थेवा 17वीं शताब्दी में मुग़ल काल में राजस्थान के राजघरानों के संरक्षण में पनपी एक बेजो़ड हस्तकला [1] है। थेवा की हस्तकला कला स्त्रियों के लिए सोने मीनाकारी और पारदर्शी कांच के मेल से निर्मित आभूषण के निर्माण से सम्बद्ध है। इसके इने गिने शिल्पी-परिवार राजस्थान के केवल प्रतापगढ़ [2] जिले में ही रहते हैं। थेवा-आभूषणों के निर्माण में विभिन्न रंगों के शीशों (कांच) को चांदी के महीन तारों से बने फ्रेम में डाल कर उस पर सोने की बारीक कलाकृतियां उकेरी जाती है, जिन्हें कुशल और दक्ष हाथ छोटे-छोटे औजारों की मदद से बनाते हैं। यह आभूषण-निर्माण कला अपनी मौलिकता और कलात्मकता के कारण विश्व की उन इनी गिनी हस्तकलाओं में से एक है - जो अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार और विपणन के अभाव में जल्दी विलुप्त हो सकती हैं|

प्रतापगढ़ के लोकप्रिय थेवा-आभूषण

नाम का अभिप्राय संपादित करें

"थेवा" नाम की उत्पत्ति इस कला के निर्माण की दो मुख्य प्रक्रियाओं 'थारना' और 'वाड़ा' से मिल कर हुई है।

निर्माण प्रक्रिया संपादित करें

इस कला में पहले कांच पर सोने की बहुत पतली वर्क या शीट लगाकर उस पर बारीक जाली बनाई जाती है, जिसे थारणा कहा जाता है। दूसरे चरण में कांच को कसने के लिए चांदी के बारीक तार से फ्रेम बनाया जाता है, जिसे "वाडा" कहा जाता है। तत्पश्चात इसे तेज आग में तपाया जाता है। फलस्वरूप शीशे पर सोने की कलाकृति और खूबसूरत डिजाइन उभर कर एक नायाब और लाजवाब कृति का आभूषण बन जाती है।

काँच पर कंचन का करिश्मा कहे जाने वाली यह शिल्प काँच पर सुनहरी पेंटिंग की तरह है, जो चित्रकारी की नींव पर जन्म लेती है। इस शिल्प की रचना जटिल, कठिन तथा श्रमसाध्य तो है ही, परन्तु सोने पर चित्रांकित शिल्प को काँच में समाहित कर देने का कमाल इन मुट्ठी भर कारीगरों के ही बस की बात है। शिल्प चित्रण को 23 केरेट सोने के पत्तर पर ‘टांकल’ नामक एक विशेष कलम से उकेरा जाता है और कुशलतापूर्वक बहुरंगी कांच पर मढ़़ दिया जाता है। जब दोनों पदार्थ सोना और काँच परस्पर जुड़ कर एकमेक एक जीव हो जाते हैं तो सोने में काँच और काँच में सोना दिखलाई पड़ता है। इसी को थेवा कला कहते हैं। काँच की झगमग को और अधिक प्रभावशाली तथा उम्दा बनाये रखने के लिए इसे एक खास प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है जिससे कि काँच में समाहित सोने का कार्य उभार देने लगे और देखने वाले के मन को छू ले। इस प्रकार शिल्प का प्रत्येक नमूना पारदर्शी काँच का हो जाता है और उस पर माणिक, पन्ना तथा नीलम जैसी प्रभा दिखलाई पड़ती है। इस कला को उकेरने में बेल्जियम से विशेष प्रकार के काँच इस्तेमाल होते थे, पर ऐसे काँचों की अनुपलब्धता से अब अलग उम्दा काँच का इस्तेमाल होता हैं।

आधुनिक विकास संपादित करें

प्रारम्भ में थेवा का काम लाल, नीले और हरे रंगों के मूल्यवान पत्थरों हीरा, पन्ना आदि पर ही होता था, लेकिन अब यह काम पीले, गुलाबी और काले रंग के कांच के रत्नों पर भी होने लगा है। पहले इस कला से बनाए जाने वाले बाक्स, प्लेट्स, डिश आदि पर धार्मिक अनुकृतियाँ और लोकप्रिय लोककथाएं उकेरी जाती थीं, लेकिन अब यह कला आभूषण के साथ-साथ पेंडेंट्स, इयर-रिंग, टाई और साडियों की पिन, कफलिंक्स, फोटोफ्रेम आदि में भी प्रचलित हो चली है। इस कला को कई निजी उपक्रमों द्वारा आधुनिक फैशन की विविध डिजाइनों में ढालकर लोकप्रिय बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं।

कलाकार संपादित करें

इस कला को जानने वाले देश में अब गिने चुने परिवार ही बचे हैं। ये परिवार राजस्थान के नवगठित प्रतापगढ़ जिले में रहने वाले राजसोनी घराने के हैं, जिन्हें इस अनूठी कला के लिए कई अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय पुरस्कार मिल चुके हैं। एन्साइकलोपीडिया ब्रिटेनिका के "पी" उपखंड में प्रतापगढ़ की इस विशिष्ट आभूषण परंपरा का उल्लेख किया गया है। राजस्थान की इस बेजोड़ आभूषण परंपरा के सरकारी संरक्षण के प्रयास आज भी अपर्याप्त हैं |

हालांकि भारत सरकार द्वारा, थेवा कला की प्रतिनिधि-संस्था राजस्थान थेवा कला संस्थान प्रतापगढ़ को इस अनूठी कला के संरक्षण में विशेषीेकरण के लिए वस्तुओं का भौगोलिक उपदर्शन (रजिस्ट्रीकरण तथा संरक्षण) अधिनियम, 1999 के तहत् ज्योग्राफिकल इंडिकेशन संख्या का प्रमाण-पत्र प्रदान किया गया है। उल्लेखनीय है कि ज्योग्राफिकल इंडीकेशन किसी उत्पाद को उसकी स्थान विशेष में उत्पत्ति एवं प्रचलन के साथ विशेष भौगोलिक गुणवत्ता एवं पहचान के लिए दिया जाता है।

थेवा कला के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित और थेवा कला संस्थान के एक हस्तशिल्पी सदस्य महेश राज सोनी को विश्वास है कि अब भौगोलिक उपदर्शन संख्या मिलने के बाद यह कला अपनी भौगोलिक पहचान को अच्छी तरह से कायम रखने में कामयाब हो पायेगी।[3][मृत कड़ियाँ] डाक टिकट इस शिल्प कला पर नवम्बर 2002 में पांच रुपये का डाक टिकिट भी जारी हुआ है।

राज सोनी परिवार संपादित करें

  • नाथू जी सोनी के परिवार को सुमंत/सामंत सिंह (प्रतापगढ़) ने "राज सोनी" परिवार की उपाधि प्रदान की।
  • एन्साइकलोपीडिया ब्रिटेनिका का "पी" खंड

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें