चूड़ामणि स्त्रियों के पहनने का एक आभूषण होता है मंथन से चौदह रत्न निकले, उसी समय सागर से दो देवियों का जन्म हुआ – १– रत्नाकर नन्दिनी २– महालक्ष्मी रत्नाकर नन्दिनी ने अपना तन मन श्री हरि ( विष्णु जी ) को देखते ही समर्पित कर दिया ! जब उनसे मिलने के लिए आगे बढीं तो सागर ने अपनी पुत्री को विश्वकर्मा द्वारा निर्मित दिव्य रत्न जटित चूडा मणि प्रदान की ( जो सुर पूजित मणि से बनी) थी। इतने में महालक्षमी का प्रादुर्भाव हो गया और लक्षमी जी ने विष्णु जी को देखा और मनही मन वरण कर लिया यह देखकर रत्नाकर नन्दिनी मन ही मन अकुलाकर रह गईं सब के मन की बात जानने वाले श्रीहरि रत्नाकर नन्दिनी के पास पहुँचे और धीरे से बोले – मैं तुम्हारा भाव जानता हूँ, पृथ्वी को भार- निवृत करने के लिए जब – जब मैं अवतार ग्रहण करूँगा , तब-तब तुम मेरी संहारिणी शक्ति के रूप मे धरती पे अवतार लोगी , सम्पूर्ण रूप से तुम्हे कलियुग मे श्री कल्कि रूप में अंगीकार करूँगा अभी सतयुग है तुम त्रेता , द्वापर में, त्रिकूट शिखर पर, वैष्णवी नाम से अपने अर्चकों की मनोकामना की पूर्ति करती हुई तपस्या करो। तपस्या के लिए बिदा होते हुए रत्नाकर नन्दिनी ने अपने केश पास से चूडामणि निकाल कर निशानी के तौर पर श्री विष्णु जी को दे दिया वहीं पर साथ में इन्द्र देव खडे थे , इन्द्र चूडा मणि पाने के लिए लालायित हो गये, विष्णु जी ने वो चूडा मणि इन्द्र देव को दे दिया , इन्द्र देव ने उसे इन्द्राणी के जूडे में स्थापित कर दिया। शम्बरासुर नाम का एक असुर हुआ जिसने स्वर्ग पर चढाई कर दी इन्द्र और सारे देवता युद्ध में उससे हार के छुप गये कुछ दिन बाद इन्द्र देव अयोध्या राजा दशरथ के पास पहुँचे सहायता पाने के लिए इन्द्र की ओर से राजा दशरथ कैकेई के साथ शम्बरासुर से युद्ध करने के लिए स्वर्ग आये और युद्ध में शम्बरासुर दशरथ के हाथों मारा गया। युद्ध जीतने की खुशी में इन्द्र देव तथा इन्द्राणी ने दशरथ तथा कैकेई का भव्य स्वागत किया और उपहार भेंट किये। इन्द्र देव ने दशरथ जी को ” स्वर्ग गंगा मन्दाकिनी के दिव्य हंसों के चार पंख प्रदान किये। इन्द्राणी ने कैकेई को वही दिव्य चूडामणि भेंट की और वरदान दिया जिस नारी के केशपास में ये चूडामणि रहेगी उसका सौभाग्य अक्षत–अक्षय तथा अखन्ड रहेगा , और जिस राज्य में वो नारी रहेगी उस राज्य को कोई भी शत्रु पराजित नही कर पायेगा। उपहार प्राप्त कर राजा दशरथ और कैकेई अयोध्या वापस आ गये। रानी सुमित्रा के अदभुत प्रेम को देख कर कैकेई ने वह चूडामणि सुमित्रा को भेंट कर दिया। इस चूडामणि की समानता विश्वभर के किसी भी आभूषण से नही हो सकती। जब श्री राम जी का व्याह माता सीता के साथ सम्पन्न हुआ । सीता जी को व्याह कर श्री राम जी अयोध्या धाम आये सारे रीति- रिवाज सम्पन्न हुए। तीनों माताओं ने मुह दिखाई की प्रथा निभाई। सर्व प्रथम रानी कैकेई ने मुँह दिखाई में कनक भवन सीता जी को दिया। सुमित्रा जी ने सीता जी को मुँह दिखाई में चूड़ामणि प्रदान की। अंत में कौशिल्या जी ने सीता जी को मुँह दिखाई में प्रभु श्री राम जी का हाथ सीता जी के हाथ में सौंप दिया। संसार