जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी
जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी (जन्म :१८७५ मलयपुर, बिहार ) हिन्दी के हास्य रस के कवि एवं साहित्यकार थे। १९२२ में उन्होने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षता की थी।
जीवन परिचय
संपादित करेंश्रीमान जगन्नाथ प्रसाद जी, माथुर चतुर्वेदी के सौश्रवस गोत्रीय "मई के मिश्र", का जन्म तत्कालीन ईस्ट बंगाल के नदिया जिले के "मेहरपुर" थाने के अंर्तगत "छिटका" ग्राम (वर्तमान में बांग्लादेश के कुष्टिया जिला के अंतर्गत) की जमींदारी में विजयादशमी संवत 1932 ( सन 1875 ) को हुआ था। साधारणत: भदावर स्टेट में बटेश्वर के नजदीक ग्राम "मई" स्थित है, जहाँ "सौश्रव गोत्रीय" मिश्र लोगों का गढ़ था। इसकी गिनती भदावर के गांवों में होती है।
जगन्नाथ जी के प्रपितामह नंदराम जी नावों से माल मिर्ज़ापुर से मुर्शिदाबाद और मुर्शिदाबाद से मिर्जापुर पहुँचाते थे। मिर्जापुर में खानदानी कोठी थी जिसकी शाखा पटना में भी थी। मजे का काम काज चल रहा था। मुर्शिदाबाद में उनकी मुलाक़ात बटेश्वर के पाठक बिहारीलाल जी से हुई।
पाठक बिहारीलाल जी कलकत्ता प्रवासी थे। गंगा व गौ के कट्टर भक्त थे। गंगा के किनारे बड़ाबाजार में निवास था। नित्य गंगा स्नान करते। कसाइयों से गाय छीन लिया करते थे। मुकदमे होते उसे वो वहां के रईसों की मदद और सिफारिश से जीत जाते थे। इन रईसों ने रोज रोज के झंझट से बचने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी से ईस्ट बंगाल के "नदिया" जिले के "मेहरपुर" थाने के अंर्तगत "छिटका" गांव की जमींदारी दिलवाकर पाठक जी को वही रहने को राजी कर, भेज दिया।
ये "छिटका" गांव मुर्शिदाबाद के पास ही है और वर्तमान में बंगलादेश के "कुष्टीया" जिले में पड़ता है।
पाठक जी के एक पुत्र व एक पुत्री थी। पुत्र ब्रह्मचारी थे, युवावस्था में ही गंगा में जल समाधि ले ली थी। अन्ततोगत्वा पाठक जी "छिटका" में अपनी पुत्री के साथ रहते थे। पाठक जी से नंदराम जी की घनिष्ठता बढी और आना जाना भी शुरू हुआ। समय गुजरा पाठक जी ने बेटी "मुन्नी" का विवाह नन्दराम के इकलौते बेटे "बंशीधर" से कर अपने समधी और जमाता को "छिटका" में बसा लिया। पाठकजी के बाद "बंशीधर" जी ही "छिटका" के जमींदार मालिक बने। उनके एक पुत्री "पार्वती" और चार पुत्र, "तुलसी प्रसाद जी", "काली प्रसाद" जी, लक्ष्मीनारायण जी और गणेश प्रसाद जी हुए।
वंशीधर जी के बड़े दोनों पुत्रों तुलसी प्रसाद और कालीप्रसाद का विवाह मलयपुर में तरसोखर के पांडे सारंगधर जी के वंशधर, कन्हैयालाल जी की चार पुत्रियों में बड़ी दो पुत्रियों, जानकी (छुहारो) व दुर्गा से क्रमशः विवाह हुआ
