तृतीय आंग्ल-बर्मी युद्ध

तीसरा आंग्ल-बर्मी युद्ध 14-27 नवम्बर 1885 के बीच हुआ संघर्ष था, इसके बाद 1887 तक छिट-पुट प्रतिरोध तथा विद्रोह चलते रहे थे। यह 19वीं सदी में बर्मन तथा ब्रिटिश लोगों के बीच लड़े गए तीन युद्धों में से अंतिम था। इस युद्ध के परिणामस्वरुप कोनबौंग राजवंश द्वारा संचालित स्वतन्त्र बर्मा ने अपनी प्रभुसत्ता खो दी, जिनका शासन पहले ही ऊपरी बर्मा के नाम से ज्ञात क्षेत्र तक सीमित हो चुका था, निचले बर्मा को ब्रिटिश लोगों द्वारा 1853 के, दूसरे आंग्ल-बर्मी युद्ध में जीत के फलस्वरूप अपने शासन में ले लिया गया था।

तृतीय आंग्ल-बर्मी युद्ध
တတိယ အင်္ဂလိပ် - မြန်မာစစ်

The nominal surrender of the Burmese Army,
27 नवम्बर 1885, at Ava.
तिथि 14 नवम्बर 1885 – 27 नवम्बर 1885
स्थान Burma
परिणाम British victory, end of the Konbaung Dynasty in Upper Burma. The province of Burma becomes part of the British Raj
योद्धा
यूनाइटेड किंगडम British Empire Kingdom of Burma
सेनानायक
Harry Prendergast Thibaw Min

इस युद्ध के पश्चात बर्मा, भारत के एक प्रदेश के रूप में, ब्रिटिश राज के अंतर्गत आ गया था। इसके बाद 1937 से, ब्रिटिश लोग बर्मा को भारत से अलग करके एक अलग उपनिवेश के रूप में शासन करने लगे। बर्मा ने 1948 में एक गणतंत्र के रूप में स्वतंत्रता प्राप्त की।

पृष्ठभूमि

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राजा थिबाव, रानी सुपयालत और राजकुमारी सुपयाजी (नवंबर 1885)

1879 में बर्मा में उत्तराधिकार संकट के बाद, बर्मा से ब्रिटिश रेज़ीडेंट को वापस बुला लिया गया तथा देशों के बीच आधिकारिक राजनयिक संबंध समाप्त हो गए। ब्रिटिश लोगों ने इसकी प्रतिक्रिया स्वरुप युद्ध के विषय में सोचा परन्तु उस समय अफ्रीका तथा अफगानिस्तान में चल रहे युद्धों के कारण उन्होंने उस समय युद्ध प्रारंभ नहीं किया।

1880 के दशक के दौरान, ब्रिटिश लोग बर्मा और फ्रांस के बीच स्थापित संपर्कों के विषय में चिंतित होने लगे। हिन्द-चीन युद्ध में फ़्रांसिसी लोग बर्मा की सीमा तक आ गए। मई 1883 में, एक उच्च स्तरीय बर्मन प्रतिनिधिमंडल यूरोप गया। अधिकारिक तौर पर ये लोग औद्योगिक ज्ञान एकत्रित करने के लिए गए थे, परन्तु शीघ्र ही ये लोग पेरिस पहुंच गए जहां पर इन्होने फ़्रांसिसी विदेश मंत्री जूल्स फेरी से बात-चीत प्रारंभ कर दी। अंततः फेरी ने ब्रिटिश राजदूत से यह स्वीकार किया कि बर्मन लोग सैन्य उपकरणों की खरीद के साथ ही राजनैतिक गठजोड़ का प्रयास भी कर रहे थे। ब्रिटिश लोग बर्मन लोगों के इस प्रयास से चिंता में पड़ गए तथा दोनों देशों के बीच रिश्ते और ख़राब हो गए।

पेरिस में फ़्रांसिसी तथा बर्मन लोगों के वार्तालाप में भारत के सीमान्त क्षेत्रों तथा बर्मा के बीच एक सीमा विवाद सामने आया। 1881 में, भारत में ब्रिटिश अधिकारियों ने एक आयोग नियुक्त किया जिसे दोनों देशों के बीच सीमा चिह्नित करनी थी। अपने कार्य के दौरान, ब्रिटिश आयोग ने मांग की कि वे गांव जो ब्रिटिश लोगों के अनुसार उनकी तरफ थे, वहां से बर्मन प्राधिकारियों को हटा लिया जाये. बर्मन लोगों ने निरंतर आपत्ति की लेकिन अंततः वे पीछे हट गए।

 
ब्रिटेन द्वारा कब्जा होने के बाद, मध्य नवंबर 1885 में मिन्हला के मौत और तबाही का दृश्य.फोटोग्राफर: हूपर, विलोबाई वैलेस (1837-1912).

1885 में, फ्रांसीसी दूतावास एम. हैस मांडले चले गए। उन्होंने बर्मा में एक फ्रांसीसी बैंक की स्थापना, मांडले से एक ब्रिटिश बर्मा के उत्तरी सीमा तक रेलवे की रियायत और बर्मन सरकार द्वारा नियंत्रित एकाधिकारिक उद्योगों में फ्रांसीसी भूमिका के लिए बात-चीत की। ब्रिटिश लोगों नें राजनयिक बल के साथ प्रतिक्रिया व्यक्त की तथा फ्रांस की सरकार ने हास को कथित तौर पर "स्वास्थ्य सम्बंधित कारणों" के चलते वहां से हटा लिया। हालांकि फ़्रांस, बर्मा सम्बंधित मुद्दों पर पीछे हट गया, फ्रांसीसी हस्तक्षेप के साथ-साथ कई अन्य घटनाओं के कारण ब्रिटिश लोगों ने बर्मा के विरुद्ध कार्यवाई करने का निश्चय कर लिया।

बॉम्बे बर्मा ट्रेडिंग कॉर्पोरेशन पर टोंगू से सागौन के निष्कर्षण को कम करके दिखाने तथा अपने कर्मचारियों को भुगतान न करने के कारण जुर्माना लगाया गया। कंपनी पर जुर्माना एक बर्मन अदालत ने लगाया था और उसकी कुछ लकड़ी को बर्मन अधिकारियों द्वारा जब्त कर लिया गया था। कंपनी और ब्रिटिश सरकार ने दावा किया कि ये आरोप झूठे थे और बर्मन अदालतें भ्रष्ट हैं। ब्रिटिश लोगों ने बर्मा सरकार से मांग की कि वे इस विवाद को सुलझाने के लिए ब्रिटेन द्वारा नियुक्त एक मध्यस्थ को स्वीकार करें। जब बर्मन लोगों ने इनकार कर दिया, तब ब्रिटिश लोगों ने 22 अक्टूबर 1885 को एक चेतावनी जारी कर दी। चेतावनी में मांग की गयी कि बर्मा के लोग मांडले में एक नए ब्रिटिश रेज़ीडेंट को स्वीकार करें, कंपनी के विरुद्ध कोई कानूनी कार्रवाई अथवा जुर्माना रेज़ीडेंट के आगमन तक निलंबित किया जाये, बर्मा अपने विदेशी संबंधों को ब्रिटिश नियंत्रण के लिए प्रस्तुत करे तथा बर्मा ब्रिटिश लोगों को व्यापारिक सुविधाएं प्रदान करे जिससे उत्तरी बर्मा तथा चीन के साथ व्यापार का विकास किया जा सके। चेतावनी की स्वीकृति से सभी प्रकार की वास्तविक बर्मन स्वतंत्रता की समाप्ति हो जाती तथा वह ब्रिटिश भारत का नाममात्र को स्वायत्त 'राजसी' प्रदेश भर बन कर रह जाता. नवंबर 9 तक इन शर्तों का व्यावहारिक इनकार रंगून पहुंच गया, जिसके ऊपर मांडले पर अधिकार तथा बर्मन राजा थीबॉ मिन का राज-सिंहासन से च्युत होना निर्भर था। यह भी माना जा सकता है कि बर्मा राज्य के विलय का निर्णय हो चुका था।

चित्र:King thebaws steamer fullyarmed1885.jpg
इर्रवैदी पर राजा थिबाव के जहाजों का तस्वीर, 26 नवम्बर 1885.फोटोग्राफर: हूपर, विलोबाई वैलेस (1837-1912).

इस समय, इस तथ्य से परे कि यह देश एक घना वन था, तथा इसलिए सैन्य अभियानों के लिए सर्वथा अनुपयुक्त था, ब्रिटिश लोगों को ऊपरी बर्मा के विषय में बहुत कम जानकारी थी; परन्तु इरावदी नदी के महान नदी राजमार्ग पर ब्रिटिश स्टीमर कई वर्षों से रंगून से मांडले तक चल रहे थे, तथा यह स्वाभाविक ही था कि ब्रिटिश अभियान को सबसे तेज तथा संतोषजनक रूप से जलमार्ग से सीधे राजधानी तक ले जाया जाये. इसके अलावा, रंगून में इरावदी फ्लोटिला कंपनी के पवन-शक्ति चलित स्टीमरों तथा बजरों (अथवा फ्लैटों) की बड़ी संख्या उपलब्ध थी, तथा कंपनी के अधिकारियों के पास नदी के कठिन रास्तों के दिशा-निर्देशन का स्थानिक ज्ञान ब्रिटिश सेनाओं के लिए उपलब्ध था।

मेजर जनरल, जिन्हें इसके पश्चात सर की उपाधि प्राप्त हुई, हैरी नॉर्थ डैलरिम्पल प्रेंडरगास्ट को इस हमले की कमान सौंपी गयी। जैसा कि ऐसे किसी अभियान के साथ अपेक्षित ही होता है, जल-सेना तथा थल-सेना, दोनों को ही इसमें लगाया गया; तथा हमेशा की तरह ही, नौसैनिक तथा तोपें, सबसे अधिक महत्वपूर्ण थे। कुल उपलब्ध प्रभावी बल में 9034 लड़ाके, 2810 स्थानीय अनुयायी और 67 तोपें और नदी से प्रयोग किये जाने हेतु 24 मशीनगनें थी। टुकड़ियों के ले जाने के लिए बेड़े में 55 स्टीमर, बजरे, तथा लॉन्चेज़ आदि थे।

सीमान्त के सबसे निकट ब्रिटिश पोस्ट थायेत्म्यो में थी, तथा थिबौ का उत्तर प्राप्त होने के पांच दिनों के अन्दर 14 नवम्बर तक यहां सम्पूर्ण अभियान एकत्रित हो गया था। उसी दिन जनरल प्रेंडरगास्ट को कार्यवाही प्रारंभ करने का निर्देश प्राप्त हो गया। बर्मन राजा तथा उनका देश इस हमले की तीव्रता से हतप्रभ रह गए। उनके पास एकत्रित होने तथा कोई प्रतिरोध संगठित करने के लिए समय नहीं था। वे स्टीमर आदि डूबा कर किसी प्रकार का अवरोध उत्पन्न नहीं कर पाए तथा आदेश प्राप्त होने वाले दिन ही सशस्त्र स्टीमरों इरावदी तथा कैथेलीन ने निकटस्थ बर्मन तोपखाने को उलझा लिया, तथा बर्मन राजा के स्टीमर व कुछ अन्य बजरों को, जो कि इसी प्रयोग के लिए तैयार थे, डुबा दिया। 16 तारीख को दोनों तटों पर स्थित तोपखाने को थल आक्रमण द्वारा अपने कब्जे में कर लिया गया, बर्मन लोग चूंकि इसके लिए तैयार नहीं थे, वे कोई कोई प्रतिरोध नहीं कर पाए. तथापि 17 नवम्बर को मिन्हला में, जो कि नदी के दायें तट पर था, काफी मात्रा में मौजूद बर्मन सेना ने एक के पश्चात एक मोर्चा, एक पैगोडा तथा मिन्हला के गढ़ पर कब्ज़ा कर लिया। नदी के पार से की जा रही बमबारी के नीचे ब्रिटिश भारतीय पैदल सेना की एक ब्रिगेड ने हमले को बढ़ाते हुए बर्मनों को पराजित किया तथा इसमें बर्मन दल के 170 लोग मारे गए, 276 बंदी बनाये गए तथा इसके साथ ही बहुत से लोग भागने के प्रयास में नदी में डूब कर मर गए। यह अभियान अगले कुछ दिनों तक चलता रहा, नौसेना पलटन तथा भारी तोपखाने ने एक के पश्चात एक न्यौंग-यू, पकोक्कू तथा म्यिंगयान स्थित बर्मन प्रतिरक्षा पंक्तियों को शांत कर दिया।

हालांकि, कुछ सूत्रों का कहना है कि बर्मन प्रतिरोध तीव्र इसलिए नहीं था क्योंकि थीबॉ के रक्षा मंत्री किनवॉन मिन ज्ञी यू कौंग, जो कि ब्रिटिश लोगों के साथ संधि करना चाहते थे, उन्होंने बर्मन फौजों को ब्रिटिश लोगों पर आक्रमण न करने को कहा. उनके आदेश का पालन कुछ बर्मन पलटनों द्वारा तो किया गया, परन्तु सबके द्वारा नहीं। इसके अतिरिक्त ब्रिटिश लोगों ने अपने मिथ्या प्रचार से बर्मन लोगों को धोखा दिया (यू कौंग को भी), उन्होंने ऐसा दर्शाया जैसे कि वे देश पर लम्बे समय तक शासन नहीं करना चाहते हैं, उनका उद्देश्य सिर्फ राजा थीबॉ को राजगद्दी से हटाना तथा राजकुमार न्यौंग यान (थीबॉ के बड़े अर्ध-भ्राता) को नया शासक बना कर राजगद्दी पर बैठाना है। उस समय बर्मा के अधिकांश लोग थीबॉ को उसके कुशासन के कारण पसंद नहीं करते थे, साथ ही उसने तथा उसके राज-पुरुषों ने 1878 में उसके सत्तारूढ़ होते समय लगभग सौ शाही राजकुमारों व राजकुमारियों को मरवा दिया था। न्यौंग यान इस शाही हत्याकांड का एक उत्तरजीवी था और अपने निर्वासन काल में ब्रिटिश भारत में रहता था, वास्तव में इस युद्ध के समय वह मर चुका था। हालांकि, ब्रिटिश लोगों ने यह तथ्य छुपा लिया तथा यहां तक कि कुछ स्रोतों के अनुसार ब्रिटिश मांडले जाते समय अपने साथ एक व्यक्ति को लेते गए जो कि राजकुमार न्यौंग यान होने का अभिनय कर रहा था, जिससे कि बर्मा के लोगों को नए राजा का शासन स्थापित करने का विश्वास हो जाये. इस प्रकार, बर्मन लोगों ने, जो इस कथित नए राजा का स्वागत कर रहे थे, इस हमलावर ब्रिटिश सेना का विरोध नहीं किया। हालांकि, जब यह स्पष्ट हो गया कि ब्रिटिश लोग नए राजा को बर्मा में स्थापित नहीं करेंगे तथा वास्तव में बर्मा अपनी स्वाधीनता खो चुका है, बर्मन समूहों द्वारा प्रबल विद्रोह किये गए, इसमें भूतपूर्व शाही बर्मन सेना की टुकडियां भी शामिल थीं, यह एक दशक से अधिक समय तक चला. यू काँग की भूमिका जिसके कारण शुरुआत में बर्मन प्रतिरोध ढह गया, ने एक कहावत को जन्म दिया यू काँग लीन ह्तोक, मिन्ज़ेत प्योक (U Kaung lein htouk, minzet pyouk) ("यू काँग का विश्वासघात, राजवंश का अंत": बर्मन अंकशास्त्र में U=1, Ka=2, La=4, Hta=7 इसका अर्थ बर्मन युग 1247 अथवा 1885ईसवीं).

 
28 नवम्बर 1885 को मांडले में ब्रिटिश सेना के आगमन की तस्वीर, तृतीय आंग्ल बर्मी युद्ध.फोटोग्राफर: हूपर, विलोबाई वैलेस (1837-1912).

नवंबर 26 को जब बेड़ा राजधानी आवा पहुंच रहा था, राजा थीबॉ के प्रतिनिधि जनरल प्रेंडरगास्ट के पास आत्मसमर्पण का प्रस्ताव लेकर पहुंचे; तथा 27 तारीख को जब नौसैनिक जहाज शहर के बाहर पहुंच कर आक्रमण प्रारंभ करने वाले थे, तब ही टुकड़ियों को अपने राजा का हथियार डालने का आदेश प्राप्त हुआ। वहां पर तीन मजबूत किले थे जिनमें हजारों हथियारबंद बर्मन थे और यद्यपि उनमे से अधिकांश ने अपने राजा के आदेश पर हथियार डाल दिए, फिर भी बहुतों से लोगों को हथियार लेकर बिखर जाने दिया गया; तथा आने वाले समय में ये ही गुरिल्ला समूहों में बंट कर इस युद्ध को वर्षों तक चलाते रहे। इस बीच, तथापि बर्मा के राजा के आत्मसमर्पण की कार्यवाई पूर्ण हो चुकी थी; तथा 28 नवम्बर को युद्ध की घोषणा के एक पखवाड़े के अन्दर मांडले का पतन हो चुका था, तथा राजा थीबॉ को बंदी बनाया जा चुका था, नदी पर स्थित प्रत्येक शक्तिशाली किले, राजा के तोपखाने (1861 नाग), हजारों राइफलों, बंदूकों, तथा हथियारों को अपने कब्ज़े में किया जा चुका था। ब्रिटिश लोगों ने मांडले के महल तथा शहर की लूटपाट का आयोजन किया। इससे प्राप्त सामग्री को बेचने से 9 लाख रुपयों की प्राप्ति हुई।

