जोजेफ विलियम मेलार्ड टर्नर

जोजेफ मैलार्ड विलियम टर्नर (23 अप्रैल 1775 - 19 दिसम्बर 1851) इंगलैण्ड के चित्रकार थे।

बाल्यकाल से ही टर्नर चित्रकारी किया करते थे। उनके पिता इन चित्रों को अपने केश कर्तनालय में रखते थे और हजामत का कार्य करते करते लगे हाथ उन्हें बेच भी लेते थे। 11 साल की उम्र में उन्होंने सोहो अकादेमी में अपनी शिक्षा शु डिग्री की और कुछ ही वर्ष के बाद रायल अकादेमी के विद्यालय में प्रवेश किया। चित्रकारी में पारंगत होने का उन्होंने बीड़ा उठाया था। आर्किटेक्ट और एनग्रेवर्स के छोटे मोटे कामों में वे अक्सर मदद किया करते थे जिससे उनका गुजारे लायक उपार्जन भी हो जाया करता था। इन्हीं दिनों टर्नर की गिर्तिन नामक जल-रंग-विशारद चित्रकार (water colourist) से भेंट हुई। ये दोनों चित्रकार डॉक्टर टॉमस मनरो के निवासस्थान पर मिला करते थे। चित्रों के बारे में बाद विवाद तथा आलोचनाएँ हुआ करती थीं। मनरो बड़े उदार व्यक्ति थे। चित्रकारों से वे बड़ा प्रेम करते थे और उनकी आर्थिक एवं नैतिक सहायता भी किया करते थे।

सन् 1797 में टर्नर ने अपना तैलचित्र प्रथम रायल अकादेमी में प्रदर्शित किया। इन्हीं दिनों किसी मासिक पत्रिका से उनको अनुबंध मिला। टर्नर को इस अनुबंध के अनुसार जगह जगह प्रवास करना था। प्रकृति के स्थानीय रेखाचित्र बनाने थे। इस कार्यभार के परिणामस्वरूप टर्नर की प्रकृतिचित्रण की एक अपनी विशिष्ट शैली बन गई।

कोज़्ोन्स (1752-99) के जलचित्र टर्नर ने जब देखे, उन्हें ज्ञात हुआ कि काव्यमय सौंदर्य की सृष्टि निसर्ग के अप्रत्याशित रंगों और भावों में होती है। प्रकृति का सौंदर्य अपने में स्वयं पूर्ण है और चित्रकार को सौंदर्य दर्शन करने के लिये प्रकृति की ही शरण लेनी होगी।

टर्नर को 1799 में रायल अकादेमी का सहकारी सदस्य चुना गया और 1802 में वे पूर्ण सदस्य बन गए। अब उनकी कीर्ति फैलने लगी। धनार्जन भी बिना किसी रुकावट के चलता रहा। टर्नर अब अकाश, मेघ, सागर आदि का बदलता रूप अपने चित्रपटलों पर अंकित करने लगे।

उदाहरणस्वरूप, "युलेसिस और पालिफिमस" नामक चित्र-यह निसर्ग की एक झाँकी (vision) का आंतरिक दृश्य है। बादलों के पलायित खंड, रंगों के बदलते भाव, प्रकाशपुंजों की "स्वर्णमयी अप्सर रमणी; मानों टर्नर के इस चित्र में अवारित दिखाई देते हैं। घनीभूत वातावरण के पार्श्वपटल पर चमकते दमकते, बदलते, संध्याराग अनुभूत रागिणी समान बज उठते हैं। आंत्वान वात्तो की कला प्रकाश पर आधारित थी। वात्तों के बाद टर्नर ने यूरोपीय कला को छायाप्रकाश के तर्क से मुक्तकिया। उनके चित्रों में प्रकाश ही महत्व रखता है। प्रकाश को आधार बनाकर 19वीं शताब्दी में मोने, रेन्वा, सोरा, आदि चित्रकारों ने जो आंदोलन शु डिग्री किया उसकी प्रस्तावना हम टर्नर के निसर्ग चित्रों में पूरी तरह से पाते हैं।

"तेमरैर समर नौका का आखरी प्रवास" चित्र में इंग्लैंड को नेपोलियऩ पर मिली हुई विजय का एक गर्वपूर्ण जयघोष है।

रस्किनने अपने फ़ मॉडर्न पेंटर्सफ़ नामक कला के आलोचनात्मक ग्रंथ में टर्नर की बड़ी प्रशंसा की टर्नर ने जीवन पर्यंत विवाह नहीं किया लेकिन गृहस्थ जीवन बिताने की उनकी बड़ी अभिलाषा थी। वे अपना दिन दो प्रकार से व्यतीत करते थे। उनका एक रूप महान चित्रकार का था, जब वे अपने स्टूडिओ में बड़े बड़े लोगों से मिलते जुलते थे और कला संबंधी विषयों पर विचार आलोचनाएँ किया करते थे। अपने दूसरे रूप में वे संशयास्पद बस्ती में किसी न किसी महिला के साथ शराब एवं विलासिता में, भोगसुलभ लोलुपता में, टर्नर के बदले "बूथ" नाम से अपना परिचय देते थे। इस तरह उनका समय बीत जाता था।

दिसंबर 1851 में लंदन शहर में टर्नर का देहांत हुआ। वे सफल एवं संपन्न चित्रकार थे। उन्होंने अपनी सारी संपत्ति कला और कलाकारों के हितार्थ समर्पित कर दी।