तुलसीप्रसाद जी के एक पुत्री "लीलावती" हुई और छह बरस बाद कालीप्रसाद जी यहाँ एक पुत्र का जन्म छिटका में हुआ। जो कालांतर में "जगन्नाथप्रसाद" के नामसे प्रसिद्ध हुए।
जगन्नाथ जी जब "सौरी" में थे, छिटका की हवेली जल कर राख हो गई। उनके तीनों मामा, बलदेवलालजी, गिरधरलालजी, जयकृष्णलालजी ( नूनू चौबे), अपनी दोनों बहनों को भांजी व भांजे को मलयपुर ले आये। यहीं दोनों का लालन-पालन ही नहीं, विवाहादि भी मामा लोगों ने ही किये। मामा तीनों अविवाहित थे अतएव उनका पूरा लाड़ प्यार इन दोनों को मिला।
फलतः जगन्नाथजी अपनी बड़ी चचेरी बहन के साथ अपनी ननसार (मलयपुर) में ही अपने मामाओं की छत्रछाया में रहे। तीनों मामा अविवाहित थे और यही हाल मलयपुर के अन्य चतुर्वेदी घरों का था।अतः ननसार ही नहीं मलयपुर के सभी चौबों से भांजे के रूप में प्रेम मिला।
शिक्षा
संपादित करेंशुभ मुहूर्त में अक्षरारम्भ किया गया। गांव की पाठशाला से "प्राइमरी परीक्षा" स्कोलरशिप के साथ पास की। आगे की पढ़ाई के लिए गांव से चार मील दूर सबडिविजनल मुकाम जमुई के "नार्मल स्कूल" में भर्ती किये गए।
नार्मल परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए आप मुंगेर जिला स्कूल में सन 1893 में भर्ती हुए। परंतु मुंगेर में अकेले रहने और खाने पीने की समस्या देख कर मझले मामा गिरधारलालजी ने उन्हें कलकत्ता अपने पास बुला लिया। यहाँ ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा स्थापित "मेट्रोपोलिटन इंस्टिट्यूट" में पढ़ने लगे और सन 1898 यहीं से "कलकत्ता विश्वविद्यालय" की "एंट्रेंस" परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की।
कविता लिखने का शौक था, इसी बीच सन 1897 में मुंगेर के "बेली पोइट्री प्राइज फंड" का प्रथम पुरस्कार उनकी 24 दोहे 4 सोरठे से युक्त *विश्वप्रेम* शीर्षक कविता पर आपको मिला था।(यही पुरस्कार सन 1938 में उनके जेष्ठ पुत्र रमाबल्लभ जी को और उनके तृतीय पुत्र राधाबल्लभ की पत्नी स्व०किशोरी देवी को सन 1939 में *बिहार गौरव* रचना पर, सन 1943 में *जयहिन्द* रचना पर पुनः सन 1949 में *हमारा देश* कविता पर प्राप्त हुआ)
एंट्रेन्स परीक्षा पास करने के बाद "मेट्रोपोलिटन कॉलेज" में एफ०ए० क्लास में भर्ती हुए। इसी दौरान उनकी दिलचस्पी "सभासमितियों" एवं "साहित्यसेवा" में बढ़ी। स्व०बालमुकुन्द गुप्त जी से मित्रता हुई, जिनके प्रोत्साहन से "भारतमित्र" में नियमित रूप से लिखने लगे और अपने मित्र स्व०प्रफुल्लकुमार चटर्जी के बंगला उपन्यास "संसारचक्र" का हिन्दी रूपांतर कर डाला जो "भारतमित्र" में धारावाहिक रूप में निकलने लगा। ये इतना लोकप्रिय हुआ कि लोग इसको पढ़ने के लिए "भारतमित्र" की बाट जोहा करते थे।
