तीनकठिया खेती अंग्रेज मालिकों द्वारा बिहार के चंपारण जिले के रैयतों (किसानों) पर नील की खेती के लिए जबरन लागू तीन तरीकों मे एक था। खेती का अन्य दो तरीका 'कुरतौली' और 'कुश्की' कहलाता था। तीनकठिया खेती में प्रति बीघा (२० कट्ठा) जोत में से तीन कट्ठा जोत पर नील की खेती करना अनिवार्य बनाया गया था। 1860 के आसपास नीलहे फैक्ट्री मालिक द्वारा नील की खेती के लिए ५ कट्ठा खेत तय किया गया था जो 1867 तक तीन कट्ठा या तीनकठिया तरीके में बदल गया। इस प्रकार फसल के पूर्व में दिए गए रकम के बदले फैक्ट्री मालिक रैयतों के जमीन के अनुपात में खेती कराने को बाध्य करते थे। अप्रैल 1917 में राजकुमार शुक्ल के आमंत्रण पर महात्मा गाँधी के आगमन और अंग्रेज अधिकारियों के साथ लगातार बातचीत और चपांरण विद्द्रोह के कारण यह तरीका खत्म हुआ। भारतीय स्वतंत्रता इतिहास में गाँधीजी के सत्याग्रह का यह पहला प्रयोग था। इस कार्य मे डॉ राजेन्द्रप्रसादजी का भी काफी योगदान था। गाँधी जी के साथ इस आंदोलन मे जे.बी.कृपलानी, बृजकिशोर प्रसाद और अनुग्रह प्रसाद सिन्हा का सहयोग रहा!