ग्रंथसूची से तात्पर्य अंग्रेजी शब्द 'बिब्लियोग्रैफी' से है, जो बहुत ही व्यापक है तथा जिसकी किसी एक निश्चित परिभाषा के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। 1961 में पेरिस में यूनेस्को के सहयोग से 'इफ्ला' (इंटरनेशनल फेडरेशन ऑव लाइब्रेरी एसोसिएशंस) की जो कॉन्फ्रेंस हुई थी, उसमें इस शब्द की परिभाषा के प्रश्न पर भी विचार किया गया था और सर्वसम्मति से अंतत: इस शब्द की निम्नलिखित परिभाषा स्वीकृत की गई थी :

ग्रैज विश्वविद्यालय के पुस्तकालय की ग्रन्थसूची
वह कृति (या प्रकाशन) जिसमें ग्रंथों की सूची दी गई हो। ये ग्रंथ किसी एक विषय से संबंधित हों, किसी एक समय में प्रकाशित हुए हों या किसी एक स्थान से प्रकाशित हुए हों। यह शब्द 'ग्रंथों का भौतिक पदार्थ के रूप में अध्ययन' इस अर्थ में भी प्रयोग किया जाता है।

'इफ्ला' द्वारा स्वीकृत उक्त परिभाषा में मुख्य तीन अर्थ शामिल किए गए हैं :

  • (1) ग्रंथसूची या सिस्टेमेटिक और इन्यूमेरेटिव बिब्लियोग्रैफी
  • (2) ग्रंथवर्णन या अनालिटिक डिस्क्रिप्टिव और टेक्श्चुअल बिब्लियोग्रैफी और
  • (3) ग्रंथ का भौतिक पदार्थ के रूप में अध्ययन या हिस्टोरिकल बिब्लियोग्रैफी।

इसके अंतर्गत ग्रंथ का बाह्य रूप में प्रत्येक प्रकार का अध्ययन, जिससे ग्रंथ के इतिहास, निर्माण आदि का ज्ञान हो, आ जाता है। इस प्रकार कागज की निर्माणविधि, मुद्रणकला का इतिहासविकास, चित्रों के मुद्रण की विविध पद्धतियाँ, ग्रंथ के निर्माणकाल में की जानेवाली विविधि क्रियाएँ आदि सभी बातें 'ग्रंथसूची' शब्द के अंतर्गत आ जाती हैं।

ग्रंथसूची (बिब्लियोग्रैफी) वस्तुत: सूचीपत्र (कैटलॉग) का ही एक रूप है, पर दोनों शब्द पर्यायवाची नहीं हैं। सूचीपत्र से किसी एक पुस्तकालय या संग्रहालय में उपलब्ध साहित्य का ज्ञान होता है। सूचीपत्र किसी प्रकाशक द्वारा प्रकाशित ग्रंथों की सूची मात्र भी हो सकता है तथा किसी पुस्तक विक्रेता द्वारा बेचे जानेवाले ग्रंथों की सूची भी। सूचीपत्र में जो ग्रंथ सम्मिलित किए जाते हैं, उनका न्यूनतम विवरण, (यथा लेखक एवं ग्रंथ का नाम तथा प्रकाशन तिथि,) दे देना ही पर्याप्त समझा जाता है। इससे किसी ग्रंथ के अस्तित्व मात्र का ज्ञान ही हो पाता है। सूचीपत्र तैयार करने की विधि भी सरल है। वह या तो ग्रंथों को देखकर तैयार किया जाता है या किसी दूसरे सूचीपत्र की सहायता से। कभी कभी सूचीपत्र तैयार करने में दूसरे पुस्तकालयों तथा विद्वानों की सहायता भी ली जाती है। सूचीपत्र में ग्रंथों का जो विवरण दिया जाता है, उससे काई व्यक्ति यह पता नहीं लगा सकता कि किसी ग्रंथ का मुद्रण किन परिस्थितियों में हुआ तथा उस ग्रंथ के बाद के संस्करणों (एडीशंस) में यदि कोई परिवर्तन, संशोधन किया गया, तो क्यों?

ग्रंथसूची (बिब्लियोग्रैफी) का क्षेत्र भी यद्यपि कुछ अंशों तक सीमित रहता है, तथापि उसकी सीमा एक ओर यदि न्यूनतम हो सकती है तो दूसरी ओर अति विस्तृत भी। ग्रंथसूची के अंतर्गत किसी एक लेखक, प्रकाशक, मुद्रक, विषय, काल या देश (या प्रकाशनस्थान) से संबंधित ग्रंथों की सूची को लिया जा सकता है। यदि किसी पुस्तकालय में उपलब्ध किसी एक लेखक, प्रकाशक, मुद्रक, विषय, काल या देश से संबंधित ग्रंथों; या अन्य प्रकार की ग्रंथ सदृश सामग्री (बुक-लाइक मैटीरियल्स), यथा सभी प्रकार का प्रकाशित अप्रकाशित साहित्य, पैंफ्लेट, पत्रपत्रिकाएँ, समाचारपत्र और उनमें छपी रचनाओं के 'रिप्रिंट', नक्शे, चित्र, माईक्रोफिल्म सामग्री, हस्तलिखित ग्रंथ आदि की सूची किसी विशेष उद्देश्य एवं क्रम से तैयार की जाय तो उसे ग्रंथसूची कहा जायगा। इसे और अधिक स्पष्ट करने के लिये एक उदाहरण लेना अप्रासंगिक नहीं होगा। नागरीप्रचारिणी सभा, काशी, के आर्यभाषा पुस्तकालय में उपलब्ध सभी ग्रंथों की सूची को 'आर्यभाषा पुस्तकालय का सूचीपत्र' कहा जायगा। यदि वहाँ उपलब्ध प्रेमचंद से संबंधित तथा उनके द्वारा लिखित सभी ग्रंथों की सूची तैयार की जाए तो उसे 'प्रेमचंद की ग्रंथसूची' माना जायगा, यद्यपि उसे 'आर्यभाषा पुस्तकालय में प्रेमचंद कृत तथा प्रेमचंद संबंधी साहित्य का सूचीपत्र' भी कहा जा सकता है।

