दारुल उलूम देवबन्द
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दारुल उलूम देवबन्द: भारत में एक इस्लामी मदरसा है जहां से देवबंदी आंदोलन शुरू हुआ था। यह 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की विफलता के मद्देनजर भारतीय मुस्लिम धर्मशास्त्रियों द्वारा स्थापित किया गया था, जिसने मुगल साम्राज्य के उन्मूलन और दक्षिण एशियाई मुसलमानों की राजनीतिक-आर्थिक दुर्दशा के कारण बना था। इसका उद्देश्य मुस्लिम समाज में सुधार और उत्थान करना था, और आधुनिकता , हिंदुओं एवं ईसाई मिशनरी गतिविधियों के प्रभाव से मुस्लिम संस्कृति को संरक्षित करना था। यह देवबंद में स्थित है, जो उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले का कस्बा है।
लातिन: दारुल उलूम देवबन्द | |
प्रकार | इस्लामी विश्वविद्यालय |
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स्थापित | 30 मई 1866 |
संस्थापक | मुहम्मद क़ासिम नानोत्वी, रशीद अहमद गंगोही, en:Yaqub Nanautawi, en:Rafiuddin Deobandi, en:Sayyid Muhammad Abid, फजलुर रहमान उस्मानी, जुल्फिकार अली देवबंदी[1] |
कुलाधिपति | मजलिस-ए-शुरा |
अधिशिक्षक | अबुल कासिम नोमानी |
छात्र | Approx 5000 |
स्थान | देवबन्द, उत्तर प्रदेश, भारत |
परिसर | देवबन्द |
उपनाम | दारुल उलूम |
जालस्थल | www |
स्थापना
संपादित करेंदारुल उलूम देवबन्द की स्थापना 1857 में हुई। मुगल मुस्लिम शासक के हटने के पश्चात अनेक मुस्लिम संगठन या तो बन्द हो चुके थे या दिशाहीन रूप से मौजूद थे। ऐसे में देवबन्द में दारुल उलूम की स्थापना हुई जिसका लक्ष्य भारत के मुसलमानों को इस्लामी शिक्षा प्रदान करना है। इस संस्था को विश्व-भर के मुस्लिम शिक्षा संस्थाओं को विशेष स्थान प्राप्त हुआ था।[2]
इतिहास
संपादित करेंस्वर्ग समान भारत वर्ष में मुसलमान बादशाहों के शासन काल के इतिहास का समय बड़ा प्रकाशमान और उज्जवल रहा है। मुस्लिम शासकों ने भारत वर्ष की उन्नति और विदेशों में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इस की साख को मज़बूत करके ऐसे कार्य किये जो भारत वर्ष के इतिहास में सुनहरे शब्दों में लिखे जाने के योग्य हैं। इस्लामी हुकूमत का आरम्भ पहली शताब्दी हिजरी (सातवीं ईसवी शताब्दी) से होजाता है। और गंगा जमुना की लहरों की भांति यह सल्तनत अपने स्थान से चलकर देश के हर भाग पर लहराती, बलखाती फैलती चली जाती है। बारहवीं हिजरी शताब्दी (18वीं ईसवी शताब्दी) तक पूरी शान के साथ मुस्लिम शासक हिन्दुस्तानियांे के दिलों पर शासन करते हैं। यह कहना अनुचित न होगा कि औरंगज़ेब आलमगीर मुस्लिम हुकूमतों के उत्थान व पतन के बींच सीमा रेखा थे। उनकी मृत्यु के पश्चात ही देश खण्डित हो गया, और संयुक्त भारत अलग-अलग प्रंातों और रजवाड़ों में बंटता चला गया। यद्यपि इस के बाद भी डेढ़ सौ साल तक मुग़लों की हुकूमत रही। मगर यह हुकूमत निर्जीव थी। प्रशासकों के अन्दर शासन की आत्मा मर गई थी। इस उथल पुथल और विद्रोह के समय केन्द्रीय सरकार की कमज़ोरी के कारण, भारत की अन्दरुनी और विदेशी जातियों ने बड़ा लाभ उठाया। हर एक प्रान्त के सरदार को एक दूसरे से डरा धमका कर और सहायता व इमदाद का ढांैग रचकर विरोध को ख़ूब बढ़ावा दिया गया, और केन्द्रीय सरकार को अधिक से अधिक कमज़ोर करने का पूरा प्रयत्न किया गया जिस में उन को पूरी सफलता मिली।
औरंगज़ेब आलमगाीर के बाद डेढ़ सौ साल के उत्थान पतन और विद्रोह का अन्दाज़ा इस बात से भली भांति लगाया जा सकता है कि केवल पचास साल की मुद्दत में 1707 ई॰ से 1757 तक दिल्ली के तख्त पर दस बादशाह बिठाये और उतारे गये, जिन में केवल चार अपनी प्राकृतिक मौत से मरे। इनके अतिरिक्त कई क़त्ल किये गये किसी की आंखों को लोहे की गर्म सलाखों से फोड़ दिया गया। कुछ ने क़ैदखानों की अंधेरी कोठरी में अपनी जान दी।
