त्रिलोचन प्राचीन भारतीय दार्शनिक थे। वे वाचस्पति मिश्र के गुरु थे।

त्रिलोचन न्याय दर्शन विशेषिक सम्प्रदाय के उच्चकोटि के व्याख्यता रहे होंगे। उनका समय ८०० ई० का रहा होगा।

त्रिलोचन का उल्लेख कई दार्शनिक ग्रन्थों में मिलता है परन्तु उनकी कोई कृति उपलब्ध नही है। तार्किक रक्षा में दो स्थलों पर त्रिलोचन का उल्लेख किया गया है। रत्नकीर्ति ने अपोहसिद्धि तथा क्षणभंग सिद्धि में त्रिलोचन की आलोचना की है। बौद्धाचार्य मोक्षाकार ने त्रिलोचन का दो स्थलो पर उल्लेख किया है। डा० गोपीनाथ कविराज ने ठीक ही कहा है कि उदयन हमें बतलाते है की उद्योतकर के ग्रन्थों का पुनरुद्धार का कार्य में वाचस्पति मिश्र ने अपने विद्यागुरु त्रिलोचन के आभारी है। वाचस्पति मिश्र के इस उक्ति की ब्यख्या करते हुए उदयनाचार्य लिखते हैं-

त्रिलोचनोगुरुः सकाशाद उपदेशरषायनम् असादितम् अमुषां पुनर्नविभावाय दीयते ॥
(अर्थ : त्रिलोचन गुरु से साक्षात् उपदेशरूपी रसायन वाचस्पति मिश्र ने प्राप्त किया। वह रसायन इन उद्योतकर की बूढ़ी गायों को फिर से तारुण्य प्राप्त कराने के लिए दिया गया।)

इससे ये स्पष्ट होता है की त्रिलोचन ही वाचस्पति मिश्र के गुरु थे। वचस्पति के अद्भुत प्रतिभा का विकास में उनका पर्याप्त योगदान रहा होगा।