ग्रंथसूची किसी न किसी प्रकार की सीमा से प्रतिबंधित रहती है। यह सीमा बहुत व्यापक और बहुत छोटी भी हो सकती है। यदि उक्त उदाहरण में प्रेमचंद द्वारा लिखित तथा उनसे संबंधित केवल उसी साहित्य की सूची तैयार की जाए जो किसी एक निश्चित अवधि में प्रकाशित हुआ हो, यथा 1920 से 1930 के बीच, तो यह ग्रंथसूची 'प्रेमचंद' विषय तक तो सीमित है ही, एक निश्चित काल से भी सीमित है। इस ग्रंथसूची को, यदि कोई चाहे तो, 'प्रेमचंद का कहानी साहित्य : 1920- 1930' तक भी सीमित किया जा सकता है। इसके विपरीत यदि कोई चाहे तो संसार की सभी भाषाओं में अनुवादित और प्रकाशित प्रेमचंद कृत और उनसे संबंधित संपूर्ण साहित्य को भी सम्मिलित कर सकता है। ऐसी स्थिति में ग्रंथसूची की सीमा बहुत अधिक बढ़ जाएगी। कहने का मंतव्य यही है कि ग्रंथसूची हमेशा किसी न किसी दिशा तक सीमित रहती है, पर इसके विपरीत सूचीपत्र का किसी एक विषय, काल या स्थान तक सीमित होना आवश्यक नहीं।

सूचीपत्र की तुलना में ग्रंथसूची अपने उद्देश्य में भी सीमित होती है। विषय एवं उद्देश्य के अनुसार ही ग्रंथसूची में ग्रंथों का क्रम (अरेंजमेंट) रहता है तथा ग्रंथसूची की एक मुख्य विशेषता यह भी होती है कि अपनी निर्धारित सीमा में वह सर्वांगसंपूर्ण होती है यद्यपि आजकल कुछ नए एवं कठिन विषयों के लिये केवल चुने हुए साहित्य की ग्रंथसूची (सेलेक्टिव बिब्लियोग्रैफी) भी संकलित की जाने लगी है।

ग्रंथसूची और सूचीपत्र में दूसरा मुख्य अंतर यह होता है कि सूचीपत्र का उपयोग मुख्यत: पुस्तकालय के सदस्य या अनुसंधानकर्ता आवश्यक ग्रंथ प्राप्त करने या उनके संबंध में आवश्यक संक्षिप्त विवरण प्राप्त करने के लिये करते हैं। इसके विपरीत ग्रंथसूची का उपयोग किसी एक निश्चित एवं सीमित उद्देश्य के लिये ही किया जाता है। सूचीपत्र से सामान्यत: किसी ग्रंथ के संबंध में लेखक का नाम तथा उसकी प्रकाशनतिथि ही ज्ञात हो सकती है, पर ग्रंथसूची में दिए गए विवरण से सभी प्रकार का आवश्यक संभावित विवरण्‌, जैसे ग्रंथ का लेखक, नाम, मूल्य, पृष्ठसंख्या, प्रकाशक, प्रकाशनस्थान और तिथि, आकार प्रकार, संस्करण, प्रकाशन संबंधी कोई महत्वपूर्ण तथ्य तथा इसी प्रकार का अन्य विवरण भी प्राप्त होता है।

ग्रंथसूची कई प्रकार की हो सकती है, पर इसके मुख्य रूप निम्न लिखित हैं :

राष्ट्रीय ग्रंथसूची (नेशनल बिब्लियोग्रैफी)

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अर्थात्‌ किसी देश में प्रकाशित समस्त साहित्य की सूची।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि किसी देश में प्रकाशित संपूर्ण साहित्य उस देश की जनता को बिना किसी आपत्ति के सुलभ होना चाहिए। कोई व्यक्ति या संस्था सभी प्रकाशित साहित्य नहीं खरीद सकती। अत: यह साहित्य किसी ऐसी जगह सुरक्षित रखा जाना चाहिए जहाँ सभी लोग समान रूप से उसका उपयोग कर सकें। यह कार्य देश विशेष की सरकार द्वारा ही संभव है। इसी उद्देश्य से संसार के प्राय: सभी देशों में राष्ट्रीय पुस्तकालय (नेशनल लाइब्रेरी) स्थापित किए गए हैं। पर केवल इतने से ही समस्या हल नहीं हो जाती। पुस्तकालय में क्या क्या साहित्य संग्रहीत किया गया है, तथा कोई ग्रंथ है या नहीं, यह जानने का कोई साधन हुए बिना पुस्तकालय का पूरा पूरा उपयोग नहीं किया जा सकता। दूसरी बात यह भी है कि किसी भी देश की संस्कृति इतनी संपन्न नहीं होती कि वह दूसरे देशों से बिना कुछ लिए दिए ही फलती फूलती रहे। आजकल जब कि विज्ञान एवं मानवता की दृष्टि से समस्त विश्व का एक सूत्र में आबद्ध होना आवश्यक समझा जाने लगा है, अनुसंधानकर्ताओं के लिये भी यह आवश्यक हो गया है कि वे दूसरे देशों में हुई तथा हो रही प्रगति से अवगत रहें। अत: प्रत्येक देश की सरकार का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह कोई ऐसा साधन प्रस्तुत करे जिससे देश के लोगों को ही नहीं वरन्‌ विदेशियों की भी देश में प्रकाशित सहित्य की सूचना मिले। राष्ट्रीय ग्रंथसूची इसी उद्देश्य की पूर्ति करती है। राष्ट्रीय ग्रंथसूची में किसी देश में प्रकाशित सभी प्रकार के एवं सभी विषयों के समस्त ग्रंथों का विवरण दिया रहता है। यह सूची प्राय: देशविशेष के राष्ट्रीय पुस्तकालय में संग्रहीत साहित्य के आधार पर तैयार की जाती है।

