जोगीशो और पालशा नरसंहार
जोगीशो और पालशा नरसंहार १६ मई १९४७ मे बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के दौरान पूर्वी पाकिस्तान के राजशाही विभाग के दुर्गापुर उपजिला मे स्थित जोगीशो और पालशा गाँव के बंगाली हिंदुओं के ऊपर पाकिस्तानी सेना और रजाकर द्वारा एक पूर्वचिन्तित नरसंहार था।[1][2][3] सूत्रों के अनुसार ४२ बंगाली हिंदुओं को पाकिस्तानी सैनिकों ने रजाकरों के साथ मिलकर मारा था।[1][2][3][4][5]
जोगीशो और पालशा नरसंहार | |
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सम्बंधित: १९७१ बांग्लादेश नरसंहार | |
स्थान | बांग्लादेश के राजशाही विभाग के दुर्गापुर उपज़िला मे स्थित जोगीशो और पालशा गाँव |
निर्देशांक | 24°35′54″N 88°32′02″E / 24.598358°N 88.534001°Eनिर्देशांक: 24°35′54″N 88°32′02″E / 24.598358°N 88.534001°E |
तिथि | १६ मई १९४७ |
लक्ष्य | बंगाली हिन्दू |
हमले का प्रकार | Burst fire, नरसंहार |
हथियार | मशीन गन, किर्चो |
मृत्यु | ४२ |
हमलावर | पाकिस्तानी सेना, रजाकर |
पृष्ठभूमि
संपादित करेंजोगीशो और पालशा गाँव पश्चिमी बांग्लादेश के राजशाही ज़िला मे दुर्गापुर उपज़िला के देउलबारी यूनियन मे स्थित है । दोनों गांवों में बंगाली हिंदुओं की आबादी काफी है। १९५६ मे पाबा पुलिस थाने के अंदर दारुसा गाँव में हिंदुओं पर हुए हमलों के दौरान जोगीशो गाँव में ५-६ हिंदू परिवारों पर भी हमला किया गया था। इन हमलों के बाद, हिंदुओं और मुसलमानों दोनों की एक शांति समिति का गठन किया गया था ताकि हिंदुओं पर हमले को रोका जा सके।[6]
घटनाक्रम
संपादित करें१६ मई १९७१ की सुबह, पाकिस्तानी सेना के ६ वैन के साथ पड़ोसी गांवों के रजाकार लोग जोगीशो गाँव में आ पहुचे थे । सैनिकों के आगमन पर जोगीशो के हिंदुओं ने पास के घने जंगलों मे छिप गए थे। गाँव के पोस्टमास्टर अब्दुल कादेर के नेतृत्व में रजाकर जोगीशो और पालशा के हिंदुओं को उनके छिपे स्थानों से बाहर निकाला था। फिर वे सभी बंधकों को जोगीशो प्राथमिक विद्यालय में ले आए, और हिंदुओं को मुसलमानों से अलग पंक्ति मे खड़ा कर दिया।[1][2][3][7]
सैनिकों ने फिर उन ४२ हिंदुओं को दूर एक झोपड़ी में ले गए और फिर उन्हें अपने बंदूक से मारा, बाद में मशीन गनों से उन्हें मार डाला। जो लोग गोलियों से बच गए, उन्हें अपने किर्चो से मार दिया। फिर सैनिकों और रजाकारों ने शवों के अवशेष लेकर उन्हें पास के तालाब में दफना दिया। बाहर जाते समय, उन लोगों ने हिंदुओं के खाली घरों को भी लूट लिया और उनके कीमती ज़ेवर सब ले गए।[1][2][3]
डॉ एम ए हसन ने अपने पुस्तक "युद्ध और नारी", [8] [9] में जोगीशो गाँव की विधवाओं की साक्ष्यों को प्रस्तुत किया है। पुस्तक में जिन विधवाओं के नामों का उल्लेख किया गया था, उन्होंने गवाही दी थी कि कैसे उनके पति, उनके बच्चों आदि को रजाकारों ने एक " शांति समिति की बैठक" के बहाने उन्हे बाहर बुलाया और फिर उन्हें पाकिस्तानी सैनिकों को सौंप दिया। जो लोग इस जाल से बच सकते थे, वे रात को गिरने तक पास के जंगलों में छिपाए हुए थे, और फिर अपने सभी क़ीमती सामान और ज़ेवर लेकर भारत चले गए। आज, कुछ विधवाएँ अब भी जोगीशो और पालशा गाँवों में जीवित हैं।[8]
परिणाम
संपादित करेंराजशाही ज़िला परिषद ने १९९६ मे जोगीशो के जनसमाधि उसके रखरखाव और सुरक्षा के लिए उसके चारों ओर पाँच दशमलव जमीन खरीद लिया था इस इलाके में डेढ़ फीट ऊंची ईंट की दीवार थी और शहीदों के नाम पट्टिका लगाई गई थी। [11] बाद में, राजशाही जिला परिषद ने अंदर एक स्मारक बनाया, जिसमें शहीदों का नाम प्रदर्शित किए गए थे। २००६ मे शहीदों के कुछ अवशेष बरामद किए गए थे, जिन्हें अभी भी पहचाना जाना और उनके अंतिम संस्कार के लिए उनके परिवारों को सौंप देना बाकी है। [12] कुछ सूत्रों के अनुसार, विधवाओं को सरकार से उनकी पेंशन नहीं मिल रही है। [13] [12]
