तवक्कुल अरबी भाषा का एक शब्द है, जो ईश्वर पर निर्भरता या "ईश्वर की योजना पर भरोसा" की इस्लामी अवधारणा है। [1] इसे "परमेश्वर में पूर्ण विश्वास और केवल उसी पर निर्भर रहने" के रूप में देखा जाता है। [2] इसे ईश्वरीय चेतना भी कह सकते हैं। [2] वास्तव में, कुरान के अनुसार सफलता तभी प्राप्त हाो सकती है जब ईश्वर में विश्वास हो और आस्तिक दृढ़ हो और ईश्वर की आज्ञाओं का पालन किया जाये। [3]

एक धार्मिक अवधारणा के रूप में तवाक्कुल को शकिक़ अल-बल्खी (डी। 810) द्वारा औपचारिक रूप दिया गया था, जिन्होंने इसे एक आध्यात्मिक अवस्था या हाल के रूप में परिभाषित किया है। तवाक्कुल को अति ज़ुहद का एक स्वाभाविक परिणाम भी माना जाता है। [4] ज़ुहद दनिया से बेरग़बती और तवाक्कुल का नाम है। [5] एक लेखक ने लिखा है कि जो ईश्वर पर भरोसा करता है, वह उस बच्चे के समान है जो अपनी मां का स्तन ढूंढ़ता है और हमेशा पाता है। उनका कहना है कि शिशु की तरह ही, जो भगवान पर भरोसा करता है, वह हमेशा भगवान काे पा लेता है। [6]

तवक्कुल के तीन दरजे बयान किये गये हैं: विश्वासियों का विश्वास, चयन का विश्वास, और चयन के चयन का विश्वास। [7] इनमें से प्रत्येक दरजे को मन और स्वयं के सक्रिय सुधार के माध्यम से प्राप्त किया जा सकती है। [8] विश्वासियों का विशवास यह है कि बस एक दिन में एक दिन जीना है और इस बात की चिंता नहीं करना है कि आने वाला कल आपके लिए क्या लाएगा; केवल परमेश्वर ने जो योजना बनाई है उस पर भरोसा करना है। [7] चयन का विशवास बिना किसी मकसद या इच्छा के अल्लाह पर भरोसा करना है। यह सभी इच्छाओं को दरकिनार कर रहा है। [7] और अंत में चयन के चयन का विशवास अपने आप को पूरी तरह से अल्लाह के सुपु्र्द करना है ताकि उनकी इच्छाएं आपकी हो जाएं। [7] दूसरे शब्दों में, "अल्लाह पर भरोसा करने का अर्थ है परमप्रधान अल्लाह तआला से संतुष्ट होना और उस पर भरोसा करना।" [6] यह कहा जाता है कि क्योंकि ईश्वर ने सब कुछ बनाया है सब कुछ उसी का है, यह सवार्थ है कि अल्लाह जो चाहता है उसके अलावा कुछ और चाहा जाये और जा अल्लाह देता है उसको ना चाहा जाये। [9]

अरबी शब्द तवाक्कुल एक मसदर (मौखिक संज्ञा) है जो अरबी मूल وكل (w.k.l.) के पांचवें रूप से लिया गया है, जिसका का अनुवाद "खुद को दे देना, भरोसा करना / निर्भर होना, या दूसरे पर भरोसा करना के " है। [10]

मुस्लिम परंपरा

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व्याख्या

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यह भी देखें

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  • इंशा अल्लाह
  1. "Ibn Abī al-Dunyā: Certainty and Morality". Leonard Librande, Studia Islamica, No. 100/101 (2005), pp. 5-42. Published by: Maisonneuve & Larose
  2. "Islamic Philosophy in South and South-East Asia". Companion Encyclopedia of Asian Philosophy. 2002.
  3. Eggen, Nora (2011). "Conceptions of Trust in the Qur'an". Journal of Qur'anic Studies. 13 (2): 56–85. डीओआइ:10.3366/jqs.2011.0020.
  4. "The Transition from Asceticism to Mysticism at the Middle of the Ninth Century C.E.", Melchert, Christopher. Studia Islamica, No. 83 (1996), pp. 51-70. Published by: Maisonneuve & Larose
  5. Kinberg, Leah (1985). "What is Meant by Zuhd". Studia Islamica. 61: 33–34.
  6. al-Qushayri, Abu 'l-Qasim (2007). Al-Qushayri's Epistle on Sufism. Lebanon: Garnet Publishing. पपृ॰ 178–188. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; "al-Qushayri 2007 178–188" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  7. Sells, Michael (1996). Early Islamic Mysticism. New York: Paulist Press. पृ॰ 209.
  8. Hamdy, Sherine (2009). "Islam, Fatalism, and Medical Intervention: Lessons from Egypt on the Cultivation of Forbearance (Sabr) and Reliance of God (Tawakkul)". Anthropological Quarterly. 82 (1): 173–196. डीओआइ:10.1353/anq.0.0053.
  9. Schimmel, Annemarie (1975). Mystical Dimensions of Islam. Chapel Hill: University of North Carolina Press. पपृ॰ 117–120.
  10. Scott C. Alexander, "Truth and Patience." Encyclopedia of the Quran, Leiden, Brill, 2006.