दरीबा कलाँ दिल्ली के चाँदनी चौक के पास एक ऐतिहासिक मोहल्ला है। मुग़लों के ज़माने से ही यहाँ ज़ेवरों की दुकानें रही हैं। सोने, चांदी, हीरे और मोती के आभूषणों के लिए तो यह बाज़ार प्रसिद्ध है ही लेकिन यहाँ का इत्र भी पिछले दो सौ साल से मशहूर है।

नाम की उत्पत्ति संपादित करें

कहा जाता है के दरीबा का नाम फ़ारसी वाक्य "दुर-ए-बेबाहा" से आया है, जिसका मतलब है "बिना बराबरी के मोती"।[1] "दुर" (در) का अर्थ फ़ारसी में "मोती" है और "बेबाहा" का अर्थ है "बिना बराबरी वाला"। "कलाँ" का मतलब "बड़ा" होता है।

इतिहास और संस्कृति में संपादित करें

१७३९ में ईरान से नादिर शाह ने आक्रमण किया और दिल्ली पर क़ब्ज़ा करने में सफल हो गया। उसने कई हज़ार लोगों के क़त्ल का आदेश दिया और उसकी फौजों ने दरीबा कलाँ की जवाहरात की सारी दुकानों को लूटा।

२००५ में बनी "बंटी और बबली फ़िल्म के लोकप्रिय "कजरा रे" गाने में भी दरीबा कलाँ का ज़िक्र आता है।

इन्हें भी देखें संपादित करें

बहरी कड़ियाँ संपादित करें

  • "दुर-ए-बेबाहा" - यु-ट्यूब पर दरीबा कलाँ पर एक प्रस्तुति जिसमें बाज़ार के नज़ारे हैं

सन्दर्भ संपादित करें