सोलहवी शताब्दी के अन्त में अंग्रेज़ व्यापारी भारत में आने प्रारम्भ हुए। 1600 ई॰ में महारानी एलिज़बेथ की आज्ञा से ईस्ट इण्डिया कम्पनी भी स्थापित हो गई थी। डेढ़ सौ साल तक इन लोगों को केवल अपने व्यापार से ही सम्बंध या सम्पर्क रहा लेकिन जब आलमगीर और मुअज़्ज़मशाह की मुग़लिया परिवार की हुकूमतों में फूट पड़ने लगी और देश में आन्तरिक युद्ध आरम्भ हो गये तो समय के संकट से लाभ उठाकर अंग्रेज़ भी मैदान में उतर आये और धोखेबाज़ी से काम लेकर प्रत्येक प्रान्त में विश्वासघातों को जन्म दिया। अंग्रेज़ों की यह एक ऐसी चाल थी जिस के कारण उन्हों ने बहुत ही आसानी से टिड्डी दल फौज को लेकर दक्षिण बंगाल, मैसूर, पंजाब, सिंध, बर्मा और अवध को विजय करते हुए 1857 ई॰ में दिल्ली के लाल किले पर भी क़ब्ज़ा कर लिया। और मुग़ल परिवार के अंतिम चिराग़ बहादुर शाह ज़फर को बन्दी बनाकर रंगून भेज दिया जहां वह सदैव के लिये मृत्यु की गोद में सो गये। इस प्रकार ईस्ट इण्डिया कम्पनी पूरे भारत पर छा गई। इस प्रकार इंग्लैण्ड की सरकार इस मुल्क की बाग डोर अपने हाथ में लेकर स्याह-सफे़द की मालिक बन गई।
1857 ई॰ में पूरे मुल्क मंे स्वतन्त्रता की लडा़ई लड़ी गई, मगर इस युद्ध में असफलता मिली जिस के पश्चात भारतीयों पर अत्यचार आरम्भ हो गये। अत्याचार इतने कठोर थे कि उन को सुन कर हृदय कांप उठता है। अंग्रेजों के अत्यचारों का सीधा निशाना मुसलमान थे, क्योंकि हुकूमत मुसलमानों ही से छीनी गई थी, इस लिये उन कों इन्हीं से गड़बड़ी की आशंका थी। 1857 ई॰ के स्वतन्त्रता संग्राम में ब्रिटिश गवर्नर जनरल ने यह घोषणा कर दी थी कि हमारे विरोधी वास्तव में मुसलमान हैं, अतः 1857 ई॰ के यु़द्ध में असफलता के पश्चात अंग्रेज़ों ने जी भरकर बदला लिया, और आलिमों, कवियों, लेखकों और नेताओं को चुन-चुन कर क़त्ल करना आरम्भ कर दिया।
सर विलयम मयूर ने अपनी पुस्तक ’बग़ावते हिन्द’ में कुछ गोपनीय दस्तावेज़ों का संदर्भ देते हुए लिखा हैः “18 नवम्बर 1858 ई॰ के प्रातः काल चैबीस शहज़ादों को दिल्ली में फंासी दी गई“ आगे लिखते हैः ”झज्जर, बल्लब गढ़, फर्रूख़नगर और फर्रुख़ाबाद के अमीरों और नवाबों ने स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लिया था, अतः उन में से कुछ को फांसी पर लटका दिया गया और कुछ को काला पानी की सज़ा दी गई। (कवाइफ़ व सहाइफ़ पृष्ठ 13)
आलिमों के साथ इतना कठोर अत्याचार और ज़ुल्म किया गया कि इतिहासकारों का कलम उन को लिखने से कांपता है। गोया 1857 ई॰ का स्वतन्त्रता संग्राम पशुता और अत्याचार का न समाप्त होने वाला सिलसिला लेकर आरम्भ हुआ था। ह़ज़रत हाजी इमदादुल्लाह साह़ब मुहाजिर मक्की के प्रसिद्ध ख़लीफ़ा ह़ज़रत मौलाना रशीद अह़मद गंगोही और ह़ज़रत मौलाना क़ासिम नानौतवी आदि ने एक इस्लामी फौजी यूनिट स्थापित करके अंग्रेज़ों के विरुद्ध शामली, थानाभवन, और कैराना आदि में युद्ध का मोर्चा खोल दिया। ह़ज़रत हाजी इमदादुल्ला साह़ब अमीरुल मोमिनीन, मौलाना रशीद अह़मद गंगोही वज़ीर लामबन्दी, हाफिज़ ज़ामिन साह़ब अमीर जिहाद, मौलाना मुह़म्मद क़ासिम नानौतवी कमाण्डर इनचीफ़, मौलाना मुनीर साह़ब ह़ज़रत नानौतवी के फौजी सैक्रेट्री और सय्यद हसन असकरी दिल्ली के क़िले में सियासी मेम्बर चुने गये। इस लिये इन लोगों को अंग्रेज़ों के अत्याचार का श्यामपट बनना अवश्यक था।