साहित्य सेवा में लगे रहने के कारण पढ़ाई में ध्यान कम हुआ फलतः सन 1900 की परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सके। अगले दो साल परीक्षा में बैठे पर सफल न होने के कारण सन 1902 में आपने पढ़ना छोड़ दिया।
विवाह
संपादित करेंजगन्नाथ जी हिन्दी साहित्य की सेवा में अपनी पैठ बना चुके थे जिस कारण एफ०ए० फिस्स भी हो चुके थे। उनका और उनके भांजे रामेश्वर का विवाह सन 1900 में जहाँगीरपुर निवासी जौनमाने जयन्तीप्रसाद जी की द्वितीय कन्या द्रौपदी और तृतीय कन्या सरस्वती से हुआ।
हिन्दी साहित्य साधना
संपादित करें- एफ०ए० फिस्स* होने के बाद एक लाभ मिला, आपकी रुचि "हिन्दी सेवा" के लिए बढ़ती गई फलस्वरूप हिन्दी को एक "अभिमानी सेवक" मिला और आपको "साहित्यिक सम्मान और गौरव।
- हितवार्ता* और *भारतमित्र* में रचनाएँ छपने लगी। सन 1903 में कुछ महीनों के लिए *हितवार्ता* के संपादक बने।
- सन 1904 में आपने *बोर्ड ऑफ एक्ज़ामिनर्स* कलकत्ता के *हिन्दी पंडित* के पद पर भी लगभग एक वर्ष काम किया।
- कलकत्ता उन दिनों हिन्दी का प्रमुख केंद्र था। साहित्यिक लहर के कारण लोगों में सर्वतोमुखी उन्नति का उत्साह था। चतुर्वेदी जी पीछे कहाँ रहने वाले थे, उन्होंने हिन्दी के प्रचार, प्रसार एवं संस्कार के कामों में पूरा सहयोग दिल खोल कर दिया। उनदिनों अनेक पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही थीं जिनमें मुख्य थी जैसे "उचितवक्ता", "हिन्दी बंगवासी", "भारतमित्र", "हितवार्ता", "विश्वमित्र","स्वतंत्र" आदि।
चतुर्वेदी जी का संबंध "भारतमित्र" "हितवार्ता" और "स्वतंत्र" से अधिक रहा। सभासमितियाँ भी स्थापित हुईं जिनका उद्देश्य साहित्यिक और राजनीतिक जागरण था। चतुर्वेदी जी का इनसे भी घनिष्ट सम्बन्ध रहा। मतलब यह है कि हिन्दी के प्रचार प्रसार में दिलचस्पी होने के कारण कलकत्ते में हुई समस्त साहित्यिक हलचलों से सम्बद्ध रहे और आपका योगदान बहुत महत्वपूर्ण रहा।
- मंगलाप्रसाद पारितोषिक के लिए *स्व० बाबू गोकुलचंद जी* से हिन्दी साहित्य सम्मेलन को धन दिलवाने में आप अग्रणी थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय में *हिन्दी एम० ए० के अध्यापन और परीक्षा* प्रारम्भ करवाने में आपका पूरा हाथ था। आपके कहने से ही आपके खास मित्र *श्री घनश्याम दास जी बिरला* ने *कलकत्ता विश्वविद्यालय* को पर्याप्त धन दिया जिससे यह संभव हो सका। हिन्दी में स्नातकोत्तर अध्ययन और परीक्षा को प्रारम्भ करने का श्रेय कलकत्ता विश्वविद्यालय को ही है। काशी नागरीप्रचारिणी सभा के आजीवन सदस्य रहे।
- हिन्दी साहित्य सम्मेलन स्थापना हेतु अर्थसंग्रह के लिए जब स्व० श्यामसुन्दर दास जी कलकत्ता गए थे तब आप उनके साथ साथ घूमे।
