टिकेन्द्रजीत सिंह (29 दिसम्बर, 1856 – 13 अगस्त, 1891) स्वतन्त्र मणिपुर रियासत के राजकुमार थे। उन्हें वीर टिकेन्द्रजीत और कोइरेंग भी कहते हैं। वे मणिपुरी सेना के कमाण्डर थे। वे महान देशभक्त और ब्रिटिश साम्राज्यवादी योजना के घोर विरोधी तथा देश की एकता-अखंडता के कट्टर समर्थक थे। उन्होंने साहसपूर्वक ब्रिटिश साम्राज्यवादी शक्ति के कूटनीतिक और विस्तारवादी कृत्यों से जनमानस को अवगत कराया तथा अदम्य साहस और निर्भीकता के साथ अंग्रेजी साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के विरुद्ध युद्ध किया। इसी कारण उन्हें 'मणिपुर का शेर' कहा जाता है। यहाँ तक कि ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सरकार ने उनकी वीरता, निडरता तथा पराक्रम की तुलना एक ‘खतरनाक बाघ’ से की थी। भारत के स्वतंत्रता-संग्राम में उनका अद्वितीय स्थान है।

वीर टीकेन्द्रजीत सिंह

उन्होने 'महल-क्रान्ति' की जो मणिपुर रियासत के शासन में अंग्रेजों के परोक्ष हस्तक्षेप के विरुद्ध एक खुला विद्रोह ही था। इसके फलस्वरूप १८९१ में आंग्ल-मणिपुर युद्ध शुरू हुआ। [1][2] बड़े संघर्ष के बाद अंग्रेज विजयी हुए। इस युद्ध में शहीद होने वाले राज्य के वीर नायकों को श्रद्धांजलि देने के लिए मणिपुर राज्य प्रत्येक वर्ष 13 अगस्त के दिन “देशभक्त दिवस” मनाता है।

प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण मणिपुर का अपना प्राचीनतम एवं गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। इसकी सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराएँ और प्राकृतिक सौन्दर्य भारतवासियों के लिए गौरव के विषय हैं, तो उसका शौर्य, साहस एवं त्याग-बलिदान से परिपूर्ण इतिहास भारतवासियों के लिए प्रेरणास्रोत है। मणिपुर के राजाओं ने सन् 1891 में अंग्रेजों से पराजित होने तक अपनी स्वतंत्रता और संप्रभुता के लिए लगातार संघर्ष किया था। एक लंबे और अनवरत संघर्ष के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने मणिपुर पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। मणिपुर के आंतरिक संकट और उसके बर्मा के साथ चले 18 वर्ष लंबे संघर्ष का लाभ उठाकर वे ऐसा करने में सफल हुए। सन् 1891 के आंग्ल-मणिपुर युद्ध में मणिपुर के बहादुर लोगों ने औपनिवेशिक शक्तियों का प्रतिरोध जिस वीरता और साहस के साथ किया; वह इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है।

टिकेंद्रजीत सिंह महाराजा चंद्रप्रकाश सिंह और चोंगथम चानु कूमेश्वरी देवी की चतुर्थ सन्तान थे। उनका जन्म 29 दिसंबर, 1856 को हुआ था। उन्हें “कोइरेंग” भी कहते थे क्योंकि वे बचपन से ही लोकप्रिय तथा स्वतंत्रता प्रेमी थे। धैर्यवान होने के साथ-साथ वे कुशाग्र बुद्धि वाले थे। बाद में वे मणिपुरी सेना के कमाण्डर नियुक्त हुए थे।

राजकुमार गंभीर सिंह के नेतृत्व में प्रथम आंग्ल-बर्मी युद्ध (1824-1826) में मणिपुर ने बर्मा पर विजय प्राप्त की। परिणामस्वरूप, मणिपुर तबाही से उबर गया और गंभीर सिंह को मणिपुर का राजा बनाया गया। परन्तु उस समय राज्य की सभी महत्वपूर्ण शक्तियाँ अंग्रेजों के हाथ में थीं। राजा ब्रिटिश हस्तक्षेप का विरोध नहीं कर सकता था।

