गोविन्द तृतीय ध्रुव धारवर्ष का पुत्र था।

ध्रुव ने १३ वर्षों तक सफलतापूर्वक शासन करने के बाद संभवत: अपने जीवनकाल में अपने तीसरे और योग्यतम पुत्र गोविंद (तृतीय) को ७९३ ई. के आसपास राज्याभिषिक्त कर दिया। उसके पूर्व गोविंद का युवराजपद पर विधिवत् अभिषेक हो चुका था। इसका कारण था एक ओर ध्रुव की अपने गोविंद को राज्याधिकारी बनाने की इच्छा और दूसरी ओर उसका यह भय कि उसके बड़े लड़के अपना अधिकार पाने के लिये उसकी मृत्यु के बाद कहीं उत्तराधिकार का युद्ध न आरंभ कर दें। साथ ही ध्रुव ने अपने अन्य पुत्रों को अपने साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों का प्रांतीय शासक नियुक्त कर दिया। परंतु गोविंद तृतीय की सैनिक योग्यता और राजनीतिक दक्षता मात्र से प्रभावित होकर अथवा अपने पिता के द्वारा उसकी राजगद्दी का उत्तराधिकार दे दिये जाने से ही संतुष्ट होकर वे भी चुप बैठनेवाले न थे। गोविंद तृतीय के सबसे बड़े भाई स्तंभ ने अपने पिता ध्रुव के मरने के बाद उत्तराधिकार के लिये अपनी शक्ति आजमाने की ठानी। उसे कुछ सामंत राजाओं की भी शह प्राप्त हो गई, जिनकी संख्या कुछ राष्ट्रकूट अभिलेखों में १२ बताई गई है। पहले तो गोविंद तृतीय ने अपने अन्य भाइयों के तरह स्तंभ को भी प्रसन्न करना चाहा, पर उसे कोई सफलता न मिली और दोनों में युद्ध होकर ही रहा। गोविंद के छोटे भाई इंद्र ने उसकी मदद की। युद्ध में स्तंभ की हार हुई परंतु गोविंद ने उसके प्रति नरमी की ही नीति अपनाई और उसे अपनी ओर से गंग प्रदेश का प्रशासक नियुक्त कर दिया।

