गुम्बज़
गुम्बद या गुम्बज़ एक वास्तुकला का सामान्य रचना अवयव है, जो कि एक खाली गोलार्ध से चिन्हित है।
गुम्बद के अनुप्रस्थ परिच्च्हेद का पूर्ण गोला होना आवश्यक नहीं है। इसका अनुप्रस्थ अंडाकार भी हो सकता है। यदि अंडाकार आकृति के बडे़ व्यास के समानांतर, गुम्बद की आधार रेखा होती है, तब हमें एक ऊँचा गुम्बद मिलता है। इसी तरह यदि छोटे व्यास के समानांतर आधार रेखा होती है, तब हमें तश्तरी गुम्बद या सॉकर गुम्बद मिलता है, परंतु यह बडे़ क्षेत्र को घेरता है। गुम्बद के सभी सतह वक्राकार होते हैं। अंडाकार गुम्बद अधिकतर गिरजाघरों में दिखते हैं।[1] सबसे बडा़ अंडाकार गुम्बद वोकोफोर्ट के बैसिलिका में बना था।
परिचय
संपादित करेंगुंबद ऊँची और आकार में गोलार्ध या उससे भी न्यूनाधिक गोल छत को कहते हैं। सभ्यता के आरंभ से ही, जब कभी गुफावासी कहीं झोपड़ीवासियों के संपर्क में आए होंगे, उनकी गोल झोपड़ी देखकर शायद उसकी आकृति से आकर्षित हुए होंगे। किंतु ईंट-पत्थर से ऐसी गोल छत बनाने की समस्या का संतोषजनक हल प्राप्त होने का समय निर्माणकला के इतिहास में संभवत: बहुत पुराना नहीं है।
- येरूशलम की चट्टान का गुंबद, 7 वीं शती ईसवी;
- कैसरीय, अनातोलिया, 12वीं शती ई.;
- समरकंद, 14वीं शती ई.;
- नासिरुद्दीन मुहममद का मकबरा, दिल्ली, 1231 ई.;
- अलाई दरवाजा, दिल्ली, 1310 ई.;
- गयासुद्दीन तुगलक का मकबरा, दिल्ली, 1325 ई.;
- मोहम्मद शाह सैयद का मकबरा, दिल्ली, 1444;
- लोदियों के मकबरे, दिल्ली, 1500 ई.;
- रुक्ने आलम का मकबरा, मुलतान, 1325 ई.;
- जामा मस्जिद, जौनपुर, 1470 ई.;
- होशंग का मकबरा, मांड, 1440 ई.;
- जामी मसजिद, गुलबर्ग, 1367ई.;
- बीजापुरी गुंबद, 16 वीं शती ई.;
- हुमायूँ का मकबरा, दिल्ली, 1564 ई.;
- खानखाना का मकबरा, दिल्ली, 1627 ई.;
- ताजमहल, आगरा, 1634 ई. तथा
- सफदरजंग का मकबरा, दिल्ली, 1753 ई.।
निनेवे (इराक का एक प्राचीन नगर) में प्राप्त एक उत्कीर्ण शिलाखंड से अनुमान लगाया जाता है कि संभवत: असीरिया के प्राचीन निवासियों ने ऐसी छत बनाने के कुछ प्रयत्न किए थे; किंतु उनके कोई अवशेष नहीं मिलते। सन् 112 ई. का बना सबसे बड़ा और सुंदर गुंबद रोम में मिला है उसके बाद के, 4 थी या 5 वीं सदी ईसवी के अनेक नमूने ईरान के सारविस्तान और फ़ीरोजाबाद में हैं। सारविस्तान के महलों का गुंबद ही संभवत: चतुर्भुज कक्ष पर बने हुए वास्तविक गुंबद का सर्वप्रथम नमूना है। मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा सन् 637 ई. में बुरी तरह नष्ट भ्रष्ट की हुई ईरानी बादशाहों की भव्य राजधानी तेज़ीफ़न के कतिपय अवशेष, खुसरो प्रथम के महल के खंडहर भी हैं। इसकी 95’ ऊँची और 83 चौड़ी भीमकाय डाट वाली छत अब भी सिर उठाए तत्कालीन कौशल की कथा कहती है।
भारत में अति प्राचीन काल से ही दीवारों से ईटें (या पत्थर) निकाल प्रत्येक रद्दा आगे बढ़ाते हुए छत पाटने का चलन था, किंतु वे रद्दे समतल ही होते थे। फलत: शिखर अनिवार्यत: ऊँचे हो जाते थे। वास्तविक डाट का सिद्धांत संभवत अज्ञात ही था। तोरण (जो वास्तविक डाट के सिद्धांत पर बने) तथा गुंबद मध्यपूर्व की देन हैं। अब तक सीधे नीचे की ओर भार डालनेवाले पट रद्दों की सूखी चिनाई पर आधारित भारतीय निर्माणशैली में एक मोड़ आया और मुस्लिम काल की प्रसिद्ध इमारतों में गुंबदों को विशिष्ट स्थान मिला। बीजापुर में मुहम्मद अलीशाह के मकबरे के ऊपर संसार का विशालतम गुंबद (भीतरी चौड़ाई 135’ ऊँचाई 178’) खडा है। ईटों के पट रद्दे मोटे मसाले में जमाकर निर्मित लगभग 10’ मोटाई का यह गुंबद भारतीय वास्तुकौशल का विजयस्तंभ ही है।
धीरे-धीरे मस्जिदों और मकबरों के रूप में गुंबद देश भर में फैले और उत्तर भारत में तो मंदिरों में भी अनिवार्यत: प्रयुक्त होने लगे। मुगलकालीन कृतियों में आगरे के ताजमहल का उल्लेख ही पर्याप्त होगा, जिसके प्रति विश्व भर के दर्शक आकर्षित होते हैं। अंग्रेजों के समय में भी अनेक ऐतिहासिक भवनों में गुंबद का उपयोग हुआ और अब भी मंदिरों के अतिरिक्त, अन्य अनेक भवनों का शीर्षस्थान इन्हीं के लिए सुरक्षित रखा जाता है।
पश्चिमी देशों में भी गुंबदों का उपयोग अनेक प्रमुख गिरजाघरों की छतों में हुआ है। इन पर कभी कभी परंपरागत शिखर का रूप देने के लिए लकड़ी का बाहरी आवरण भी लगाया जाता रहा है।
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 1 नवंबर 2006 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 23 अप्रैल 2008.