पांडुकेश्वर में पाये गये कत्यूरी राजा ललितशूर के तांब्रपत्र के अनुसार जोशीमठ कत्यूरी राजाओं की राजधानी थी, जिसका उस समय का नाम कार्तिकेयपुर था। लगता है कि एक क्षत्रिय सेनापति कंटुरा वासुदेव ने गढ़वाल की उत्तरी सीमा पर अपना शासन स्थापित किया तथा जोशीमठ में अपनी राजधानी बसायी। वासुदेव कत्यूरी ही कत्यूरी वंश का संस्थापक था। जिसने 7वीं से 11वीं सदी के बीच कुमाऊं एवं गढ़वाल पर शासन किया।

फिर भी हिंदुओं के लिये एक धार्मिक स्थल की प्रधानता के रूप में जोशीमठ, आदि शंकराचार्य की संबद्धता के कारण मान्य हुआ। जोशीमठ शब्द ज्यो़एऐतिर्मठ शब्द का अपभ्रंश रूप है जिसे कभी-कभी ज्योतिषपीठ भी कहते हैं। इसे वर्तमान 8वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने स्थापित किया था। उन्होंने यहां एक शहतूत के पेड़ के नीचे तप किया और यहीं उन्हें ज्योति या ज्ञान की प्राप्ति हुई। यहीं उन्होंने शंकर भाष्य की रचना की जो सनातन धर्म के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है।

शंकराचार्य के जीवन के धार्मिक वर्णन के अनुसार भी ज्ञात होता है कि उन्होंने इसके पास ही अपने चार विद्यापीठों में से एक की स्थापना की और इसे ज्योतिर्मठ का नाम दिया, जहां उन्होंने अपने शिष्य टोटका को यह गद्दी सौंप दी। ज्योतिर्मठवह ज्योतिर्मठ के पहले शंकराचार्य बने।

लगभग 165 वर्षों तक बंद रहने तथा 20वीं सदी के मध्य में पुनरोदित होने के कारण मठ के इतिहास के बारे में बहुत जानकारी नहीं है। दावेदार महंथों द्वारा परंपरागत जानकारी के अनुसार अंतिम शंकराचार्य से बाद के समय में स्वामी रामकृष्ण असरामा वर्ष 1833 तक यहां रहे थे। तब मठ की गद्दी खाली थी, संभवतः स्वामी रामकृष्ण के बाद कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिला या फिर गोरखों के आक्रमण के कारण ऐसा हुआ। फलस्वरूप, वर्ष 1930 के उत्तरकाल में ज्ञानानंद सरस्वती नामक बनारस के डंडी स्वामी ने यहां आकर ज्योतिर्मठ के लिये एक न्यास की स्थापना की, जिसकी देखभाल का भार उनके संगठन भारत धर्म महामंडल पर था और फिर उन्होंने पदस्थापन के लिये एक गुणी डंडी की खोज शुरू की क्योंकि वे स्वयं इस पद पर नहीं आना चाहते थे। वर्ष 1941 में ब्रह्मानंद सरस्वती आये जो करपात्री स्वामी जी के नाम से प्रसिद्ध थे तथा जो पश्चिम में महेश जोगी के गुरू होने के कारण जाने गये। महेश योगी बीटल्स के तथा मीया फैरों के गुरू थे करपात्री के प्रभाव के विभूषित तथा शीघ्र ही उम्मीदवारी की उपयुक्तता के कारण ब्रह्मानंद को औपचारिक रूप से ज्योतिर्मठ का शंकराचार्य बनाया गया। वर्ष 1953 में उनकी मृत्यु के बाद जोशीमठ की गद्दी विवादों तथा मुकदमों में उलझी रही, जिस पद के लिए कई दावेदारों ने दावा पेश किया। फलस्वरूप, कल्पवृक्ष के बगल के पुराने मठ पर एक दावेदार का कब्जा है जबकि पहाड़ी के नीचे मठ का भवन स्थापित किया गया है। यहीं से वर्ष 1973 में नियोजित तथा द्वारका, ऋंगेरी एवं पुरी के तीनों शंकराचार्यों द्वारा मान्य यहां के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती द्वारका मठ की भी देखभाल करते हैं।

बद्रीनाथ पथ पर एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक केंद्र होने के अलावा जोशीमठ एक व्यापार केंद्र भी था। नीति एवं माना के भोटिया लोग अपना माल बिक्री के लिये यहां लाते थे। ई.टी. एटकिस के अनुसार (दी हिमालयन गजेटियर, वोल्युम III, भाग I। वर्ष 1882 में जोशीमठ माना एवं नीति की सड़कों पर एक महत्त्वपूर्ण स्थान है जहां रमनी से खुलारा पास का रास्ता यहां आता है। वहां मंदिर का एक अतिथिगृह, लोक निर्माण विभाग का एक निरीक्षण बंगला, एक तीर्थयात्री का अस्पताल तथा एक पुलिस थाना भी है जो सीजन में ही कार्यरत होता है। यह जगह पहले की तरह विकासशील नहीं है और भोटियों द्वारा छोड़े जाने के चिह्न अब भी हैं क्योंकि अब वे नंदप्रयाग तथा उससे और दक्षिण से अपना सामान लाते हैं।”

गढ़वाल के अन्य भागों की तरह जोशीमठ भी वर्ष 1803 से 1815 के बीच गोरखों के शासनाधीन रहा। वर्ष 1815 में राजा सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों की सहायता से गोरखों को पराजित कर दिया, जिन्होंने अलकनंदा एवं मंदाकिनी के पूर्वी भाग श्रीनगर सहित ब्रिटिश गढ़वाल में मिला लिया। प्रारंभ में यहां का प्रशासन देहरादून एवं सहारनपुर से होता रहा। बाद में अंग्रेजों ने पौड़ी नाम से इस क्षेत्र में एक नये जिले की स्थापना की। आज का जोशीमठ एवं चमोली, पौड़ी का तहसील था। 24 फ़रवरी 1960 को स्वतंत्र भारत में चमोली को एक जिला बना दिया गया।