अभी तक किसी भी देश में ऐसी राष्ट्रीय ग्रंथसूची तैयार नहीं हो सकी है जिसमें उस देश में प्रकाशित संपूर्ण साहित्य का विवरण हो। राष्ट्रीय ग्रंथसूची वस्तुत: इसी सदी की देन है। ब्रिटेन जैसे देश में भी 1950 से पूर्व कोई राष्ट्रीय ग्रंथसूची नहीं थी। वहाँ 1950 से ब्रिटिश नेशनल बिब्लियोग्रैफी का प्रकाशन आरंभ हुआ। यह सूची यहाँ के राष्ट्रीय पुस्तकालय- ब्रिटिश म्यूजियम के पुस्तकालय- में कापीराइट कानून के अंतर्गत प्राप्त हुए ग्रंथों के आधार पर तैयार की जाती है।

भारत में 1958 का वर्ष ग्रंथसूची की दृष्टि से अत्यंत ही महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए जबकि वहाँ राष्ट्रीय पुस्तकालय ग्रंथसूची (इंडियन नेशनल बिब्लियोग्रैफी) का प्रकाशन आरंभ हुआ। इस सूची में भारत के राष्ट्रीय पुस्तकालय (कलकत्ता) में कापीराइट कानून के अंतर्गत प्राप्त सभी भाषाओं के सभी ग्रंथों का विवरण दिया रहता है, पर हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं का दुर्भाग्य ही है कि यह सूची केवल रोमन लिपि में प्रकाशित होती है। इस प्रकार 1958 तथा उसके बाद भारत में प्रकाशित सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य की समस्या तो बहुत कुछ हल हो चुकी है, पर 1958 से पूर्व भारत में प्रकाशित साहित्य की कोई भी ग्रंथसूची अभी तक न तो उपलब्ध है और न तत्संबंधी काई योजना ही विचाराधीन है। लेकिन भारत को इस बात का गर्व होना चाहिए कि यहाँ राष्ट्रीय ग्रंथसूची का प्रकाशन आरंभ हो चुका है जबकि कई देशों में अभी तक कोई राष्ट्रीय ग्रंथसूची प्रकाशित नहीं हुई है। यहाँ के राष्ट्रीय पुस्तकालयों के सूचीपत्र का उपयोग केवल वे ही लोग कर सकते हैं जो स्वयं पुस्तकालय जा सकें। इसके अतिरिक्त दूसरा एकमात्र उपाय पत्रव्यवहार द्वारा किसी ग्रंथविशेष के संबंध में जानकारी प्राप्त करना है। पर अब यूनेस्को के प्रभाव एवं सहयोग से कुछ देशों में राष्ट्रीय ग्रंथसूची के प्रकाशन की योजनाएँ विचाराधीन हैं और आशा की जा रही है कि आगामी दो दशकों तक प्राय: सभी देशों में राष्ट्रीय ग्रंथसूची प्रकाशित होने लगेगी।

राष्ट्रीय ग्रंथसूची के प्रसंग में विश्व ग्रंथसूची (यूनिवर्सल बिब्लियोग्रेफी) पर ध्यान जाना स्वाभाविक है। विश्व ग्रंथसूची के लिये विश्व में 18वीं सदी से ही समय समय पर अनेक प्रयत्न किए गए, पर कोई भी प्रयत्न सफल न हो सका। विश्व ग्रंथसूची को ध्यान में रखकर ही ब्रिटेन की रायल सोसायटी ने सर्वप्रथम वैज्ञानिक साहित्य का सूचीपत्र (कैटलॉग ऑव सांइटिफिक पेपर्स) प्रकाशित करना आरंभ किया, पर शीघ्र ही यह प्रयास स्थगित कर देना पड़ा। इसके बाद उक्त सूचीपत्र के पूरक के रूप में र्वज्ञानिक साहित्य का अंतर्राष्ट्रीय सूचीपत्र (इंटरनेशनल कैटलॉग ऑव साइंटिफिक लिट्ररेचर) की योजना बनी। यह योजना भी कुछ समय तक ही चल सकी। उक्त दोनों योजनाओं की असफलता से विश्व ग्रंथसूची से संबंधित अनेक समस्याओं का पता चला जिनकी ओर विद्वानों का ध्यान साधारणत: नहीं गया था। इन दोनों योजनाओं के बाद भी रायल सोसायटी इस क्षेत्र में कुछ न कुछ करती रही है।

कोई भी पुस्तकालय कितना ही अधिक धन व्यय क्यों न करे, सभी देशं का संपूर्ण प्रकाशित साहित्य वह नहीं खरीद सकता। ब्रिटिश म्यूजियम के पुस्तकालयाध्यक्ष एंथोनी पानिजी इस पुस्तकालय में विश्व के सभी देशों में प्रकाशित सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ रखना चाहते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने विश्व की सभी भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य को प्राप्त करने का प्रयत्न किया पर कई कारणों से वे अपने प्रयत्नों में सफल न हो सके। अमेरिका का कांग्रेस पुस्तकालय भी, जो विश्व का सबसे बड़ा पुस्तकालय माना जाता है, विश्वपुस्तकालय नहीं कहा जा सकता। पर विश्व के बड़े पुस्तकालयों के सूचीपत्र बहुत कुछ अंशों में 'विश्व ग्रंथसूची' की कमी की पूर्ति कर देते हैं क्योंकि इन पुस्तकालयों में विश्व के सभी देशों में प्रकाशित उपयोगी एवं महत्वपूर्ण ग्रंथों का संग्रह करने का प्रयत्न प्रारंभ से ही किया जाता रहा है।