- हिन्दी साहित्य सम्मेलन* स्थापित होने पर उसके सदस्य बने और विशेष लागव भी हो गया। सम्मेलन के द्वितीय अधिवेशन से हर वार्षिक अधिवेशन में उपस्थित हुए।
- द्वितीय अधिवेशन (1911) में *हिन्दी की वर्तमान दशा* शीर्षक निबन्ध पढ़ा। इसी प्रकार अन्य अधिवेशनों में अलग विषय पर निबन्ध पढ़ा करते थे। सन 1915 में षष्ठम अधिवेशन में *अनुप्रास का अन्वेषण*, सन 1916 के सप्तम अधिवेशन में *हमारी शिक्षा किस भाषा मे हो*, अष्टम अधिवेशन (सन 1917) में *सिंहावलोकन* तथा सन 1918 में नवम अधिवेशन में *हिन्दी लिंग विचार* नामक निबन्ध पढ़े थे जो बहुत पसंद किए गए।
- सन 1919 में आप सोनपुर में आयोजित *प्रथम बिहार प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन* के अधिवेशनमें सभापति निर्वाचित हुए। उनके अध्यक्षीय भाषण बहुत पसन्द किया गया।
- सन 1922 में द्वादश *अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन* के लाहौर में हुए अधिवेशन में सभापति निर्वाचित हुए। अपने अभिभाषण में *व्याकरण विचार* पर अपनी धारणा व्यक्त की। जिसकी साहित्यकारों के बीच खूब चर्चा हुई।
व्यवसाय
संपादित करेंचतुर्वेदी जी एक ऐसे साहित्यकार थे जिन पर माँ सरस्वती की कृपा तो थी ही साथ में माँ लक्ष्मी का आशीर्वाद भी प्राप्त था। सन 1904 में मँझले मामा गिरिधारलाल जी के मित्र स्व० मिर्ज़ामल जी जालान के साझे में *मिर्ज़ामल जगन्नाथ एण्ड कंपनी* के नाम से चपड़े की दलाली शुरू की। पर्याप्त धन और ख्याति अर्जित की।फलस्वरूप सन 1919 में कलकत्ते में 90, सीताराम घोष स्ट्रीट वाला मकान खरीदा और मलयपुर में जमीन जायदाद बढ़ायी। अपने पेशे के बारे में कहा करते थे :-
- दो झूठों को सच्चा करना, खाना नमक हलाली का !
- कहें कबीर सुनो भई साधो, पेशा भला दलाली का !!
आप वर्षों 'कलकत्ता शैलैक ब्रोकर्स एसोसिएशन' के सभापति रहे।
मलयपुर वापसी
संपादित करें- साहित्यिक सेवा और चपड़े की दलाली करते हुए, कर्मभूमि कलकत्ते में हर ऊँचाई पाकर और अपने को स्थपित कर 30 वर्ष के बाद उन्होंने वहाँ से विदा ली। सन 1925 में चपड़े की दलाली छोड़ कर वापस मलयपुर आ गए।
- मलयपुर आते ही आप 500 एकड़ के जमींदार होगये। गांव के अविवाहित जौनमाने मामा भगवानदास चौबे जो पूर्णिया के खेवट 2 में 500 एकड़ के जमींदार थे, बहुत वृद्ध हो चुके थे। जगन्नाथ जी उनके कार्य मे कलकत्ते से आकर मदद किया करते थे। भगवानदास जी अस्वस्थ होने पर पूरी जमींदारी, पूर्णिया नरेश की सहमति से, अपने प्रिय भांजे और जौनमानों के दामाद होने के कारण जगन्नाथ जी के नाम ट्रांसफर कर दी। अब पूर्णरूपेण 500 एकड़ के जमींदार बन गए।
