दसनामी संप्रदाय (नाथ गोस्वामी)

नाथ गोस्वामी समाज के अंदर आने वाला एक उप संप्रदाय है जिसके संस्थापक आदि गुरु शंकराचार्य को माना जाता है,

दशनामी शब्द संन्यासियों जोगी,भारती,गिरि,पुरी,नाथ,योगी,सरस्वती,वन, तीर्थ,सागर,अरण्य,पर्वत, आश्रम नाम के एक संगठन विशेष गोस्वामियों के लिए प्रयुक्त होता है और प्रसिद्ध है कि उसे सर्वप्रथम स्वामी शंकराचार्य ने चलाया था,गोस्वामियों को आदि गुरु शंकराचार्य जी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी भी माना जाता है।


सनातन धर्म में इनकी "गुरुजी" , नाथ जी, जोगी बाबा के रूप में प्रसिद्धि हैं। वेद पुराण में इनको गोSशर्यु, वैदिक ब्राह्मण, योगी ब्राह्मण,तपोधन ब्राह्मण, शिरोजन्मा ब्राह्मण,नाथ ब्राह्मण शिरज ब्राह्मण आदि नाम से जाना जाता है।

आदि गुरु शंकराचार्य जी ने चार मठ भारत के चार कोनो में स्थापित किए

जोशी मठ उत्तर,श्रंगेरी मठ दक्षिण, गोवर्धन मठ पश्चिम,शारदा मठ पूर्व

प्रत्येक मठ में एक एक वेद का अध्यन दिया गया

सभी ब्राह्मण अथवा संत महात्मा इन्ही मठों से दीक्षा लेते थे

इसलिए नाथ दशनामी गोस्वामी विशुद्ध ब्राह्मण है।।

नाथ संप्रदाय गुरु गोरखनाथ ने चलाया था नाथ संप्रदाय सन्यासियो का संप्रदाय था

नाथ गोस्वामी संप्रदाय साधना और औघड़ भक्ति तंत्र मंत्र के कार्य करते थे

गोस्वामी संप्रदाय में शिक्षा दीक्षा दी जाती है एवं मंदिर एवं मठों की सुरक्षा का कार्य प्रमुख है

गोस्वामी सिर्फ ब्राह्मण ही बने थे जबकि नाथ संप्रदाय विभिन्न जाति के लोगों ने अपनाया था

कहते हैं, शंकराचार्य ने अपने मत के प्रचारार्थ भारतभ्रमण करते समय चार मठों की स्थापना की थी जिनमें उक्त शृंगेरी मठ के अतिरिक्त उत्तर में जोशीमठ, पूर्व में गोवर्धन मठ तथा पश्चिम में शारदामठ नामों के थे। इन चारों के पृथक्-पृथक् आचार्य क्रमश: हस्तामलक, त्रोटकाचार्य, पद्मपादाचार्य एवं स्वरूपाचार्य बतलाए जाते हैं और इनकी विभिन्न परंपराओं के ही साथ क्रमश: पुरी, भारती एवं सरस्वती, गिरि पर्वत एवं अरण्य तथा तीर्थ एवं आश्रम जैसे उक्त दशनामों के सबंधित होने की भी चर्चा की जाती है। इन चारों में से शृंगेरी मठ का क्षेत्र आंध्र, द्रविड़, कर्णाटक एवं केरल प्रदेशों तक सीमित समझा जाता है, इसका तीर्थस्थान रामेश्वरम् है, इसका वेद यजुर्वेद है, महावाक्य "अहं ब्रह्मास्मि" है, गोत्र "भूरिवर" है और इसके ब्रह्मचारी "चैतन्य" कहलाते हैं जहाँ जोशी मठ के क्षेत्र में उत्तर के कुरु, पांचाल, कश्मीर, कंबोज एवं तिब्बत आदि आ जाते हैं, इसका तीर्थस्थान बदरिकाश्रम है, वेद अथर्ववेद है, महावाक्य "अयमात्मा ब्रह्म" है, गोत्र "आनंदवर" है तथा इसके ब्रह्मचारी भी "आनन्द" कहे जाते हैं। इसी प्रकार गोवर्धनमठ का क्षेत्र भी अंग, वंग, कलिंग, मगध, उत्कल एवं बर्बर तक विस्तृत है, इसका तीर्थस्थान पुरी है, इसका वेद ऋग्वेद है, महावाक्य "प्रज्ञानं ब्रह्म" है, गोत्र "भोगवर" है तथा इसके ब्रह्मचारी "प्रकाश" कहे जाते हैं जहाँ शारदामठ का क्षेत्र सिंधु, सौवीर, सौराष्ट्र एवं महाराष्ट्र तक चला जाता है। इसका वेद सामवेद है, महावाक्य "तत्वमसि" है, गोत्र "कीटवर" है तथा इसके ब्रह्मचारी भी "स्वरूप" कहे जाते हैं जो दूसरों से सर्वथा भिन्न है।