आधुनिक युग में विश्व ग्रंथसूची के महत्व का अनुमान केवल इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि यूनेस्को का प्राय: प्रत्येक विभाग (डिपाटमेंट) और शाखा (एजेंसी) ग्रंथसूची के विकास में किसी न किसी रूप में संबद्ध है तथा विविध विषयों की ग्रंथसूची तैयार करन एवं उनसे संबद्ध समस्याओं के हल के लिये यूनेस्कों ने अलग अलग समितियाँ स्थापित की है। विश्व में ग्रंथसूची की वर्तमान स्थिति में सुधार के उद्देश्य से 1950 में पेरिस में यूनेस्को के तत्वावधान में जो अंतर्राष्ट्रीय कानफरेंस हुई थी, उसके सदस्य सर्वसम्मति से इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रत्येक देश में 'ग्रंथसूची केंद्र' (बिब्लियोग्रैफिक सेंटर) स्थापित किया जाना चाहिए, जहाँ ग्रंथसूची से संबंधित विविध आवश्यक कार्य किए जा सकें। बाद में इन्हीं केंद्रों की सहायता से वहां की राष्ट्रीय ग्रंथसूची भी प्रकाशित की जा सकती है। राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित ये ग्रंथसूची केंद्र विश्व ग्रंथसूची के लिये नींव के समान उपयोगी होंगे।

सूचीपत्र

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सूचीपत्र भी कुछ सीमा तक ग्रंथसूची का रूप ले सकते हैं। यदि किसी पुस्तकालय में उपलब्ध केवल किसी एक निश्चित विषय के ग्रंथों का सूचीपत्र तैयार किया जाय तो उसे कुछ अंशों तक ग्रंथसूची के रूप में उपयोग किया जा सकता है। अधिकांश प्रसिद्ध एवं बड़े पुस्तकालयों के विषय सूचीपत्र (सब्जेक्ट कैटलॉग) कालांतर में विषय ग्रंथसूची (सब्जेक्ट बिब्लियोग्रैफी) का महत्व प्राप्त कर लेते हैं।

सूचीपत्रों में शामिल किए गए ग्रंथों की विशेषता प्राय: यह नहीं होती कि वे किसी लेखकविशेष की कृतियाँ होते हैं, या इसलिये कि सभी ग्रंथ किसी एक विषय से संबंधित होते हैं, यद्यपि कुछ सूचीपत्रों के संबंध में उपर्युक्त दोनों या कोई एक बात सही भी हो सकती है। वरन्‌ उन ग्रंथों में विशेषता यह होती है कि वे किसी एक प्रकाशक द्वारा प्रकाशित होते हैं, किसी पुस्तक विक्रेता के यहाँ क्रयार्थ प्राप्त होते हैं या वे किसी पुस्तकालय के संग्रह में होते हैं। पर बड़े पुस्तकालयों (विशेषकर राष्ट्रीय पुस्तकालयों) के सूचीपत्र का महत्व ग्रंथसूची के समान होता है। इसी कारण ब्रिटेन के ब्रिटिश म्यूजियम पुस्तकालय, अमेरिका के कांग्रेस पुस्तकालय और फ्रांस के 'बिब्लिओथेक नेशनल' (राष्ट्रीय पुस्तकालय) के सूचीपत्रों की गणना ग्रंथसूची की कोटि में होती है।

विषय ग्रंथसूची (सब्जेक्ट बिब्लियोग्रैफी)

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इनके संकलन का मुख्य उद्देश्य तथा इनमें शामिल ग्रंथों की मुख्य समानता केवल यह होती है कि वे किसी एक विषय से संबद्ध होते हैं। यह ग्रंथसूची, अन्य प्रकार की ग्रंथसूचियों के समान समसामयिक (करेंट) ग्रंथों की भी हो सकती है तथा पूर्वकालीन (रिट्रास्पेक्टिव) ग्रंथों की भी। यह विशद (कांपिहेंसिव) भी हो सकती है या केवल चुने हुए साहित्य की भी (सलेक्टिव), इसी प्रकार उसमें शामिल ग्रंथों के विवरण के साथ टिप्पणी (एनोटेशन) भी हो सकती है तथा नहीं भी। इसका प्रकाशन पत्रपत्रिका के रूप में निर्धारित समय में भी हो सकता है, छोटी पुस्तिका (पैंफ्लेट और मोनोग्राफ) के रूप में भी और स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में भी।

सहायक ग्रंथसूची

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विश्वविद्यालयों की पाठ्यपुस्तकों (टेक्स्ट बुक) तथा वैज्ञानिक ग्रंथों के कुछ परिच्छेदों के अंत में और कुछ महत्वपूर्ण अनुसंधानात्मक ग्रंथों के अंत में कभी कभी स्वतंत्र अध्याय या परिशिष्ट के रूप में लेखक 'सहायक ग्रंथसूची', 'अन्य साहित्य', 'पठनीय साहित्य' या उपयोगी साहित्य, आदि शीर्षक देकर कुछ ग्रंथों की सूची देते हैं। कुछ पत्रपत्रिकाओं में प्रकाशित महत्वपूर्ण लेखों के अंत में भी कभी कभी सहायक ग्रंथसूची दी रहती है। इसी प्रकार विश्वकोशों एवं शोध लेखों के अंत में संक्षिप्त ग्रंथसूची दी होती है। इन्हें भी ग्रंथसूची का ही एक रूप मानना चाहिए।

ग्रंथसूचियों की ग्रंथसूची (बिब्लियोग्रैफी ऑव बिब्लियोग्रैफीज)