- मलयपुर के नज़दीक के जमुई सबडिवीजन के अंतर्गत खैरा स्टेट में सन 1927 में मैनेजर नियुक्त हुए। उनका मुख्य कार्य खैरा और बगल के गिद्धौर स्टेट ली बाउंडरी का परिसीमन करना था। जिसको इन्होंने सफलता पूर्वक निर्वाहन किया। परंतु खैरा स्टेट के मालिक गोयनका जी से मतभेद के कारण खैरा की सन 1934 में नौकरी छोड़ दी और मलयपुर आगये।
- इतनी व्यस्तता होने पर भी अपनी जाति के प्रति सजक रहते थे। *श्री माथुर चतुर्वेदी महासभा* के अधिवेशन में अवश्य शिरकत करते थे। अपने हास्यव्यंग के कारण उनकी बहुत इज्जत थी। सन 1930 में के अधिवेशन में सर्वसम्मति से सभापति निर्वाचित हुए।
- सन 1925 में दलाली छोड़ी और मलयपुर आकर अत्यन्त व्यस्तता के कारण *मिर्ज़ामल से 9 बरस (1934) तक हिसाब किताब नहीं किया। पञ्चायत का फैसला की दोनों के बीच लेनदेन बाकी नही है, मंजूर किया जिसमें बहुत घाटा आया। फलस्वरूप इन्होंने 90, सीताराम घोष स्ट्रीट वाला मकान बेच दिया।
- सन 1937 में ताबियत खराब हुई, उनको कलकत्ता के ट्रॉपिकल स्कूल ऑफ मेडिसिन के डायरेक्टर डॉ सर आर०एन० चोपरा को दिखाया 40 दिन में फायदा न होता हुआ देख मलयपुर ले आया गया जहाँ भादो बदी 4 सं०1996 ( तदनुसार 4 सितंबर 1939) को स्वर्गवासी हुए।
साहित्यक मित्र
संपादित करेंआपकी साहित्यिक मित्रों की संख्या बहुत बड़ी थी। इनमें से बहुतों से पत्र व्यवहार और मिलना जुलना होता था । हिन्दी के साहित्यकार जब कलकत्ता आते तो इनसे अवश्य मिलते और अगर ये कही बाहर गए तो अपने मित्रों से अवश्य मिलते। इन मिलन के दौरान साहित्यिक चर्चा ही होती थी।
उनके साहित्यिक मित्र
संपादित करें- कलकत्ता में
स्व० बालमुकुंद गुप्त, स्व० अम्बिकाप्रसाद बाजपेई, स्व० सकल नारायण शर्मा, स्व० लक्ष्मण नारायण गर्दे, स्व० बाबूराव विष्णु पराड़कर आदि के अलावा अन्य बहुत साहित्यकार थे।
- कलकत्ता से बाहर
स्व० देशरत्न राजेंद्रप्रसाद, स्व० रामावतार शर्मा, स्व० श्यामसुन्दर दास, स्व०.पुरुषोत्तमदास टंडन, स्व० श्रीधर पाठक, स्व० जगन्नाथप्रसाद शुक्ल, स्व० पद्मसिंह शर्मा, स्व० गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, स्व० चंद्रधर शर्मा गुलेरी, स्व० रामनरेश त्रिपाठी, स्व० दुलारेलाल भार्गव, स्व० झावरमल्ल शर्मा, स्व० वियोगी हरि आदि
- बंगला के साहित्यकार
स्व० अमृतलाल चक्रवर्ती, स्व० सरलादेवी चौधरानी, स्व० द्विजेंद्रलाल राय, स्व० शारदाचरण मित्र, स्व० राजेन्द्र चन्द्रदेव, स्व० श्यामसुन्दर चक्रवर्ती, स्व० पाँचूगोपाल बनर्जी,स्व० कालीकिंकर चक्रवर्ती, स्व० जितेंद्रलाल बनर्जी आदि
प्रकाशित पुस्तकें
संपादित करेंचपड़े की दलाली, जमींदारी और मैनेजरी करते हुए भी चतुर्वेदी जी ने अपनी रचनाओं से हिन्दी का भंडार भरा। रचनाक्रम से प्रकाशित पुस्तकों के संक्षिप्त विवरण नीचे लिखे है :-