राजा चंद्रकान्त सिंह के उत्तराधिकारी महाराजा सूरचंद्र सिंह के शासनकाल में अंग्रेजों का हस्तक्षेप बहुत अधिक बढ़ गया था। राजपरिवार का सदस्य होने के नाते टिकेंद्रजीत अंग्रेजों के कूट स्वभाव से परिचित थे। अतः वे मणिपुरवासियों को उनके वास्तविक दृष्टिकोण और अंतरतम दुर्भावनाओं के बारे में सचेत करते रहते थे। महाराज गंभीर सिंह की मृत्यु के उपरान्त उनके बड़े बेटे, सूरचंद्र ने मणिपुर के सिंहासन का दायित्व संभाला। अन्य राजकुमारों को राज्याधिकारी, सेना के जनरल और पुलिस प्रमुख के रूप में नियुक्त किया गया।

बाद में, झलकारी की मृत्यु के बाद टिकेंद्रजीत को सेनापति नियुक्त किया गया था। लेकिन राजकुमारों के बीच आपसी गलतफहमी और मनमुटाव पैदा हो गया। इसने अंततः राज-परिवार को दो गुटों में विभाजित कर दिया। एक गुट टिकेंद्रजीत के साथ था तो दूसरा पाकसाना के नेतृत्व में कार्यरत था।

राजा इस स्थिति से अनजान रहे और अराजकता बहुत ज्यादा बढ़ती चली गई। टिकेंद्रजीत को लगता था कि राजा पाकसाना के पक्षधर हैं। अंग्रेज सूदखोरी से अपने साम्राज्य का विस्तार करते थे। वे मोटी ब्याज पर राजा और राजपरिवार को कर्ज देकर धीरे-धीरे उनके राज्य के हिस्सों को हड़पते चले जाते थे। यही नीति उन्होंने मणिपुर के राजपरिवार के प्रति भी अपनाई। इसे राजकुमार टिकेंद्रजीत ने स्वीकार नहीं किया। वे इस तथ्य से भी भलीभाँति अवगत थे कि ब्रिटिश लोग मणिपुर को अपनी एक “कॉलोनी” बनाने के लिए अवसर की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इसलिए उन्होंने अपने राज्य की संप्रभुता तथा स्वतंत्रता की रक्षा हेतु एक योजना बनाई।

22 सितंबर, 1890 को टिकेंद्रजीत ने दो अन्य राजकुमारों एंगुसन और जिलंगंबा के साथ सूरचंद्र सिंह के खिलाफ विद्रोह किया और राजा सुरचंद्र को सिंहासन से हटा दिया। सुरचंद्र सिंह ने ब्रिटिश निवास में शरण ले ली। तब कुलाचंद्र ने राज्यभार संभाला और टिकेंद्रजीत उसके उत्तराधिकारी बने। इस घटना को मणिपुर के इतिहास में ‘राजमहल विद्रोह’ के रूप में जाना जाता है।

बाद में, पूर्व शासक सूरचंद्र सिंह कलकत्ता के लिए रवाना हुए। लेकिन उन्होंने टिकेंद्रजीत को सूचित किया कि वे धार्मिक-यात्रा पर वृंदावन जा रहे हैं। कलकत्ता पहुँचने के बाद उन्होंने मणिपुर राज्य का अपना सिंहासन पुनः पाने के लिए ब्रिटिश सरकार को एक याचिका भेजी। उनकी इस याचिका के परिणामस्वरूप अंग्रेज मणिपुर की आतंरिक फूट और संकट से बखूबी अवगत हो गए। वास्तव में, इस याचिका ने ब्रिटिशों को मणिपुर के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का मौका प्रदान किया।

भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लैंड्सडाउन ने कुलाचंद्र को राजा बनाए रखने का निर्णय लिया। लेकिन मणिपुर सिंहासन के उत्तराधिकारी पद से टिकेंद्रजीत को हटाने का आदेश दिया गया क्योंकि अंग्रेज जानते थे कि टिकेंद्रजीत जैसा राष्ट्रवादी उनकी औपनिवेशिक योजनाओं में बहुत बड़ी अड़चन है। उसकी अनुपस्थिति में ही मणिपुर को ब्रिटिश उपनिवेश में रूपांतरित किया जा सकता है।