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विश्व के सभी देशों में प्रकाशित ग्रंथों की निरंतर वृद्धि के साथ ही साथ लेखक तथा विषय ग्रंथसूची (आथर ऐंड सब्जेक्ट बिब्लियोग्रैफीज) की आवश्यकता भी बढ़ती जाती है। पाश्चात्य देशों में प्राय: सभी प्रसिद्ध लेखकों की ग्रंथसूची प्रकाशित हो चुकी है। कुछ लेखकों की तो कई ग्रंथसूचियाँ अलग अलग उद्देश्य से प्रकाशित हुई हैं। लेकिन केवल ग्रंथसूची के प्रकाशित हो जाने से ही समस्या हल नहीं हो जाती। किस किस लेखक की तथा किस किस विषय की एवं किस प्रकार की ग्रंथसूचियाँ उपलब्ध हैं, यह जानने के लिये जब तक कोई साधन न हों, तब तक उपलब्ध ग्रंथसूचियों का पूरा पूरा उपयोग नहीं किया जा सकता। इसी उद्देश्य से अब 'ग्रंथसूचियों की ग्रंथसूची' के संकलन की ओर पाश्चात्य विद्वानों का ध्यान आकर्षित हुआ है और यूरोपीय भाषाओं में अब तक कई छोटी बड़ी 'ग्रंथसूचियों की ग्रंथसूची' प्रकाशित हो चुकी है। इस संबंध में थियोडोर वेस्टरमैन द्वारा संकलित 'ए वर्ल्ड बिब्लियोग्रैफी ऑव बिब्लियोग्रैफी' (तृतीय संस्करण, 1955-56, 3 जिल्द) मुख्य रूप से उल्लेखनीय है। इस विशाल ग्रंथ में विश्व की भाषाओं में प्रकाशित 84, 403 ग्रंथसूचियों का सटिप्पण विवरण दिया गया है।

साहित्य निर्देशिका (गाइड टु लिटरेचर)

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इसी सदी के आरंभ में ग्रंथसूची का यह नया रूप प्रकाश में आया है। इस प्रकार एक विषय के प्रकाशित अप्रकाशित महत्वपूर्ण साहित्य का विशद परिचय दिया रहता है। हिंदी में भी इस प्रकार की एक ग्रंथसूची प्रकाशित हो चुकी है।

ग्रंथसूची के उपर्युक्त प्रकारों के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रकार भी हैं जिनमें अनुक्रमणिकाएँ (इंडिसेज) तथा ऐब्सट्रैक्ट्स मुख्य हैं।

ग्रंथसूची का क्रम (अरेंजमेंट ऑव बिब्लियोग्रैफी)

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किसी भी ग्रंथसूची के संकलन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं आवश्यक बात यह है कि उसका उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिए। ग्रंथसूची में शामिल किए जानेवाले ग्रंथों का क्रम उसके उद्देश्य पर ही निर्भर रहना है। किसी भी ग्रंथसूची में शामिल किए जानेवाले ग्रंथ निम्नलिखित क्रमों (अरेंजमेंट) में से किसी भी क्रम में रखे जा सकते हैं :

(1) अकारादि क्रम। लेखक के नामानुसार, ग्रंथ के नामानुसार, विषय के नामानुसर या प्रकाशन स्थान के नामानुसार।

(2) कालक्रम,

(3) वर्गीकृत,

(4) भौगोलिक क्रम

(5) ग्रंथों के प्रकारानुसार।

यदि ग्रंथसूची का उद्देश्य प्रत्येक ग्रंथ का विवरण देना मात्र है तो सभी ग्रंथ लेखकों के नाम से अकारादि क्रम से रखना उपयुक्त होगा। यदि ग्रंथसूची का उद्देश्य किसी विषय के इतिहास का विकास बतलाना या किसी प्रसिद्ध लेखक के साहित्यविकास का परिचय देना है तो सभी ग्रंथ कालक्रम (क्रोनोलॉजिकल) अरेंजमेंट से रखे जाने चाहिए। यदि पाठकों को उपयोगी एवं महत्वपूर्ण ग्रंथों के संबंध में दिशप्रदर्शन करना हो तो ग्रंथसूची के अंत में अकारादि क्रम में विषय अनुक्रमणी (सब्जेक्ट इंडेक्स) देकर ऐसा किया जा सकता है और यदि ग्रंथसूची का उद्देश्य केवल यह बतलाना है कि विषय पर अब तक कौन कौन से ग्रंथ लिखे जा चुके हैं तथा किस अंग की अभी तक कमी है तो किसी वर्गीकरण पद्धति (क्लासीफिकेशन सिस्टम) के आधार पर संपूर्ण साहित्य को वर्गीकृत क्रम (क्लासफाइड अरेंजमेंट) में रखा जा सकता है। इसी प्रकार यदि ग्रंथसूची में शामिल किए जानेवाले ग्रंथों का महत्व किसी स्थान या भौगोलिक क्षेत्र के कारण है तो सभी साहित्य भौगोलिक क्रम में रखा जा सकता है।

ग्रंथवर्णन

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ग्रंथसूची के सामान यह अर्थ भी सीमित क्षेत्र में प्रयुक्त होता है। यह अर्थ वस्तुत: मशीन युग से पूर्व तथा मशीन युग के आरंभ में प्रकाशित ग्रंथों के लिये ही मुख्य रूप से प्रयुक्त होता है। आधुनिक काल में वैज्ञानिक यंत्रों का इतना अधिक विकास हो चुका है, तथा मुद्रणकला के क्षेत्र में भी इतनी अधिक प्रगति हो चुकी है कि किसी एक ग्रंथ की लाखों करोड़ों प्रतियाँ बिना किसी शारीरिक श्रम के मुद्रित की जा सकती हैं, साथ ही इस बात की जरा भी संभावना नहीं रहती कि इन प्रतियों में आपस में किसी प्रकार का अंतर होगा। अत: आधुनिक काल में मुद्रित ग्रंथों के 'वर्णन' का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। ग्रंथवर्णन से तात्पर्य ग्रंथ के विषयवर्णन से नहीं वरन्‌ ग्रंथ के बाह्य रूप, उसके निर्माण एवं अस्तित्व में आने की विविध क्रियाओं से है।

