जीवन की डोर किसके हाथ
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कीती फकीरी हाथ दिखाता,व्यग्र हयात पूरी वीरान।
सूरज’ कौन पकड़ा डोर यहां, जो लगाए पूर्वानुमान।
जीवन और ये संसार अनेक कल्पनाओं और रहस्यों से घिरा हुआ है। कल्पना भी ऐसा जो मनुष्य के समर्थ पर निर्भर करता हो। परंतु यह समर्थ कितनी है? इतनी कि मनुष्य उसपर विचार कर सकें या इतनी जो मनुष्य के कल्पनाओं से परे हो। है तो वो भी कल्पना ही। क्या मैं अपनी कल्पनाओं के माध्यम से इस सृष्टि के निर्माण की प्रक्रिया को समझ सकता हूं। जो संसार को चला रहा है या यह संसार खुद चल रहा है इसकी गणना कर सकता हूं। मन में बहुत विचार आते हैं। फिर अपने मन के विचार पर विचार किया मैंने की विचार मन में आए क्यों।
मनुष्य जीवन की ज्ञान की आवश्यकता एक नई खोज का जन्म देता है मैं भी इस रहस्य को जानने का प्रयास किया, पर झूठ नहीं कहूंगा मैं कुछ जान नहीं पाया। मेरी इंसानी सोच समझ मुझे उसे परालौकिक उत्तर को जानने के लिए समर्थ नहीं बनाती।
मनुष्य में जब शब्द निर्माण की प्रक्रिया हुई होगी। तभी से विवाद का विषय ये रहा होगा कि विचार पहले निर्माण हुआ होगा कि शब्द का। बिना शब्दों के विचार कैसे निर्मित हुई होगी? इसी तरह विकास की प्रक्रिया चलती रही मनुष्य के उत्सुकता उसे सच को जानने के लिए निरंतर प्रयासरत रहा। जो वह आसपास देख रहा है स्वयं वो खुद यह प्रश्न उसे परेशान कर रही है।
सारा विचारों का ही तो खेल है। परंतु जो आसपास दिख रहा भौतिक वस्तुएं वह तो कल्पना मात्र नहीं हो सकती। मनुष्य वास्तविकता और आवास्तविकता के भंवर में फंसता जा रहा है। अनेक कल्पनाएं हुए, अनेक दार्शनिक बने, सबके अपने विचार हुए। कोई तार्किकता पर अपनी बात सिद्ध करने लगा कोई अलौकिक प्रमाण देने लगा। पर प्रश्न वही का वही है आखिर हूं कौन?
क्या अलौकिकता का धारना ज्ञान और विचार को सीमित कर देता है क्या इस आत्मा परमात्मा विचार के अलावा कोई दूसरा सच है। जब तक मनुष्य के विचार में यह प्रश्न आते रहेंगे उसकी जिज्ञासा के तृष्णा कभी शांत नहीं होगी। शत प्रतिशत तो नहीं परंतु एक अंश मात्र, व्यक्ति खुद को समझ अगर पा गया तो संसार के निर्माण की प्रक्रिया को समझ पाएगा? हां विज्ञान सिद्ध करने पर लगा है। लेखन के प्रथम पंक्ति में लिखी कविता भी इसी तरफ इशारा करता है। इस संसार के निर्माण किसी एक कारक से तो संभव नहीं है। जरूर इसमें दो या दो से अधिक कारको का योग रहा होगा।