रास
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रास एक धार्मिक परिकल्पना है जो गौडीय वैष्णव आदि कृष्णभक्ति परम्परा में विशेष रूप से देखने को मिलती है। इस शब्द का प्रयोग निम्बार्क और चैतन्य महाप्रभु से भी दो हजार वर्ष पूर्व देखने को मिल जाती है। चैतन्य परम्परा में तैत्तिरीय उपनिषद के 'रसो वै सः' (वस्तुतः भगवान 'रस' है) को प्रायः उद्धृत किया जाता है।
रास का अर्थ
संपादित करें‘ रास ’ शब्द का अर्थ ‘रस’ है। भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही रस के अवतार हैं। एक ही रस जब किसी क्रीड़ा द्वारा अनेक रसों में प्रकट होता है, तब उस रस का रसास्वादन करने को ‘रास’ या ‘रासलीला’ कहा गया है। वहाँ भावनाओं का अतिरेक होता है। उनकी कोई सीमा नहीं होती है। इसमें आत्मा का भगवान से मिलन होता है, शरीर बीच में नहीं रहता। काम-भावनाओं की उस समय कोई आवश्यकता नहीं होती है। प्रेम की उत्कृष्ट पराकाष्ठा को ही रास कहा गया है। ये प्रेमभक्ति पास रहने से नहीं अंतःकरण में प्रेम को रख कर होती है। ये अप्राकृत लोक में हो सकता है या फिर इस भाव के प्रेम रस की झलक माता के वात्सल्य में मिलती है। ‘रास’ को कुछ और मानना अक्षम्य अपराध की श्रेणी में आता है। ये रास का प्रेम भाव ही था जिस के द्वारा मीरा ने भगवान श्रीकृष्ण को पा लिया था। (श्रीमद्भागवत महापुराण, दशम स्कंध (पूर्वार्द्ध) २९ अध्याय)[1]
सन्दर्भ
संपादित करेंश्रीमद्भागवत महापुराण