1- *बसंतमालती* - लघु हिन्दी उपन्यास (सन 1899 से पूर्व)
2 - *संसारचक्र* - स्व० प्रफुल्लचन्द्र मुखर्जी के बंगला उपन्यास का हिन्दी रूपांतरण (सन 1899)
3 - *तूफान* - शेक्सपीयर के "टेम्पेस्ट" नामक नाटक के "चार्ल्स लैबकृत" कथासार का अनुवाद (सन 1902)
4 - *भारत की वर्तमान दशा* - श्री घामट की अंग्रेज़ी पुस्तक का रूपांतर ( सन 1906)
5 - *विचित्र विचरण* - जोनाथन स्विफ्ट के "गलीवर्स ट्रेवेल्स" का रोचक अनुवाद
6- स्वदेशी आंदोलन - स्वदेशी के समर्थन में (सन 1907)
7 - *गद्यमाला* - सन 1909 में छपी, इसमें सन 1898 से सन 1909 तक के बीच प्रकाशित स्फुट लेखों का संग्रह
8 - *निरंकुशता निदर्शन* - स्व० महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित और सरस्वती में प्रकाशित "कालिदास की निरंकुशता" शीर्षक लेखमाला की प्रत्यालोचना "भारतमित्र" में प्रकाशित "निरंकुशता निदर्शन" शीर्षक लेखमाल (सन 1911)
9 - *कृष्णचरित्र* - स्व० बंकिमचंद्र चटर्जी रचित "कृष्णचरित्र" का हिन्दी रूपांतरण सन 1912 में प्रकाशित हुआ।
10 - *मधुर मिलन* - नाटक सन 1920 में कलकत्ते में हुए एकादश "हिन्दी साहित्य सम्मेलन" के अधिवेशन के अवसर पर स्वरचित "समाज" नाटक मंचित हुआ जिसमें आपने स्वयं अभिनय किया। यह नाटक "मधुर मिलन" नाम से सन 1923 प्रकाशित हुआ।
11- *अभिभाषण* - *हिन्दी साहित्य सम्मेलन* के लाहौर में हुए द्वादश अधिवेशन (सन 1922) के अध्यक्ष पद से दिया अभिभाषण।
12 - *निबन्ध निचय* - विभिन्न अधिवेशन में पठित निबंधों का संग्रह सन 1926 में प्रकाशित।
13 - *विचित्र वीर* - स्पेन के "सर बेंटिस" के प्रसिद्ध उपन्यास "डौन क्विगजोट" के संक्षिप्त अंग्रेजी संस्करण का अनुवाद सन 1927 में छपा।
14 - *तुलसीदास नाटक* - सन 1934 में छपा।
15 - *पद्यमाला* - चतुर्वेदी जी द्वारा रचित पद्यों का संग्रह सन 1939 उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ।
संताने
संपादित करेंआपके तीन पुत्रियां और पांच पुत्र हुए।
- ब्रजकिशोरी* - सबसे बड़ी पुत्री सन 1903 में जन्म हुआ। कविता करने का शौक था और इनकी रचनाएँ स्त्री दर्पण में छपी थी। सन 1916 में फतेहपुर (एटा) के स्व० नेतराम तिवारी जी से हुआ। द्विरागमन सन 1919 में हुआ और कुछ समय बाद देहान्त हो गया
- रमाबल्लभ* - जेष्ठ पुत्र का जन्म सन 1907 में और मृत्यु सन 1973 में हुई। आप में पिता की साहित्यिक प्रतिभा और देशभक्ति प्रचुर मात्रा में थी। गांधी जी के नेतृत्व में हुए स्वतंत्रता आंदोलन में कई बार जेल गए। सन 1932 से सन 1942 के कारावास के समय इन्होंने "रेलदूत" के प्रथम व द्वितीय भाग की रचना की जो भाव, भाषा और काव्य-सौष्ठव सभी दृष्टियों से उत्कृष्ट खण्ड काव्य है। जीवन पर्यन्त गांधी जी के रचनात्मक कार्यों विशेषतः खादी, हरिजन सेवा और नशाबन्दी के लिए कार्य करते रहे।