अतः 22 मार्च, 1891 को मुख्य आयुक्त जेडब्ल्यू क्विंटन सैनिकों की टुकड़ी के साथ मणिपुर पहुँचा। टिकेंद्रजीत को गिरफ्तार करने के लिए अंग्रेजों द्वारा एक गोपनीय योजना बनाई गई थी। लेकिन उनकी यह गुप्त योजना उजागर हो जाने के कारण विफल हो गई। राजनीतिक एजेंट ग्रिमवुड ने तब राजा कुलाचन्द्र को टिकेंद्रजीत को अंग्रेजों को सौंपने के लिए कहा। राजा कुलाचंद्र ने इसके लिए साफ इनकार कर दिया। परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने टिकेंद्रजीत को गिरफ्तार करने के लिए बल प्रयोग किया।

24 मार्च, 1891 की शाम को ब्रिटिश सैनिकों ने पैलेस कंपाउंड, विशेष रूप से टिकेंद्रजीत के निवास पर हमला किया। इस हमले में सांस्कृतिक कार्यक्रम देख रहे महिलाओं और बच्चों सहित अनेक निर्दोष नागरिक मारे गए। हालाँकि, मणिपुरी सेना अपने आक्रामक प्रतिरोध में सफल रही और अंग्रेजों को पीछे हटना पड़ा।

पाँच अंग्रेज अधिकारियों- क्विंटन, ग्रिमवुड, लेफ्टिनेंट कर्नल सिम्पसन, कोसिन और बुलेर को भागकर तहखाने में शरण लेनी पड़ी। जिन मणिपुरवासियों के निर्दोष बच्चे, पत्नियों और रिश्तेदारों को अंग्रेजों द्वारा मार दिया गया था, उनके मन में बदले की भावना इतनी प्रबल हो गई कि उन्होंने इन पाँचों अंग्रेजों को मार डाला।

इसके परिणामस्वरूप 1891 में आंग्ल-मणिपुरी युद्ध हुआ। मणिपुरी लोग बड़ी वीरता से लड़े किन्तु इस भयानक युद्ध में अंग्रेजों ने मणिपुर को तहस-नहस कर दिया। 27 अप्रैल, 1891 को कंगला पैलेस को अंग्रेजों ने अपने कब्जे में ले लिया और मेजर मैक्सवेल मुख्य राजनीतिक एजेंट बन गया। ब्रिटिश भारत सरकार ने जाँच-पड़ताल और सजा-निर्धारण के लिए लेफ्टिनेंट कर्नल जॉन मिशेल के अधीन एक विशेष आयोग का गठन किया। इस जाँच में टिकेंद्रजीत को दोषी ठहराया गया और अंग्रेजी अदालत द्वारा उन्हें मौत की सजा सुनाई गई।

मणिपुरवासियों ने अपने प्रिय राजकुमार की प्राण-रक्षा के लिए उनकी फाँसी का पुरजोर विरोध किया। परन्तु लोगों की प्रबल भावना और उनके सक्रिय विरोध के बावजूद अंग्रेजों ने बीर टिकेंद्रजीत को 13 अगस्त, 1891 को आम जनता के सामने एक खुली जगह पर फाँसी लगाई ताकि लोगों में डर पैदा किया जा सके।

मणिपुर राज्य की महिलाओं ने भी उनके बचाव में एक आंदोलन शुरू किया था, परन्तु उनका यह आन्दोलन मणिपुर के भविष्य बीर टिकेन्द्रजित को नहीं बचा सका। उनका बलिदान मणिपुर की स्वतंत्रता, सम्मान और जनकल्याण की भावना के लिए था। उन्होंने विदेशी शक्ति का विरोध करते हुए स्वदेश रक्षा हेतु अपने प्राण गँवाए।

टिकेंद्रजीत अपने विलक्षण युद्ध-कौशल, अद्भुत पराक्रम तथा सक्षम प्रशासन के कारण अत्यंत लोकप्रिय थे। इस महानायक को सम्मानित करते हुए मणिपुर विधानसभा ने अगस्त, 2019 में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर तुलीहल अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का नाम बदलकर ‘बीर टिकेंद्रजीत अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा’ कर दिया है।

सन्दर्भ संपादित करें

  1. Ian F.W. Beckett, Victoria's Wars, Shire, ISBN 978-0747803881, p. 62
  2. Bir Tikendrajit Singh – The True Patriot Of Manipur Archived 2017-08-17 at the वेबैक मशीन, India-north-east.com

इन्हें भी देखें संपादित करें

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