जल प्रलय कि घटना लगभग सभी धर्मो में प्रचलित है। हिंदू पुराणों में भागवत कथाएं इस घटना क़े बाद कि है़। जल प्रलय कि घटना मनु से जुड़ी है। मनु वर्तमान सभ्यता क़े प्रथम पुरुष थे।

ईसा मसीह से लगभग 3200 वर्ष पहले जगद्‌विख्यात प्रलय हुआ था, जिसका वर्णन संसार की सभी प्राचीन पुस्तकों में है। प्राचीन पर्शिया के इतिहास लेखक जैनेसिस ने भी इस जल प्रलय के बारें में लिखा है। यह प्रलय मेसोपोटामिया और पर्शिया के उतर पश्चिम प्रदेश में हुआ था। नक्शा में ध्यान से देखेंगे तो पता लगेगा कि पर्शिया का यह भाग दक्षिण में फारस की खाड़ी और उतर में काश्यप सागर ( कैस्पियन सी ) से घिरा हुआ है। पर्शिया के पश्चिमोतर कोण में आरमीनिया प्रदेश है, वहाँ के बर्फीले पर्वतो से फरात नदी निकल कर मेसोपोटामिया में आई है, जो मेसोपोटामिया की खास नदी है। यह नदी बहुत बडी एवं विस्तार वाली है। एक अन्य नदी शतुल अरब है जिसमें समुद्र में चलने वाले जहाज आ जा सकते थे। ये नदियां समुद्र के समान गहरी और बड़ी थीं। बर्फ का बांध टुट कर दजला नदी में आई और उस प्रदेश को जो फारस की खाड़ी और कश्यप सागर के बीच में स्थित है, समूचा डुब गया।

इस प्रलय में सारा ईरान जलमग्न हो गया और वह मृत्युलोक बन गया था। इस प्रलय का कारण वहां के किसी ज्वालामुखी का विस्फोट था। ज्वालामुखी के विस्फोट से बर्फ की चट्टान टुट गई और दजला नदी का उदगम कश्यपसागर और फारस की खाड़ी ने मिलकर ईरान को जलमग्न कर दिया। काश्यप सागर प्रदेश में एक स्थान का नाम बाकू है, जहाँ अब भी पृथ्वी से अग्नि निकलती है, यह उसी जवालामुखी के विस्फोट का अवशेष है। इस भूस्थल में कुछ ऐसे स्थल थे जो समुद्रतल से 18000 फुट तक ऊँचे थे, वहाँ प्रलय का जल नहीं पहुंचा, परन्तु वृक्ष वन वनस्पति मनुष्य और पशुपक्षी इस देश के भी नष्ट हो गए थे। पैलेस्टाइन का वह भाग जो फारस की खाड़ी के पश्चिम दक्षिण में समुद्रतल से केवल 6 हजार फुट ऊँचा था, वह सर्वथा जलमग्न हो गया था। यहाँ नष्ट होनेवाली जाति अर्राट थी जो चाक्षुष मनु के पुत्र महाराज अत्यराति जानन्तपति की वंशज थी। प्रलय से पूर्व वेविलोनिया में मत्स्य जाति के लोगों का राज्य था। यह जाति प्रसिद्ध नाविक थी। प्रलय के समय मन्यु ने इसी जाति के किसी नेता की सहायता से अपने परिवार की प्राण रक्षा की थी। बाइबिल तथा अवस्ता में इसे नूह का नाम दिया गया है। शतपथ ब्राह्मण तथा मत्स्य पुराण में प्रलय की घटना वर्णित है, उसमें लिखा है कि मनु के हाथ में एक मछली लगी जिसने उसकी रक्षा की। [1]