में इससे बडी मुँह दिखाई और क्या होगी। सीताहरण के पश्चात माता का पता लगाने के लिए जब हनुमान जी लंका पहुँचते हैं हनुमान जी की भेंट अशोक वाटिका में सीता जी से होती है। हनुमान जी ने प्रभु की दी हुई मुद्रिका सीतामाता को देते हैं और कहते हैं – मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा,जैसे रघुनायक मोहि दीन्हा चूडामणि उतारि तब दयऊ, हरष समेत पवन सुत लयऊ सीता जी ने वही चूडा मणि उतार कर हनुमान जी को दे दिया , यह सोंच कर यदि मेरे साथ ये चूडामणि रहेगी तो रावण का बिनाश होना सम्भव नही है। हनुमान जी लंका से वापस आकर वो चूडामणि भगवान श्री राम को दे कर माताजी के वियोग का हाल बताया। स्वार्थ और परमार्थ दोनों की सिद्धि ईश्वर के द्वारा होती है. जीव(विभीषण)के अंतःकरण में मोह(रावण)के प्रति वितृष्णा उत्पन्न होती है, और जीव अन्त में मोह का परित्याग करके,भगवान की शरण में जाता है. और जब भगवान की शरण में आता है,तो जीवन का एक और अपवाद,एक और अंतर सामने आता है. और वह क्या? भाई! कहा जाता है कि जो प्रेय चाहेगा,उसे श्रेय नहीं मिलेगा और जो श्रेय चाहेगा उसे प्रेय नहीं मिलेगा. पर विभीषण के प्रसंग में रामचरितमानस का दर्शन यही है कि, नहीं! नहीं! परमार्थ और स्वार्थ दोनों एक साथ रह सकते हैं, मिल सकते हैं. दोनों एक दूसरे का पूरक बन सकते हैं. ईश्वर का आश्रय लेने पर, विभीषण(जीव) जब ईश्वर को शरणागत होता है तो, परमार्थिक दृष्टि से उसने ईश्वर को प्राप्त कर लिया. और भौतिक दृष्टि से अन्ततोगत्वा वह लंका का स्वामी बना. स्वार्थ और परमार्थ दोनों की सिद्धि ईश्वर के द्वारा होती है.यह सत्संग का ही प्रभाव है. गोस्वामीजी ने लिखा है – जलचर थलचर नभचर नाना।जे जड़ चेतन जीव जहाना।। मति कीरति गति भूति भलाई।जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई।। सो जानब सतसंग प्रभाऊ।लोकहुँ बेद न आन उपाऊ।। अर्थात जल में रहने वाले, जमीन पर चलने वाले और आकाश में विचरने वाले नाना प्रकार के जड़-चेतन जितने जीव इस जगत में हैं , उनमें से, जिसने, जिस समय, जहाँ कहीं भी, जिस किसी यत्न से, बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पाई है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए. वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है. बड़ी अद्भुत है सत्संग की महिमा सुंदर काण्ड का बहुत ही सुंदर है, जब हनुमानजी लंका में प्रवेश कर रहे है, हनुमानजी ने तो पूरी लंका में ही सत्संग के द्वारा प्रभाव डाला था,पर हनुमानजी के सत्संग का प्रभाव दो ब्यक्तियों पर बड़ा गहरा पड़ा, एक तो लंकिनी पर और दूसरे विभीषण पर. लंकिनी पर तो उनके सत्संग का विशिष्ट प्रभाव पड़ा. हनुमानजी ने सोचा कि छोटे बनकर लंका में घुसें पर,रावण का सुरक्षा तंत्र इतना सुदृढ़ था कि,ज्यों ही घुसने लगे,लंकिनी ने हनुमानजी को पकड़ लिया. हनुमान जी ने लंकिनी से पूछा – कि क्या लंका में सब भूखे ही भूखे रहते हैं?जो मिलता है,वही खाने के लिए कहता है? सबको भूख लगी है क्या? लंकिनी ने कहा – देख नहीं रहा है!