मशीन युग से पूर्व जब ग्रंथ हाथ से लिखे जाते थे, इस बात की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती थी कि एक ही ग्रंथ की कोई भी दो प्रतियाँ प्रत्येक प्रकार से समान होगी। और तो और, उनका कागज भी एक सा नहीं हो सकता था, फिर लिखावट, चित्रकारी, पैराग्राफ, 'प्रूफ' की अशुद्धियाँ, हाशिया, आदि में तो और भी ज्यादा असमानता रहती थी। मुद्रणकला के आविष्कार के लगभग 100 वर्षों या इससे कुछ अधिक समय बाद तक भी मुद्रणकला का विकास अच्छी तरह नहीं हो पाया था। इस समय भी मुद्रणसंबंधी अधिकांश कार्य मानव शक्ति (हाथ या पैर) द्वारा होते थे। अत: यह स्वाभाविक था कि एक ही ग्रंथ की दो प्रतियों में कुछ न कुछ अंतर हो। उस काल के छपे ग्रंथों को देखने पर पता चलता है कि एक ही समय और एक ही साथ छपी एक ही ग्रंथ की दो प्रतियों में कंपोजिंग, मेकअप, प्रूफ, फार्मों की सजावट आदि में आश्चर्यजनक असमानता है।

आधुनिक काल में, जबकि प्राचीन काल के हस्तलिखित ग्रंथों और मुद्रणकला के आविष्कार के प्रांरभिक वर्षों में मुद्रित ग्रंथों के संग्रह की ओर कलापारखियों एवं साहित्यिक संस्थाओं का ध्यान आकृष्ट हुआ है तथा हस्तलिखित ग्रंथों के संग्राहक ऊँची ऊँची कीमतों पर प्रसिद्ध लेखकों की पांडुलिपियाँ और उनकी पुस्तकों के प्रारंभिक संस्करण एकत्रित करने लगे हैं, उनकी सुविधा के लिये यह आवश्यक हो गया है कि ऐसी ग्रंथसूचीयाँ तैयार की जायँ जिनमें मूल वर्णन हो। इस वर्णन को देखकर असली और नकली प्रति का भेद आसानी से किया जा सके तथा कलाप्रेमी संग्राहक धोखेबाजों एवं जालसाजों द्वारा ठगे न जा सकें। कहने की आवश्यकता नहीं कि पाश्चात्य देशों में अनेक धोखेबाजों ने प्रसिद्ध लेखकों की पांडुलिपियों की हूबहू नकल कर तथा उनके ग्रंथों के 'जाली प्रथम संस्करण' तैयार कर लाखों-करोड़ों रुपए कमाए हैं। बाद में वस्तुस्थिति की जानकारी होने पर संग्राहकों को हाथ मलकर रह जाना पड़ा है।

कलाप्रेमियों एवं संग्राहकों को जालसाजों से बचाने के लिये ग्रंथसूची में जो वर्णन दिया जाता है वह अपने आपमें पूर्ण तथा किसी ग्रंथ की पहचान के लिये पर्याप्त होता है। पाश्चात्य ग्रंथों के वर्णन के लिये वहाँ के विद्वानों ने ग्रंथवर्णन की कुछ विशेष विधियाँ मान्य की हैं। ग्रंथवर्णन वस्तुत: एक प्रकार की सांकेतिक भाषा (कोड) है जिसे केवल अनुभवी ही समझ सकता है।

हस्तलिखित ग्रंथों तथा मुद्रित ग्रंथों के लिये अलग अलग विधियाँ तथा नियम हैं। इसी प्रकार ग्रंथसूची के उद्देश्य के अनुसार ग्रंथवर्णन भी कम या अधिक दिया जाता है। यदि ग्रंथसूची का उद्देश्य मात्र एक 'सूची' ही तैयार करना है तो सूची में शामिल किए जानेवाले ग्रंथों का आवश्यक संक्षिप्त विवरण दिया जाता है, पर यदि ग्रंथसूची का उद्देश्य ग्रंथों का विशद परिचय (विषयपरिचय नहीं) देना होता है तो ग्रंथ के प्रथम पृष्ठ (कवर या जिल्द) से लेकर अंतिम पृष्ठ तक का पूरा विवरण, चित्रों का पूरा विवरण, प्रत्येक पृष्ठ की मुख्य मुख्य विशेषताएँ यदि हों, हाशिया का क्रम, पैराग्राफों का क्रम, कंपोजिंग का क्रम (मुद्रित ग्रंथ में) प्रत्येक पृष्ठ में कितनी पंक्तियाँ हैं, यदि किसी पृष्ठ में कम या अधिक पंक्तियाँ हैं तो इसकी सूचना, कोई पंक्ति यदि किसी विशेष स्थान से प्रारंभ होती हो तो उसका विवरण, आदि सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्रत्येक बात का वर्णन, 'ग्रंथ वर्णन' के अंतर्गत आता है। यदि किसी प्राचीन ग्रंथ की दो प्रतियाँ (एक ही स्थान पर या दो अलग अलग स्थानों पर) उपलब्ध हों तो उनकी भौतिक बनावट की आपस में तुलना की जाती है और यदि उनमें कोई अंतर हो तोइस तथ्य का उल्लेख 'ग्रंथवर्णन' में कर इस ओर संग्राहकों का ध्यान आकर्षित किया जाता है। किसी एक ग्रंथ की दो प्रतियों में कोई अंतर होने का अर्थ यह कदापि नहीं कि दोनों में से एक प्रति जाली है। दोनों प्रतियों में अंतर होने पर भी दोनों ही प्रतियाँ असली हो सकती हैं, क्योंकि उनमें अंतर होने के अनेक संभावित कारण हो सकते हैं। ग्रंथवर्णन के प्रसंग में इन कारणों पर विस्तृत रूप से विचार कर किसी एक निष्कर्ष पर पहुँचना होता है।