जोगीशो सामूहिक कब्र की सुरक्षा के लिए अधिगृहित भूमि स्थानीय अवामी लीग के नेता रुस्तम अली के स्वामित्व वाली भूमि के एक टुकड़े से सटी हुई है। २००८ में नौपारा यूनियन अवामी लीग के उपाध्यक्ष चुने जाने के बाद उन्होंने जबरन भूमि पर कब्जा कर लिया और सामूहिक कब्र पर स्मारक पट्टिका को नष्ट कर दिया। उन्होंने नटोर के तैय्यब अली की याद में सामूहिक कब्र के ऊपर एक खानकाह शरीफ का निर्माण किया और इसका नाम शाह सूफी हज़रत तैयब अली खानकाह शरीफ रखा। [14] खानकाह शरीफ में हर गुरुवार की रात एक धार्मिक सभा आयोजित की जाती है, जहां अनुयायी गांजा पीते हैं। स्थानीय बंगाली हिंदुओं द्वारा बड़े पैमाने पर जनसमाधि का दुर्विनियोजन का विरोध करने के बाद, रुस्तम अली ने खानकाह शरीफ इमारत की दीवार पर स्मारक पट्टिका लगवाया । [14] [15] [16]
संदर्भ
संपादित करें- ↑ अ आ इ ई "দৈনিক জনকন্ঠ || রাজশাহীর যোগীশো গণহত্যা ॥ ১৬ মে, ১৯৭১". Dainik Janakantha (Bengali में). मूल से 2020-11-27 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-12-03.
- ↑ अ आ इ ई "৭১'র ১৬ মে: কাদের মাস্টারের বিশ্বাসঘাতকতা ও যুগিশো-পালশার গণহত্যা". সোনালী সংবাদ (अंग्रेज़ी में). 2020-05-16. मूल से 2020-11-27 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-12-03.
- ↑ अ आ इ ई "Jogisho and Palsha Massacre 1971". www.storiesofbengalihindus.com (अंग्रेज़ी में). मूल से 3 दिसंबर 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-12-03.
- ↑ "যুদ্ধ ও নারী ডা. এম এ হাসান ১ম অংশ (Unicoded)". সংগ্রামের নোটবুক (अंग्रेज़ी में). 2018-12-13. मूल से 2020-11-27 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-12-03.
- ↑ "Jogisho and Palsha massacre". Wikidata (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2020-12-03.
- ↑ Rabat, Shabbir Mahmud (27 March 2019). "১৯৭১, রাজশাহীর যোগীশো ও পালশা গণহত্যা". Bangladesh Awami League (Bengali में). Bangladesh Awami League. मूल से 6 दिसंबर 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 3 December 2020.
- ↑ "৭১'র ১৬ মে: কাদের মাস্টারের বিশ্বাসঘাতকতা ও যুগিশো-পালশার গণহত্যা". সোনালী সংবাদ (Bengali में). 2020-05-16. मूल से 27 नवंबर 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-12-07.
- ↑ अ आ "যুদ্ধ ও নারী ডা. এম এ হাসান ১ম অংশ (Unicoded)". সংগ্রামের নোটবুক (अंग्रेज़ी में). 2018-12-13. मूल से 2020-11-27 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-12-03.
- ↑ Hassan, M.A. (2010). জুদ্ধ ও নারী (War & Women). Dhaka. पपृ॰ 93–95, 106–110, 156–160. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 7-00-960045-7.
- ↑ अ आ "৭১'র ১৬ মে: কাদের মাস্টারের বিশ্বাসঘাতকতা ও যুগিশো-পালশার গণহত্যা". সোনালী সংবাদ (अंग्रेज़ी में). 2020-05-16. मूल से 27 नवंबर 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-12-03.
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- ↑ "দুর্গাপুরের যুগীশো গণহত্যা/ শহিদ পরিবারগুলোর খোঁজ রাখে না কেউ". সোনালী সংবাদ (अंग्रेज़ी में). 2019-12-15. मूल से 2020-11-27 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-12-03.
- ↑ अ आ Abdullah, Dulal (26 March 2016). "গণকবর দখল করে খানকাহ শরিফ!". Bangla Tribune (Bengali में). Gemcon Group. मूल से 27 नवंबर 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 4 December 2020.
- ↑ "Jogisho and Palsha Massacre 1971". www.storiesofbengalihindus.com (अंग्रेज़ी में). मूल से 3 दिसंबर 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-12-03.
- ↑ "মুক্তিযুদ্ধে শহীদ ৪২ জন হিন্দুর গণকবর এখন আ.লীগ নেতার খানকাহ শরীফ!". সময় এখন (अंग्रेज़ी में). मूल से 2020-11-27 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-12-03.