शेख़ क़लन्दर अलीबख़्श "जुरअत", फ़ैज़ाबाद के प्रसिद्ध उर्दू शायर थे। इनके पूर्वज दिल्ली के निवासी थे जो नादिर शाह के आक्रमण के समय यहाँ आ गए थे। यहाँ के दरबार में मिर्ज़ा क़तील और सैयद इंशा भी थे। इनकी लतीफ़ागोई और मसख़री शीर्ष पर थी। ये सितार भी बजाते थे। ये अपने को मीर के दर्जे का समझते थे। जल्दी ही ये अमीरों के हरम तक में चुटकुला सुनाने के लिए बुलवाए जाने लगे। फिर अंधेपन का बहाना बनाकर परदे और हया की सीमा को लाँग गए। बाद में ये वास्तव में अंधे हो गए। दरबार में इसपर भी टिप्पणियाँ और फ़ब्तियाँ कसी जाने लगी। नियाज़ फ़तेहपुरी के शब्दों में जुरअत सिर्फ ग़ज़ल कहने वाले शायर थे और हुश्नओइश्क़ को उन्होंने बहुत अदने सतह पर आकर बयान किया है। इसलिए ये एक ख़ास तर्ज़ के आविष्कारक समझे जाते हैं, जिसमें शोख़ी, बेबाकी बल्कि अश्लीलता का भी असर है।[1]

  1. नियाज़ फ़तेहपुरी. इन्तक़ादियात. पृ॰ १२०.