राजगद्दी पर सुस्थित होकर गोविंद ने विद्रोही सामंतों को दबाने और अपनी अधिराज्यशक्ति के विस्तार की ओर ध्यान दिया। गंग शासक शिवभार राष्ट्रकूटों के द्वारा कैद किया जा चुका था पर कैद से मुक्ति पाकर उसने स्वतंत्रता की प्रवृत्ति दिखाई और राष्ट्रकूट अधिसत्ता को उठा फेंकने की कोशिश की। गोविंद ने उसे तुरंत परास्त किया, वह पुन: बंदी बना और गंगवाड़ी को राष्ट्रकूट साम्राज्य के भीतर मिला लिया गया। स्तंभ पुन: वहाँ का गवर्नर नियुक्त किया गया। तत्पश्चात् गोविंद ने काँची के शासक को हराया पर उसकी वह विजय स्थायी न थी और थोड़े ही दिनों बाद उसेकांची पर दूसरा अभियान करना पड़ा। पुन: उसने वेंगी के पूर्वी चालुक्य शासक विजयादित्य पर आक्रमण कर उसको अपनी भृत्योपयुक्त सेवा के लिये विवश किया। दक्षिण के प्राय: समस्त राज्यों पर अपना आधिपत्य जमा लेने के बाद गोविंद ने उत्तर की राजनीति को प्रभावित करना शुरू कर दिया। उसके पिता ध्रुव ने गुर्जर प्रतिहार शासक वत्सराज और पालराज धर्मपाल दोनों ही को परास्त कर उत्तर भारत की दिग्विजय की थी। परंतु उसके बाद उत्तर भारतीय रंगमंच पर अनेक नए दृश्य उपस्थित हुए थे। धर्मपाल ने चक्रायुध को अपने नामांकित और करद के रूप में कान्यकुब्ज की गद्दी पर बिठाने में सफलता पा ली थी, परंतु वत्सराज के उत्तराधिकारी नागभट्ट द्वितीय ने तुंरत पासा पलट दिया और कन्नौज का स्वामी बन गया। ऐसी ही परस्थितियों में गोविंद तृतीय ने उत्तर भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप किया और अपने विजयी अभियान प्रारंभ कर दिए। कुशल राजनीतिज्ञ और दक्ष सेनापति के अनुरूप उन अभियानों के पूर्व अपने पार्श्वों की सुरक्षा का पूर्ण प्रबंध कर लिया था। उसी नीति में उसने इंद्र को मालवा और गुजरात में गुर्जर प्रतिहारों के किसी आकस्मिक बढ़ाव को रोकने के लिय रख छोड़ा पश्चात् नागभट्ट और गोविंद के बीच कहीं बुंदेलखंड में युद्ध हुआ जहाँ गुर्जर प्रतिहार सेनाओं को मुँहकी खानी पड़ी और नागभट्ट को स्वयं अपनी रक्षा के लिये किसी अज्ञात स्थान की शरण लेनी पड़ी। तत्पश्चात् गोविंद की सेनाएँ हिमालय की ओर बढ़ीं और कहीं रास्ते में धर्मपाल और चक्रायुध ने भी उसकी अधीनता मान ली। लौटते समय भी गोविंद की सेनाओं ने दक्षिण पूर्वी मध्यभारत एवं बंगाल तथा उड़ीसा के अनेक क्षेत्रों को जीता। परंतु गोविंद का सारा उत्तर भारतीय अभियान दिग्विजय मात्र था और उसका राष्ट्रकूटों की सैनिक प्रतिष्ठा की वृद्धि के अतिरिक्त कोई विशेष प्रभाव न हुआ। उससे राष्ट्रकूट साम्राज्य सेना की उत्तर में कोई वृद्धि न हुई। इसका मुख्य करण दूरी थी। उसके उन अभियानों का समय अब प्राय: ८००-८०२ ई. के बीच माना जाता है।

उत्तर भारतीय अभियानों से निवृत्त होकर गोविंद ने पुन: एक बार दक्षिण में अपनी सैनिक शक्तियों का प्रदर्शन किया। कारण था उधर के कुछ शासकों में स्वतंत्रता की भावना का उदय। परंतु उन्हें दबाने के पूर्व उसने पश्चिमी भारत में भड़ौच की ओर प्रयाण किया था, जहाँ श्रीभवन (आधुनिक सरभोन) के राजा ने उसका स्वागत किया। श्रीभवन से वह दक्षिण की ओर बढ़ा। गंगवाड़ी, केरल, पांड्य, चोल और कांची के राजाओं न उसके विरुद्ध एक सैनिक संघ की स्थापना कर ली थी परंतु युद्ध में वे सभी हार गए और उनके असंख्य सैनिक खेत रहे। गोविंद की सेनाओं ने कांची पर कब्जा कर लिया और पांड्य तथा चोल क्षेत्रों को रौंदा। गोविंद की सैनिक सफलताआंे से सिंहल का राजा भयभीत हो उठा और उसने भी उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।

स्पष्ट है कि गोविंद तृतीय राष्ट्रकूटों में अत्यधिक योग्य और सफल शासक हुआ और वह अपने समय की दक्षिण तथा उत्तर भारतीय राजनीति को समान रूप से प्रभावित करता रहा। सैनिक और राजनीतिक प्रतिष्ठा की दृष्टि से उसे समसामयिक भारत का सर्वप्रमुख शासक कहा जा सकता है। उसने अपने समय में राष्ट्रकूट राजवंश की सबसे अधिक श्रीवृद्धि की और उसकी सफलताओं के पीछे उसकी निजी वीरता, कूटनीतिज्ञता और संघटनशक्ति भरपूर मात्रा में लगी हुई थी। इस प्रकार लगभग २०- २१ वर्षों तक अत्यंत योग्यता और सफलतापूर्वक शासन करने के बाद ८१४ ई. में गोविंद तृतीय की मृत्यु हो गई।