मांडले से, जनरल प्रेंडरगास्ट दिसम्बर 28 को भामो पहुंच गया। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण कदम था, क्योंकि यह चीन को घेरे हुए था, जिसका बर्मा के साथ अपने दावों और सीमा का विवाद था। यद्यपि राजा को गद्दी से हटा दिया गया था तथा वह शाही परिवार के साथ भारत में निर्वासित कर दिए गए थे, एवं सारी नदी तथा राजधानी ब्रिटिश लोगों के हाथों में थी, विद्रोही गुटों ने इस स्थिति का लाभ उठाते हुए सशस्त्र प्रतिरोध प्रारंभ कर दिया, जिसे रोकना बहुत कठिन था।

विलय और प्रतिरोध

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बर्मा पर 1 जनवरी 1886 को अंग्रेजों द्वारा कब्जा कर लिया था। युद्ध के आलोचकों के अनुसार विलय का समय, वास्तविक ब्रिटिश मंशा के कठोर साक्ष्य हैं। लेकिन यह विलय इस विद्रोह की शुरुआत मात्र थी, जो कि 1896 तक चला.

 
राजा थिबाव के गार्ड की तस्वीर, पूर्वी गेट, मांडले पैलेस, 28 नवम्बर 1885.फोटोग्राफर: हूपर, विलोबाई वैलेस (1835-1912).

सर फ्रेडेरिक (बाद में नाम परिवर्तित होकर अर्ल) रॉबर्ट्स द्वारा अंतिम और पूर्णतया सफल शंतिस्थापना का प्रयास किया गया, ऐसा करने के लिए उन्होंने देश भर में फैलीं मिलिटरी पुलिस सुरक्षा चौकियों की प्रणाली की स्थापना की, तथा जहां भी विद्रोह की घटना होती, वहां छोटे शस्त्रों से लैस टुकडियां पहुंच जातीं. अंग्रेजों ने देश में अतिरिक्त सैन्य टुकडियां मंगायीं, तथा अभियान का यह भाग वर्षों तक चला तब यह कठिन एवं दुष्कर कार्य पूरा हो पाया। गांवों पर सामूहिक सजाएं दिए जाने से प्रतिरोध को तोड़ा जा सका। गांवों को जला दिया गया और ग्रामीणों की संपत्ति को जब्त या नष्ट कर दिया गया। विद्रोहियों का समर्थन करने वाले गावों के प्रति ब्रिटिश लोगों द्वारा अत्यधिक तीव्र प्रतिघात किये जाने से अंततः देश को नियंत्रण में लाया जा सका।

ब्रिटिश लोगों ने अपना नियंत्रण काचिन पर्वत तथा चिन पर्वत के जनजाति क्षेत्रों तक स्थापित कर लिया। ये शासित क्षेत्र, जिन पर बर्मन लोगों का भी सिर्फ नाम मात्र का ही नियंत्रण था, भी अब ब्रिटिश क्षेत्र में आ गए। चीनी सरकार द्वारा दावा किये गए उत्तरी बर्मा के क्षेत्र भी अधिकार में ले लिए गए।

तीसरा बर्मी युद्ध का कोई भी विवरण देश में पहले (और शायद इस कारण से सबसे अधिक उल्लेखनीय) भूमि विस्तार के बिना पूर्ण नहीं हो सकता. इसे देश में नवम्बर 1885 से तौन्गू से प्रारंभ किया गया था, जो कि देश के पूर्वी भाग में ब्रिटिश सीमान्त चौकी थी। सभी हथियारों का से सुसज्जित एक टुकड़ी द्वारा इसे कर्नल डब्ल्यू.पी.डिकेन, तीसरी मद्रास लाईट इन्फेंट्री की अगुआई में किया गया था और इसका प्रथम लक्ष्य निन्ज्ञान (प्यिन्माना) था। बंटे हुए बड़ी मात्र में प्रतिरोध के बावजूद ये अभियान पूरी तरह सफल रहे और इसके बाद सेनाएं आगे बढ़ कर यमेथिन व ह्लैंगदेत की ओर चल दीं। जैसे-जैसे अंतर्देशीय अभियान विकसित हुआ, घुड़सवार सेना की कमी महसूस होने लगी, अश्वारोही सेना की कई रेजीमेंटों को भारत से बुलाया गया, जबकि घुड़सवार सेना को स्थानीय रूप से विकसित किया जाने लगा। ब्रिटिश लोगों ने अवलोकन किया कि घुड़सवार सेना के बिना बर्मन लोगों से सफलतापूर्वक युद्ध करना सामन्य रूप से असंभव है।

इन्हें भी देंखें

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विकिस्रोत में इस लेख से सम्बंधित, मूल पाठ्य उपलब्ध है:

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