ग्रामाटिका हिन्दोस्तानिका

ग्रामाटिका हिन्दोस्तानिका हिन्दी व्याकरण की पुस्तक है जिसे डेनमार्क से भारत आये ईसाई मिशनरी डॉ॰ बेंजामिन शूल्ज़ ने तैयार किया था।

डेनिश भाषी डॉ॰ शूल्ज़ प्रोटेस्टेन्ट मिशनरी थे। ये पहले तमिलनाडु में कार्यरत थे, बाद में हैदराबाद आ गए। आपकी मृत्यु सन् 1760 ई0 में जर्मनी के हाले नगर में हुई। कार्य करते हुए इनको दायित्व-बोध हुआ कि भारत में आने वाले मिशनरियों को हिन्दुस्तानी भाषा से अवगत कराना चाहिए। हिन्दुस्तानी भाषा के सम्बन्ध में लेखक ने अपनी भूमिका में लिखा, ‘‘यह भाषा अपने आप में बहुत ही सरल है। मैं जब यह भाषा सीखने लगा तो मुझे अत्यधिक कठिनाई का अनुभव हुआ ............. लेकिन इस भाषा को सीखने की तीव्र इच्छा के कारण लगातार दो महीने के परिश्रम के फलस्वरूप सारी कठिनाई जाती रही। आरम्भ में ही मैंने इस भाषा के ज्ञान की आवश्यक बातों, विशेष रूप से शब्द-क्रम को लिख लिया था। धीरे-धीरे एक व्याकरण की सामग्री एकत्र हो गयी। बाद में इसे क्रमानुसार सजाकर पुस्तक का रूप दिया गया।

शूल्ज़ ने अपना व्याकरण लैटिन भाषा में लिखा। भूमिका की तिथि 30 जून सन् 1741 ई0 है। प्रकाशन तिथि 30 जनवरी 1745 ई0 है।

इस व्याकरण में कुल छह अध्याय हैं। अध्याय एक में वर्णमाला से सम्बन्धित विचार हैं। इसी अध्याय में लेखक ने हिन्दुस्तानी भाषा के सम्बन्ध में तमिल भाषियों की इस मान्यता का प्रतिपादन किया है कि हिन्दुस्तानी भाषा या देवनागरम सारी भाषाओं की माता है। अध्याय दो में संज्ञा एवं विशेषण, अध्याय तीन में सर्वनाम, अध्याय चार में क्रिया, अध्याय पांच में अव्यय (परसर्ग, क्रिया विशेषण, समुच्चय बोधक, विस्मयादि बोधक) तथा अध्याय छह में वाक्य रचना का विवेचन है। परिशिष्ट में प्रेरितों के विश्वास की प्रार्थना, खावंद की बंदगी, बपतिसमा, खावंद की रात की हाजिरी, दस नियम, हे पिता प्रार्थना का विश्लेषण आदि हिन्दुस्तानी भाषा में दिए गए हैं जिस पर हैदराबाद में उस समय बोली जाने वाली दक्खिनी हिन्दी का प्रभाव परिलक्षित है। शब्दों को रोमन लिपि एवं फारसी लिपि में दिया गया है।

डॉ॰ ग्रियर्सन ने इस रचना के सम्बन्ध में लिखा है -

‘‘............... इसका पूरा शीर्षक है Benjamini Schulzii, Grammatica, Hindostanica, .................. व्याकरण लैटिन में है। हिन्दुस्तानी शब्द फारसी-अरबी लिपि में अनुवाद सहित दिये गये हैं। ..........उन्होंने मूर्धन्य वर्णों की ध्वनियों को और अपने अनुवाद में महाप्राणों को छोड़ दिया है। वे पुरूषवाचक सर्वनामों के एकवचन एवं बहुवचन रूपों से परिचित हैं, किन्तु सकर्मक क्रियाओं के भूतकालों के साथ प्रयुक्त होने वाले ‘‘ने के प्रयोग से अनभिज्ञ हैं।

लेखक ने कर्मकारक एवं सम्प्रदान कारक का रूप ‘‘कुँ माना है जो दक्खिनी हिन्दी के प्रभाव के कारण है।

हुमाकुं (हमको, हमारे लिए), मिझकुं (मुझे, मेरे लिए)। इसी प्रकार ‘‘तुझकुं ‘‘कौन कुं ‘‘उन कुं ‘‘इनकुं ‘‘इसकुं ‘‘किन कुं ‘‘कोई कुं आदि रूप दिए गए हैं।

इस पुस्तक से एक उदाहरण प्रस्तुत है -

‘‘छोटा भाई भाग गया कको हमारा बाप मिझकुं मालूम किये।

(हमारे पिता ने मुझे समझाया (मालूम कराया) कि छोटा भाई भाग गया।)

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