ग्रंथ की सूची में इस प्रकार का जो विस्तृत ग्रंथवर्णन दिया जाता हैं उससे कलाप्रेमियों, संग्राहकों एवं पुस्तकालयाध्यक्षों को तो सुविधा होती ही है पर उसका उपयोग यहीं पर समाप्त नहीं हो जाता। साहित्यिक दृष्टि से भी ग्रंथवर्णन का कुछ महत्व रहता है।

ग्रंथ तथा इसी प्रकार की अन्य सामग्री, जिसके द्वारा विचारों को व्यक्त किया जाता है, प्राय: रचयिता (लेखक) के विचारों का सही प्रतिरूप नहीं होती। कभी कभी ऐसा होता है कि लेखक अपने विचारों को ठीक-ठीक व्यक्त करने के लिये उपयुक्त शब्द नहीं खोज पाता तथा कभी कभी वह ऐसे शब्दों का भी प्रयोग करता है जिसका अर्थ पाठक या श्रोता की दृष्टि में कुछ और ही होता है। इस संबंध में एक अन्य तथ्य की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है।

यदि लेखक स्वयं अपने ग्रंथ को मुद्रित करता या उसकी हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार करता है तब तो किसी प्रकार के भ्रम या गलत शब्द के प्रयोग की संभावना प्राय: नहीं रहती लेकिन वस्तुस्थिति कुछ और ही है। लेखक की कलम एवं मस्तिष्क से प्रसूत कोई ग्रंथ जब मुद्रित रूप में सामने आता है तो उसके उस रूप के लिये लेखक नहीं वरन्‌ कई अन्य व्यक्ति जिम्मेदार होते हैं। इन लोगों का साहित्यिक ज्ञान प्राय: शून्य रहता है तथा जिस विषय के ग्रंथ को वे तैयार कर रहे होते हैं उस विषय से भी वे प्राय: अनभिज्ञ रहते हैं। ऐसी स्थिति में लेखक के साथ पूरा पूरा न्याय नहीं हो पाता। इसके अतिरिक्त कभी कभी ऐसा भी देखा जाता है कि लेखक अपनी मूल प्रति (पांडुलिपि) में जो कुछ लिखता है, उसे मुद्रित रूप में देखने पर उसका अर्थ बदलता हुआ नजर आता है। यदि लेखक स्वयं प्रूफ पढ़ने में काफी सावधानी रखकर उस संभावना को बहुत कुछ कम कर दे तथा इस प्रकार अपने विचारों को व्यक्त करने के माध्यम पर थोड़ा बहुत नियंत्रण कर ले, तो भी यह नियंत्रण संपूर्ण रूप से 'त्रुटिहीन' होने का कोई प्रमाण नहीं। वस्तुस्थिति यह है कि लेखक स्वयं ही सब कुछ नहीं करता। स्वयं प्रूफ पढ़ने के बाद भी उसे बाद की क्रियाओं के लिये दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। अत: 'त्रुटि मानव से होती है', इस सिद्धांत के आधार पर कहा जा सकता है कि लेखक के काफी सावधानी रखने पर भी अन्य व्यक्तियों द्वारा कोई गल्ती हो जाने की संभावना बनी रहती है। कई प्रसिद्ध लेखकों ने स्वीकार किया है कि उनके ग्रंथ भौतिक रूप में ठीक वही नहीं हैं जैसी उन्होंने कल्पना की थी। अत: कल्पना और यथार्थ के अंतर को दूर करने के लिये ग्रंथवर्णन की आवश्यकता होती है।

यथातथ्य ग्रंथवर्णन साहित्यिक समीक्षा के लिये सेतु के समान है। किसी ग्रंथ की विषय वस्तु का मूल्यांकन करने के पूर्व समीक्षक को इस बात से आश्वस्त होना आवश्यक है कि समीक्षा के लिये वह ग्रंथ की जिस प्रति का उपयोग कर रहा है, वह लेखक के मूल पाठ (ऑरिजनल टेक्स्ट) के अधार पर ही तैयार हुई है। यदि ऐसा नहीं है तो उसे ग्रंथ के सभी संस्करणों की प्रतियाँ देखकर उनका आपस में संबंध स्थापित करना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि किस ग्रंथ का इतिहास वस्तुत: उसके लेखक के सहित्यिक इतिहास का ही एक महत्वपूर्ण अंग है। समीक्षक का ग्रंथ के पाठ (टेक्स्ट) का इतिहास ज्ञात होना इसलिये भी आवश्यक है कि वह उस संस्करण की पहचान कर सके जो लेखक की मूल पांडुलिपि के अधिकतम निकट हो या जिसमें लेखक ने स्वयं कोई संशोधन किया हो। समीक्षक को यह भी ज्ञात होना चाहिए कि उस ग्रंथ में बाद में क्या क्या नई सामग्री जोड़ी गई या उसमें से कौन सा अंश निकाल दिया गया, यह परिवर्तन, परिवर्धन स्वयं लेखक द्वारा या उसकी अनुमति से किया गया या मुद्रक, प्रकाशक अथवा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा। किसी ग्रंथ के सभी संस्करणों की तिथियाँ तथा उनका क्रम भी समीक्षक को ज्ञात होना चाहिए।