दशनामियों की 52 गढ़ियाँ भी प्रसिद्ध हैं जिनमें से 27 गिरियों की, 16 पुरियों की, 4 भारतीयों की, 4 वनों की तथा 1 लामा की कही जाती है और तीर्थों, आश्रमों, सरस्वतियों तथा भारतीयों में से आधे अर्थात् साढ़े तीन "दंडी" और शेष छह "गोसाई" कहे जाते हैं।

दशनामी साधुओं के प्रत्येक वर्ग में, उनकी आध्यात्मिक दशा के स्तरभेदानुसार चार कोटियाँ हुआ करती हैं जिन्हें क्रमश: कुटीचक्र, बहूदक, हंस एवं परमहंस कहा जाता है और इनमें से प्रथम दो को कभी-कभी "त्रिदंडी" की भी संज्ञा दी जाती है। दीक्षा के समय ब्रह्मचारियों की अवस्था प्राय: 17-18 से कम की नहीं रहा करती और वे ब्राह्मण, क्षत्रिय वा वैश्य वर्ण के ही हुआ करते हैं। उन्हें कतिपय विधियों के अनुसार अनुष्ठान करना पड़ता है और उन्हें बतला दिया जाता है कि तुम्हें गैरिक वस्त्र, विभूति एवं रुद्राक्ष को धारण करना पड़ेगा, शिखासूत्र का परित्याग करना होगा तथा दीक्षामंत्र के प्रति पूर्ण निष्ठा रखनी होगी। संन्यास ग्रहण कर लेने पर वे विरक्त होकर तीर्थभ्रमण करते हैं और कभी-कभी अपने सांप्रदायिक मठों में भी रहा करते हैं। इनके दैनिक आचार संबंधी नियमों में रात और दिन मिलाकर केवल एक ही समय भोजन करना, बस्ती से बाहर निवास करना, अधिक से अधिक सात घरों से भिक्षा ग्रहण करना, केवल पृथ्वी पर ही शयन करना, किसी को प्रणाम न करना और न किसी की निंदा करना तथा केवल संन्यासी का ही अभिनंदन करना आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जो दशनामी साधु किसी वैसे मठधारी का चेला बनकर उसका उत्तराधिकारी हो जाता है उसे प्रबंधादि भी करने पड़ते हैं।

उद्देश्य

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दशनामी संन्यासियों का उद्देश्य धर्मप्रचार के अतिरिक्त धर्मरक्षा का भी जान पड़ता है। इस दूसरे उद्देश्य की सिद्धि के लिए उन्होंने अपना संगठन विभिन्न अखाड़ों के रूप में भी किया है। ऐसे अखाड़ों में से "जूना अखाड़ा" (काशी) के इष्टदेव कालभैरव अथवा कभी-कभी दत्तात्रेय भी समझे जाते हैं और "आवाहन" जैसे एकाध अन्य अखाड़े भी उसी से संबंधित हैं। इसी प्रकार "निरंजनी अखाड़ा" (प्रयाग) के इष्टदेव कार्तिकेय प्रसिद्ध हैं और इसकी भी "आनंद" जैसी कई शाखाएँ पाई जाती हैं। "महानिर्वाणी अखाड़ा" (झारखंड) की विशेष प्रसिद्धि इस कारण है कि इसने ज्ञानवापी युद्ध औरंगजेब के विरुद्ध ठान दिया था। इसके इष्टदेव कपिल मुनि माने जाते हैं तथा इसके साथ अटल जैसे एकाध अन्य अखाड़ों का भी संबंध जोड़ा जाता है। इन अखाड़ों में शस्त्राभ्यास कराने की व्यवस्था रही है और इनमें प्रशिक्षित होकर नागाओं ने अनेक अवसरों पर काम किया है। इनके प्रमुख महंत को "मंडलेश्वर" कहा जाता है जिसके नेतृत्व में ये विशिष्ट धार्मिक पर्वो के समय एक साथ स्नान भी करते हैं तथा इस बात के लिए नियम निर्दिष्ट है कि इनकी शोभायात्रा का क्रम क्या और किस रूप में रहा करे।

दशनामियों के जैसे अन्य नागाओं के कुछ उदाहरण हमें दादू पंथ आदि के धार्मिक संगठनों में भी मिलते हैं जिनके लोगों ने, जयपुर जैसी कतिपय रियासतों का संरक्षण पाकर, उन्हें समय समय पर सहायता पहुँचाई हैं। दशनामियों में कुछ गृहस्थ भी होते हैं जिन्हें "गोसाई" कहते हैं।

विभिन्न नाम

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दसनामी संप्रदाय मे सन्यासी के अलाबा ग्रहस्त शाखा भी है जो गोस्वामी समाज के नाम से जानी जाती है.

 एक शंकर एक मंत्र “ओम नमः शिवाय”