- उमाबल्लभ* - द्वितीय पुत्र का जन्म सन 1910 में हुआ। आपने एम०ए०, एल०एल०बी० डिग्री प्राप्त कर 33 वर्ष ईस्टर्न रेलवे में कार्य कर 1968 में क्लास वन ट्रैफिक अफसर के पद से रिटायर हुए। प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के साथ ज्ञान के भंडार थे। हर विषय पर बहुत अच्छी पकड़ थी। आपका देहांत सन 1993 में हुआ
- राधाबल्लभ* - तृतीय पुत्र का जन्म सन 1913 में हुआ। अपने पिताश्री के हास्य के सही मायने में उत्तराधिकारी थे। रोने, हँसने की विभिन्न विधा के साथ तरह तरह की बोलियाँ बोलने और आंखों को मनमाना संचालन की विलक्षण प्रतिभा थी। इसके अलावा वो एक उच्च कोटि के कारीगर थे। सन 1971 में ईस्टर्न रेलवे से टिकट इंस्पेक्टर के पद पर रिटायर हुए और सन 1982 में उनकी मृत्यु हुई। आपकी पत्नी स्व० किशोरी देवी भारतवर्ष की उच्चकोटि की ब्रजभाषा व खड़ी बोली की कवियत्री थी।
- श्रीबल्लभ* - चतुर्थ पुत्र का जन्म सन 1918 में हुआ था। आप मस्तमौला इंसान थे। ब्रिटिश आर्मी कुछ समय रहे और बगदाद में कार्यरत थे। वहाँ से रिटायर होकर वापस आने पर रेलवे के कैटरर बल्लभ दास के यहाँ नॉकरी की। मेट्रिक पास नहीं थे पर पढ़ने का बहुत शौक था। नौकरी करते संस्कृत में महारथ हासिल कर "श्री भगवतगीता" का सुंदर समश्लोकि अनुवाद हिन्दी मे किया।सन 1989 में देहान्त हुआ।
*ब्रजबल्लभ* - पंचम पुत्र का जन्म सन 1923 में हुआ। चतुर्वेदी जी अंतिम संतान थे।आप इंडियन एयर लाइंस में कार्यरत थे। सन 1981 में डिप्टी जरनल मैनेजर के पद से रिटायर हुए। आप सामयिक विषयों पर तुकबंदी किया करते थे। सन 2015 में गोलोकवासी हुए।
- इंदुमती* - द्वितीय पुत्री का जन्म सन 1915 में हुआ। इनका विवाह कमतरी निवासी शिवकुमार जी से सन 1936 में और मृत्यु सन 1998 में हुई।
- प्रभावती* - तृतीय पुत्री का जन्म सन 1920 में हुआ। विवाह आपका मथुरा निवासी मुरारीलाल जी सन 1936 में हुई। मृत्यु सन 2009 में हुई।
- विशेष
" सन 1975 में जगन्नाथप्रसाद जी की जन्म शताब्दी वर्ष था, हम उनके परिवार के लोग कोई समारोह "आपातकाल" के कारण नहीं कर सके। परन्तु उनका "स्मृतिग्रन्थ" स्व० पंडित श्रीनारायण जी चतुर्वेदी ( भैया साहब ) के सम्पादन में प्रकाशित हुई जिसका विमोचन सन 1978 में तत्कालीन विदेश मंत्री स्व० पंडित अटल बिहारी वाजपेयी जी के कर कमलों द्वारा हुआ था।
इसी बीच मलयपुर के रेलवे स्टेशन जमुई के निकट लगभग एक एकड़ जमीन पर " हास्यरसावतार चतुर्वेदी" के नाम का "स्मृति भवन" का निर्माण परिवार ने कराया। जिसका उदघाटन सन 1986 में हुआ।