लंका में इतना सोना है,इतना वैभव है,इतने भोज्यपदार्थ हैं, लंका में भूखा कौन है? हनुमानजी ने कहा – यदि लंका में कोई भूखा नहीं है,तो तुम मुझे खाना क्यों चाहती हो? तुरन्त लंकिनी ने कहा– मोर अहार जहाँ लगि चोरा। मैंने चोरी मिटाने का ब्रत लिया है,इसलिए मैं चोरों को खा जाती हूँ , तुझे खाने का कारण चोरों को मिटाना ही है,भूख नहीं. बस ज्यों ही हनुमान जी ने सुना,तुरन्त उठकर खड़े हुए,और कसकर एक मुक्का लगाया. लंकिनी मुँह के बल गिरी और मुँह से रक्त गिरने लगा.और उसके बाद हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी और कहने लगी– तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिय तुला एक अंग। तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।। आपके सत्संग से मैं धन्य हो गयी, हनुमानजी ने कोई भाषण तो दिया नहीं लंकिनी के सामने,केवल एक मुक्का कस के मारा और वह कहने लगी बढ़िया सत्संग हुआ. पर यदि हम बिचार करे, तो सत्संग मुक्केबाजी ही है.पर अगर उसकी सही चोट लगे तो. यह बात और है कि मुक्के बरसते रहते हैं और मुक्के बरसने के बाद भी कभी संसार के राग रूपी रक्त नहीं बहता,कभी मुँह के बल नहीं गिरते, आगे रावण को भी हनुमानजी ने मुक्का मारा.और जब मुक्का लगा तो रावण भी थोड़ी देर के लिए अचेत हो गया, और उठा तो कहा – बंदर! तेरे मुक्के में बड़ी शक्ति है. हनुमानजी ने तो सिर पीट लिया. रावण ने कहा – मैं तुम्हारी प्रशंसा कर रहा हूँ और तुम सिर पीट रहे हो? हनुमान जी ने कहा– धिग धिग मम पौरुष धिग मोही।जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही।। जब तुम नहीं मरे,तो प्रशंसा कैसी? प्रशंसा तो तब है जब सत्संग के प्रहार से मोह मर जाए. तब तो मुक्के का ठीक प्रभाव है.पर सत्संग का प्रहार होने के बाद भी मोह ज्यों का त्यों बना रहे,तो सत्संग का प्रभाव ही क्या रहा. मुक्के का प्रभाव लंकिनी पर ठीक पड़ा.हनुमानजी को लंकिनी चोर क्यों कह रही थी? वह मानती थी कि लंका का स्वामी रावण है और इस नगर में रात्रि के समय जो छोटासा बनकर घुसना चाहता है,वह चोर है.हनुमानजी ने मुक्का मारकर गिरा दिया. हनुमान जी ने कहा- पहले चोर और साहूकार की परिभाषा तो समझ ले. अगर तेरा ब्रत यही था कि जो चोर है, उसी को खाऊँगी,तो सबसे पहले रावण को खाती,जो सीताजी को चुरा कर लाया है।मैं तो चोरी का पता लगाने आया हूँ. चोर तो रावण है,और जो चोर है,उसको तू स्वामी समझ बैठी है.और मुझे समझ बैठी कि मैं चोर हूँ. तेरा तो मस्तिष्क ही उल्टा है.इसलिए तुझे मुक्के की आवश्यकता है,ताकि तेरा दिमाग ठिकाने आ जाय. और हुआ भी यही, लंकिनी तुरंत हनुमानजी से कहने लगी – प्रबिसि नगर कीजै सब काजा।हृदय राखि कोसल पुर राजा।। लंकिनी ने कहा – कि महाराज!मैं भूल से समझती थी कि मैं रावण की चेरी हूँ,और लंका का स्वामी रावण है. पर आपके प्रहार से ऐसा लगने लगा कि सच्चा स्वामी तो ईश्वर है. ऐसी परिस्थिति में तुम ईश्वर का काम करने जा रहे हो,तो ईश्वर को हृदय में रखकर प्रवेश करो. और दूसरी भ्रान्ति विभीषण के मन में भी थी, इनका भी सत्संग के माध्यम से भ्रम दूर होता है.
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