यह स्पष्ट है कि इतना सब विवरण प्राप्त करना या तैयार करना समीक्षक का कार्य नहीं। उसका कार्य तो केवल ग्रंथविशेष की विषयवस्तु का अध्ययन कर उसके गुणदोष की परख करना है। अत: समीक्षक की सहायता के लिये ग्रंथसूची में ग्रंथवर्णन देना आवश्यक हो जाता है। 3- ग्रंथ का भौतिक पदार्थ के रूप में अध्ययन, जैसा प्रारंभ में कहा गया है, इस अर्थ के अंतर्गत उन सभी विधियों एवं वस्तुओं का अध्ययन एवं इतिहास आता है जो किसी ग्रंथ के निर्माण में सहायक होते हैं। यहाँ ग्रंथ के पाठ से कुछ भी तात्पर्य नहीं, कुशल बिब्लियोग्राफर केवल यह देखता है कि यह ग्रंथ कैसे बना तथा ग्रंथनिर्माण की जो निर्धारित मान्य विधियाँ हैं उन सभी का प्रयोग किस ग्रंथ के निर्माण में हुआ या नहीं। व्यापक रूप में इस अध्ययन के अंतर्गत कागज निर्माण की विधि, विविध प्रकार के कागजों में अंतर, तथा उनके गुणदोष, विविध मुद्रण पद्धतियाँ तथा उनकी विशेषताएँ, मुद्रण पद्धति के अंतर्गत आनेवाली विविध क्रियाएँ (यथा कंपोजिंग, प्रूफरीडिंग, मेकअप, फार्म का डिस्प्ले आदि), टाइप के निर्माण की विधि, मुद्रणयंत्रों की कार्यप्रणाणी, जिल्द बँधाई के विविध रूप आदि प्रत्येक बात पर विचार किया जाता है।

उक्त तीन अर्थों को देखने से यह स्पस्ट पता चलता है कि प्रथम दो अर्थ आपस में पूरक हैं क्योंकि ग्रथवर्णन ग्रंथसूची में ही दिया जाता है तथा वर्णन के अभाव में ग्रंथसूची और सूचीपत्र में कोई अंतर नहीं रह जाता। तीसरे अर्थ के सबंध में विद्वानों ने समय समय पर प्रतिवाद उठाए हैं और प्रश्न किया है कि ग्रंथसूची के संकलनकर्ता को मुद्रणकला का ज्ञान होना आवश्यक नहीं। पर आधुनिक विद्वानों ने जब यह मान लिया है कि मुद्रणकला का ज्ञान हुए बिना कोई भी व्यक्ति ग्रंथसूची का सकंलन नहीं कर सकता। वस्तुत: ग्रंथसूची उक्त तीनों अर्थों का समन्वय है।

ग्रंथसूची वही होती है जिसमें किसी एक निश्चित प्रणाली के अनुसार ग्रंथविवरण दिया गया हो। प्रसिद्ध विद्वान्‌ डॉ॰ ग्रेग के मतानुसार ग्रंथसूची से तात्पर्य ग्रंथ का भौतिक रूप में अध्ययन है, उसकी विषयवस्तु से यहाँ कोई संबंध नहीं। इसी प्रकार प्रसिद्ध अमेरिकी विद्वान्‌ डॉ॰ बोअर्स के मत से ग्रंथों की सूची मात्र तैयार करना तो सूचीकरण (कैटलागिंग) ही कहा जाएगा, पर यदि उस सूची में ग्रंथों का वर्णन भौतिक पदार्थ के रूप में दिया जाए तो उसे सही अर्थ में 'वैज्ञानिक एवं विधिवत्‌ ग्रंथसूची' कहा जाना चाहिए। डॉ॰ बोअर्स तो एक कदम और आगे बढ़कर ऐसी ग्रंथसूची को विश्लेषणात्मक ग्रंथसूची (एनालिटिकल बिब्लियोग्रैफी) बनाने के पक्ष में है। उनका मत है कि ग्रंथसूची में किसी ग्रंथ का जो विवरण दिया जाता है, उसक उद्देश्य उस ग्रंथ की 'आदर्श प्रति' (आइडियल कॉपी) का पता लगाना है। आदर्श प्रति से उनका अभिप्राय वह प्रति नहीं है जिसमें कोई दोष न हो, वरन्‌ वह प्रति है जो मुद्रक के यहाँ प्रारंभ में निकली हो, भले ही उसमें पाठ संबंधी (टेक्स्चुअल) कितनी ही अशुद्धियाँ क्यों न हों।

ऐसी 'आदर्श प्रति' का यथातथ्य ग्रंथवर्णन करने के लिये मुद्रण कला का विशद ज्ञान होना आवश्यक है। ग्रंथवर्णन में उन सब क्रियाओं का उल्लेख किया जाता है जो किसी ग्रंथ के निर्माणकाल में (आरंभ से अंत तक) प्रयुक्त की गई हों। मुद्रण क्रियाओं का ज्ञान किसी ग्रंथ के केवल मूल पाठ की दृष्टि से ही नहीं वरन्‌ उस ग्रंथ का इतिहास जानने के लिये भी सहायक होता है। मुद्रणकला का ज्ञान होने पर एक ही ग्रंथ के विविध संस्करणों को देखकर उस ग्रंथ का पूरा इतिहास बतलाया जा सकता है।

किसी ग्रंथ का भौतिक रूप से सूक्ष्मातिसूक्ष्म अध्ययन उसके मूल पाठ संबंधी विवादास्पद प्रश्नों को सुलझाने में सहायक होता है। इसके साथ ही साथ कभी कभी वह ऐसी बातों की ओर भी ध्यान आकर्षित करता है जिनपर विद्वानों का ध्यान पहले न गया हो। यह सहित्यिक दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही, अनुसंधान की दृष्टि से भी इसकी उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता। डॉ॰ ग्रैग के शब्दों में यदि साहित्य शब्द को उसके सीमित अर्थ में न लेकर विस्तृत अर्थ में लें तो ग्रंथ वर्णन (बिब्लियोग्रैफी) को साहित्य का व्याकरण कहना चाहिए।

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