गोस्वामी गोकुलनाथ
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गोस्वामी श्रीगोकुलनाथ श्रीवल्लभ संप्रदाय - पुष्टिमार्ग की आचार्य परंपरा में वचनामृत पद्धति के यशस्वी प्रचारक के रूप में विख्यात हैं। आप गोस्वामी श्रीगुसांईजी (श्रीविट्ठलनाथ) के चतुर्थ पुत्र थे। आपका प्रादुर्भाव संवत् 1608, मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी को प्रयाग के समीप अड़ैल में हुआ था। आपके जन्मदिवसको महाऔच्छव के रूपमें मनाया जाता हैं। गोस्वामी श्रीविट्ठलनाथ के सातों पुत्रों में श्रीगोकुलनाथ सबसे अधिक मेधावी, प्रतिभाशाली, पंडित और वक्ता थे। सांप्रदायिक गूढ़ गहन सिद्धांतों का आपने विधिवत् अध्ययन किया था और उनके मर्मोद्घाटन की विलक्षण शक्ति आपको प्राप्त हुई थी। सांप्रदायिक सिद्धांतों के प्रचार और प्रसार में अपने पिता के समान आपका भी बहुत योगदान है। संस्कृत भाषा के साथ ही हिंदी काव्य और संगीत का भी आपने गोविन्दस्वामी से अध्ययन किया था, जिसका उपयोग आपने प्रचार कार्य में किया।
श्रीगोकुलनाथ की वैष्णव जगत् में ख्याति के विशेषत: दो कारण बताए जाते है। पहला कारण यह है कि इन्होंने अपने संप्रदाय के वैष्णव भक्तों के चारित्रिक दृष्टांतों द्वारा सांप्रदायिक उपदेश देने की लोकप्रिय प्रथा का प्रवर्तन किया। इन कथाओं को ही हिंदी साहित्य में 'वार्ता साहित्य' का नाम दिया गया है। आपकी प्रसिद्धि का दूसरा कारण सांप्रदायिक अनुश्रुतियों में 'माला-तिलक प्रसंग' नाम से अभिहित किया जाता है। इस मालाप्रसंग के कारण, कहा जाता है कि, श्रीगोकुलनाथ जी को वैष्णव जगत् में सार्वदेशिक यश और सम्मान प्राप्त हुआ था। मालाप्रसंग का संबंध एक ऐतिहासिक घटना से बताया जाता है। वंसत् 1674 में बादशाह जहाँगीर की उज्जैन और मथुरा में एक वेदांती संन्यासी चिद्रूप से भेंट हुई जिसकी विस्पृह साधना से बादशाह मुग्ध था। वैष्णवों में प्रचलित है कि उसके कहने पर बादशाह ने वैष्णवों के बाह्य चिन्हों (माला (तुलसी की कंठी) और उर्ध्वपुंद्र तिलक) के धारण करने पर प्रतिबंध लगा दिया। इस निषेधाज्ञा को हटवाने में श्रीगोकुलनाथजी ने सफलता पाई। श्रीगोकुलनाथजी के भक्तोने इस प्रसंग का सुविस्तार वर्णन किया हैं, मलोद्धार प्रसंग के ३ मांगल्यमें वर्णित हैं। श्रीगोकुलनाथजी के विषय में यह मिलता है कि उन्होंने जहाँगीर से गोस्वामियों के लिए नि:शुल्क चरागाह प्राप्त किए थे। उनका यश और सम्मान पुष्टिमार्गी भक्त-समाज में इससे अधिक बढ़ गया। चिद्रूप की लोकप्रियता कम हुई अथवा नहीं, किन्तु श्रीगोकुलनाथजी का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता गया। आगे चलकर इसका स्पष्ट प्रभाव उनकी कृतियों पर पड़ा। वार्ता साहित्य के यशस्वी कृतिकार एवं प्रचारक के रूप में उनका नाम बड़े आदर से लिया जाता है। वैष्णव मत के सिद्धांतों और भक्ति की रसानुभूति में उनकी लेखनी खूब चली।
हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथों में श्रीगोकुलनाथजी का उल्लेख उनके 'वार्ता साहित्य' के कारण हुआ है। गोकुलनाथ रचित दो वार्ता ग्रंथ प्राप्त हैं। पहला 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' और दूसरा 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता'। इन दोनों की प्रामाणिकता और श्रीगोकुलनाथजी रचित होने में विद्वानों में प्रारंभ से ही मतभेद रहा है, किंतु नवीनतम शोध और अनुशीलन से यह सिद्ध होता जा रहा है कि मूल वार्ताओं का कथन श्रीगोकुलनाथजी ने ही किया था। इन वार्ताओं से वल्लभ संप्रदायी कवियों तथा वैष्णव भक्तों का परिचय प्राप्त करने में अत्यधिक सहायता प्राप्त हुई है। अत: इनको अप्रामाणिक कहकर उपेक्षणीय नहीं माना जा सकता। सांप्रदायिक पंरपराओं के अध्ययन से यह विदित होता है कि श्रीगोकुलनाथजी ने सर्वप्रथम अपने तात-चरण श्रीवल्लभाचार्यजी के शिष्यों-सेवकों का वृत्तांत मौखिक रूप से 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' के रूप में कहा और तदनंतर अपने पिता श्रीविट्ठलनाथजी के शिष्यों-सेवकों का चरित्र 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' में सुनाया, यद्यपि श्रीगोकुलनाथजी ने स्वयं इन वार्ताओं को नहीं लिखा। लेखन और संपादन का कार्य उनके शिष्य करते थे। विशेष रूप से गुसाई हरिराय ने वार्ता के ऊपर 'भाव प्रकाश' लिखकर इन वार्ताओं का पल्लवन करते हुए इनमें विस्तार के साथ कतिपय समसामयिक घटनाओं का भी समावेश कर दिया। इन घटनाओं में औरंगजेब के आक्रमणों की बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। वस्तुत: हरिराय जी ने अपने काल की वर्तमानकालिक घटनाओं को भाव प्रकाशन तथा पल्लवन के समय जोड़ा था। मूल वार्ताओं में वे घटनाएँ नहीं थीं। परवर्ती संपादकों और लिपिकारों ने अनेक नवीन प्रसंग जोड़कर वार्ताओं को बहुत भ्रामक बना दिया है। किंतु वार्ताओं की प्राचीनतम प्रतियों में उन घटनाओं का वर्णन न होने से अनेक भ्रांतियों का निराकरण हो जाता है। वार्ता साहित्य का हिंदी गद्य के क्रमिक विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है और अब उनका विधिवत् मूल्यांकन होने लगा है। गोकुलनाथ जी रचित कुछ और ग्रंथ भी उपलब्ध हैं जिनमें 'वनयात्रा', 'नैत्य-सेवा-प्रकार', 'बैठक चरित्र', 'घरू वार्ता', 'भावना', 'हास्य प्रसंग' २४ वचनामृत, वार्ता साहित्य, सैद्धांतिक ग्रंथो के ऊपर उनके विशेष भाष्य आदि हैं।
गोकुलनाथ जी की ख्याति का एक कारण उनकी सांप्रदायिक विशेषता भी है। गोकुलनाथ के इष्टदेव का स्वरूप 'गोकुलनाथ' ही है और उसके विराजने का स्थान गोकुल है। इनके यहाँ स्वरूपसेवा के स्थान पर गद्दी को ही सर्वस्व मानकर पूजा जाता है। इनका सेवकसमुदाय भंडूची वैष्णवों के नाम से प्रसिद्ध है।
गोकुलनाथ जी वचनामृत द्वारा वल्लभ संप्रदाय का प्रचार करनेवाले सबसे प्रमुख आचार्य थे। आपश्रीने अपना भौतिक देह संवत् 1697 की फाल्गुन कृष्णा नवमी को छोड़ा....जिसे श्रीवल्लभ संप्रदाय में आसुर-व्याह-मोह-लीला के रूप ने कहेते हैं।
संदर्भ ग्रंथ
संपादित करें- धीरेंद्र वर्मा : 'अष्टछाप';
- दीनदयालु गुप्त : 'अष्टछाप और वल्लभ संप्रदाय' (भाग 1)
- वार्ता साहित्य और इतिहास (उपेन्द्र नाथ राय, राजमंगल प्रकाशन, 2022)[1]
इन्हें भी देखें
संपादित करेंसन्दर्भ सूची
संपादित करें- ↑ "Rajmangal Publishers | Hindi Book Publishers in Dinajpur Dakshin Dinajpur". Rajmangal Publishers (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2023-01-02.