।

प्रयाग के श्री मुन्नूलाल जी के दौहित्र की दशा बहुत खराब हो गयी थी। गला फूल गया था। डॉक्टर अपना प्रयत्न कर रहे थे, पर कोई दवा कारगर नहीं होती थी। तब उनके घरवालों ने गायत्री उपासना का सहारा लिया। रातभर गायत्री जप तथा चालीसा पाठ चलता रहा। सबेरा होते- होते दशा बहुत कुछ सुधर गयी और दो- चार दिन में वह पुन: खेलने- कूदने लगा।

आगरा निवासी श्री रामकरण जी किसी के यहाँ निमन्त्रण पाकर भोजन करने गये। वहाँ से घर लौटते ही उनका मस्तिष्क विकृत हो गया। वे पागल होकर इधर- उधर फिरने लगे। एक दिन उन्होंने अपनी जाँघ में ईंट मारकर उसे खूब सूजा लिया। उनका जीवन निरर्थक जान पड़ने लग गया था। एक दिन कुछ लोग परामर्श करके उन्हें पकडक़र जबरदस्ती गायत्री उपासक के पास ले आये। उन्होंने उनकी कल्याण भावना से चावल को गायत्री मन्त्र से अभिमन्त्रित करके उनके शरीर पर छींटे मारे, जिससे वे मूर्छित के समान गिर गये। कुछ देर बाद वे उठे और पीने को पानी माँगा। उन्हें गायत्री मन्त्र से अभिमन्त्रित जल पिलाया गया, जिससे कुछ समय में वे बिल्कुल ठीक हो गये।

श्री नारायण प्रसाद कश्यप राजनाँदगाँव वालों के बड़े भाई पर कुछ लोगों ने मिलकर एक फौजदारी का मुकदमा चलाया। वह मुकदमा चार वर्ष तक चला। इसी प्रकार उनके छोटे भाई पर कत्ल का अभियोग लगाया। इन लोगों ने गायत्री माता का आँचल पकड़ा और दोनों मुकदमों में से इन्हें छुटकारा मिला।

स्वामी योगानन्द जी संन्यासी को कुछ म्लेच्छ अकारण बहुत सताते थे। उन्हें गायत्री का आग्नेयास्त्र सिद्ध था, उसका उन्होंने उन म्लेच्छों पर प्रयोग किया, तो उनके शरीर ऐसे जलने लगे मानो किसी ने अग्रि लगा दी हो। वे मरणतुल्य कष्ट से छटपटाने लगे। तब लोगों की प्रार्थना पर स्वामीजी ने उस अन्तर्दाह को शान्त किया। इसके बाद वे सदा के लिये सीधे हो गये।

नन्दनपुरवा के सत्यनारायण जी एक अच्छे गायत्री उपासक हैं। इन्हें अकारण सताने वाले गुण्डों पर ऐसा वज्रपात हुआ कि एक भाई २४ घण्टे के अन्दर हैजे से मर गया और शेष भाइयों को पुलिस डकैती के अभियोग में पकडक़र ले गयी। उन्हें पाँच- पाँच वर्ष की जेल काटनी पड़ी।

इस प्रकार के अनेकों प्रमाण मौजूद हैं, जिससे यह प्रकट होता है कि गायत्री माता का आँचल श्रद्धापूर्वक पकडऩे से मनुष्य अनेक प्रकार की आपत्तियों से सहज में छुटकारा पा सकता है। अनिवार्य कर्म- भोगों एवं कठोर प्रारब्ध में भी कई बार आश्चर्यजनक सुधार होते देखे गये हैं।

गायत्री उपासना का मूल लाभ आत्म- शान्ति है। इस महामन्त्र के प्रभाव से आत्मा में सतोगुण बढ़ता है और अनेक प्रकार की आत्मिक समृद्धियाँ बढ़ती हैं, साथ ही अनेक प्रकार के सांसारिक लाभ भी मिलते हैं।

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