जिनप्रभ सूरि ईसवी सन् की १४वीं शताब्दी में एक असाधारण प्रतिभाशाली जैन आचार्य हुए थे। मुगल बादशाह अकबर के दरबार में जो स्थान जगद्गुरु हीरविजय सूरि को प्राप्त था, वही स्थान तुगलक सुलतान मुहम्मदशाह के दरबार में जिनप्रभ सूरि का था।

जिनप्रभ सूरि लघु खरतर गच्छ के प्रवर्तक जिनसिंह सूरि के प्रधान शिष्य थे। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में विविध विषयों पर इन्होंने महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे हैं। प्रतिदिन किसी अभिनव काव्य की रचना करने के पश्चात् ही आहारग्रहण करने का उनका नियम था। उनके जीवनकाल में बघेला वंश का अंत, गुजरात का मुसलमान बादशाहों के अधिकार में चला जाना, दिल्ली में मुगल सल्तनत का आरंभ आदि अनेक रोमांचकारी ऐतिहासिक घटनाएँ घटी थीं।

जिनप्रभ सूरि को भ्रमण का बहुत शौक था तथा गुजरात, राजस्थान, मालवा, मध्यप्रदेश, बरार, दक्षिण, कर्णाटक, तेलंगाना, बिहार, अवध, उत्तर प्रदेश और पंजाब आदि स्थानों की यात्राएँ इन्होंने की थीं। अपने विविध तीर्थकाल में इस भ्रमण का विस्तृत वृतांत जिनप्रभ सूरि संकलित किया है। इस वृत्तांत के अनुसार विक्रम संवत् १२५ (११९९ ई.) में सुलतान अलाउद्दीन के छोटे भाई उल्लू खाँ (अलफ खाँ) ने दिल्ली से गुजरात पर आक्रमण किया। उस समय चित्तौड़ के नरेश समरसिंह ने उल्लू खाँ को दंड देकर मेवाड़ की रक्षा की। विविध तीर्थकल्प में बनारस के मणिकणिंकाघाट तथा देववाराणसी, राजधानी वाराणसी, मदन वाराणसी और विजयवाराणसी का उल्लेख है। राजधानी वाराणसी में यवन रहते थे। आजकल का मदनपुरा ही मदन वाराणसी हो सकता है।