मन्यु ने सुषा नगरी बसाई थी, और उसे अपनी राजधानी बनाया था। पुराणों तथा प्राचीन पर्शिया के इतिहास में सुषा के बैभव का बड़ा भारी वर्णन है। यह प्रसिद्ध नगरी बेरखा नदी के तट पर स्थित था, जो उस काल में सम्यता का केन्द्र थी। संभवतः सुषा तक प्रलय का जल नहीं पहुँचा। फिर भी यह नगरी प्रलय के बाद उजड़ गई। बहुत लोग मर गए शेष उसे छोड़कर चले गए। इस उजड़ी सुषा नगर पर घुल के स्तर जमते गए एवमं कालान्तर में यह पांच फुट मोटा हो गया। इसके बाद जब स्वयंभुव मनु के अंतिम प्रजापति दक्ष का अधिकार समाप्त हुआ। दक्ष प्रजापति के पुत्री अदिति से कश्यप ऋषि को बारह पुत्र का जन्म हुआ था, जो आदित्य कहलाये। बारह आदित्य का नाम इस प्रकार थे- विवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम। सूर्य के ही वंशधर भारत में आर्य जाति में संगठित हुए, परन्तु शेष ग्यारहों आदित्य ईरान, मिस्र, पैलेस्टाइन, अरब, तिब्बत और चीन तक के क्षेत्र में अपना राज्य स्थापित किया। प्रलय के बाद दक्ष प्रजापति की पुत्री अदिति का पुत्र वरुण सुषा नगरी में आकर उन्होंने मिट्टी खुदवाकर साफ किये। सुषा नगरी पर जमा घूल मिट्टी हटाये तथा प्रलय के जलों को नहर खुदवा कर समुद्रों में बहा दिया तथा सुषा प्रदेश और मेसोपोटामिया में आदित्यों की नगरी बसाई। वरुण सूर्य के भाई थे। बाद में सूर्यकुल ने आर्य जाति का निर्माण किया और वरुण ने सुमेर जाति को जन्म दिया। यह सुमेर जाति सुमेर सम्यता की प्रस्तारक और ईरान की प्राचीन शासक हुई। संसार के पुरातत्वविद डाक्टर फ्रेंक फोर्ट और लेग्डन कहते हैं कि प्रोटो इलामाइट सम्यता का ही विकसित रूप सुमेरू सम्यता है अर्थात प्रोटो इलामाइट से ही सुमेरू सम्यता का जन्म हुआ। जिसे प्रोटाइलामाइट जाति कहा गया है वह चाक्षुष जाति थी जिसके छह महारथियों ने विलोचिस्तान और इरान होते हुए इलाम और मेसोपोटामियां में अपने राज्य स्थापित किए थे।

सुमेरू सभ्यता के संस्थापक एवं प्रलय के बाद दुबारा सृष्टि रचने वाले सूर्य के भाई वरुण थे। पाश्चात्य लोग वरुण को लार्ड क्रियेटर कहते थे जिसका मतलब देव कर्तार ब्रह्मा है। अवस्ता में वरुण को अरुमज्द कहा गया है। इलोहिम या इलाही का अर्थ है इलावर्त के उपास्य देव वरुण। शतपथ ब्राह्मण और जैनेसिस के इतिहास में कहा गया है कि वरुण देव ने पृथ्वी और आकाश को सम किया। वरुण ने प्रलय के रूके जलों को समुंद्र में नहरें खुदवा कर बहा दिया। समुद्रों की सीमा बांधी, जल को अधिकार में किया। पृथ्वी को सुखी, समतल एवं उपजाऊ बनाकर उसमें बीज बोए। इसी से वरुण को जलों का देव कहते हैं। उन दिनों अरब और फारस के बीच का सारा इलाका सुषा स्थान कहलाता था। नवीन सृष्टि रचने और आदित्यों में बड़े होने के कारण वरुण को ब्रह्मा कहा गया है तथा जल का विभाजन करने से नारायण कहा गया है। जल को संस्कृत में नारा भी कहते हैं। अंग्रेजी इतिहासकार जैनेसिस के अनुसार इलाही ने कहा जल से जल पृथक होने चाहिए एवं स्वर्ग के जलों को एक जगह एकत्र होने दो और शेष पृथ्वी को सूखने दो।

प्राचीन ईरानी इतिहासकार और अवस्ता दोनों में ही स्वीकार किया गया है कि वारुण लोग वरुण को ही सृष्टि का रचयिता मानते हैं। प्राचीन ईरान के कापाडोसिया प्रान्त में इन्द्र और वरुण की शपथ के शिलालेख मिले हैं। वरुण के इस समूचे साम्राज्य का नाम अमरदेश था और सुषा का नाम अमरावती भी था। अपर्वत वर्तमान ईरान का एक प्रदेश था जो कलात नादरी के निकट था। उस समय उसे अवर्द या अविवर्द दोजख कहते थे वहां सूर्य पुत्र यम ने महाजल प्रलय के बाद अपने नवीन राज्य की स्थापना की थी। वहाँ के अधिकांश लोग जल प्रलय में मर चुके थे इसलिए यम के राज्य को मृत्युलोक कहाने लगा। ईरानी इतिहास में यमशिद का नाम विख्यात है। ईरानी लोग उसी नाम पर अपना नाम जमशेद रखते थे, तथा यमशिद की पूजा करते थे।

प्रलय काल के बाद वाराह राज से वरुणदेव को जल से पृथ्वी को उभारने में बड़ी सहायता मिली थी। तभी से देवों को इस जाति से मैत्री सम्बन्ध हो गए थे। कोला वाराह वंशियों का राज्य योरोप के उतरी पश्चिमी प्रदेश नारवे द्वीप पर स्थित था। उस काल में उस अंचल को कोला पैनिन्सुला कहते थे। यहाँ के निवासी कोल कोल्ट कैल्ट कहाते थे।

बाहरी कड़ियाँ

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  1. एच एच ड्रेक, विलियम्स. बाइबल का अर्थ निकालना Making Sense of the Bible. एसएआईएसीएस प्रेस. अभिगमन तिथि 15 दिसंबर 2017.