जिहादे शामली के पश्चात, अंग्रेज़ों ने थानाभवन पर आक्रमण कर दिया और पूरे क़स्बे को जलाकर राख के ढेर में बदल दिया। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले वीरों को फंासी पर लटकाया जाने लगा। हाजी इमदादुल्लाह साह़ब, मौलाना क़ासिम नानौतवी और मौलाना रशीद अह़मद गंगोही के वारन्ट जारी कर लिये गये और बन्दी बनाने वालों या पता देने वालों के लिये असंख्य पुरस्कारों की घोषणा की गयी। वारन्ट का क्या हुआ यह अलग बात है, बताना यह है कि अंग्रेज़ों ने मुसलमानों को दबाने, कुचलने, तबाह व बरबाद करने में विशेष रुप से मौलवियों को क़त्ल करने में तनिक भी झिझक अनुभव नहीं की। 1857 ई, के स्वतन्त्रता संग्राम में लगभग दो लाख मुसलमान शहीद हुए जिन में पचपन हज़ार से अधिक उलमा (मोलवी) थे।
अंग्रेज़ अपने बुरे इरादों के अधीन धीरे-धीरे भारत की राजनीतिक, शैक्षिक, और प्रशासनिक गतिविधियों में मुदाख़लत (हस्तक्षेप) करने लगे थे। इस उद्देश्य से स्थान-स्थान पर बाईबिल सोसाइटियाँ स्थापित की गईं। इंजील का अनुवाद देश की समस्त भाषाओं में किया गया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्कीम यह थी कि भारत के निवासियों विशेष रुप से मुसलमानों को असहाय और निर्धन बना दिया जाये, जिसके लिये उचित और अनुचित साधनों को अपना कर कार्य किया जाता था। इस मार्ग में सबसे बडी रुकावट मुसलमानों की शिक्षा थी। इस के लिये 1251 हि॰ तदनुसार 1835 ई, का शैक्षिक प्रोग्राम बनाया गया जिस की आत्मा लार्ड़ मैकाले के विचार में इस प्रकार थी- ”एक ऐसी जमात तैयार की जाये जो रंग और नस्ल के लिहाज़ से तो हिन्दुस्तानी हो मगर विचार और व्यवहार के लिहाज़ से ईसाइयत के सांचे में ढली हो“।
अंग्रेज़ी सभ्यता की यह चाल, मुसलमानों की धार्मिक ज़िन्दगी सामाजिक रस्म-ओ-रिवाज और ज्ञान विज्ञान को बरबाद करने वाली थी। जिस को स्वीकार करने में वे किसी प्रकार भी तैयार नही हो सकते थे। अभी तक वह अपनी धार्मिक ज़िन्दगी बरक़रार (स्थिर) रखने का कोई समाधान न सोच सके थे कि उसी बीच 1857 ई॰ का युद्ध छिड़गया, जिसकी तबाह व बरबाद करने वाले कार्यो ने दिलों को भयभीत कर दिया और आत्मा को मुर्दा बना दिया। लोगों के दिलों पर मायूसी की घटायें छा गईं।
भारत में मुसलमानों के इतिहास में यह सब से अधिक भयानक और ख़तरनाक समय था। इसी दुख भरे वातावरण में जब मुसलमानों की संस्कृति को मिटाने और नेतृत्व को समाप्त करने का प्रयत्न किया जा रहा था, ह़ज़रत मौलाना मुह़म्मद क़ासिम नानौतवी, व हाजी मुह़म्मद अ़ाबिद और आपके साथियों ने अंग्रेज़ों को अपने उद्देश्यों में असफल बनाने और मुसलमानों को एक केन्द्र पर लाने के लिये 15 मुहर्रम 1283 हि॰ यानी 31 मई 1866 ई॰ ब्रहस्पतिवार के दिन मस्जिद छŸता में अनार के पेड़ के नीचे एक मदरसा इस्लामिया अरबिया (दारुल उ़लूम देवबन्द) स्थापित किया, जिस की वास्तविकता स्वतन्त्रता संग्राम के लिये एक फौजी छावनी की थी और जिसपर शिक्षा का सुनहरा पर्दा डाल दिया गया था। इस वास्तविकता का वर्णन ब्रिटिश सरकार की सी0आई0डी0 ने अपनी गुप्त रिपोर्ट में इन शब्दों में बयान किया है- ”रेशमी रूमाल षडयन्त्र में जो मोलवी शामिल हैं लगभग वे तमाम इसी मदरसे दारुल उ़लूम से शिक्षा प्राप्त किये हुए हैं।” बाद में यह मदरसा इसलामी संगठन और जिहाद का गढ़ और मौलाना महमूद हसन ने अपने प्रधानाध्यापक होने के समय में जो जिहाद का अन्दोलन आरम्भ किया था उसका केन्द्र बना। (रेशमी ख़ुतूत साज़िश केस पृष्ठ 191)
दारुल उ़लूम देवबन्द की स्थापना किसी समय के आवेश या व्यक्तिगत हौसले के आधार पर नहीं बल्कि इस की नींव एक निश्चित स्कीम और एक जमात की सोची समझी स्कीम के तहत रखी गई है। जिस का समर्थन इस घटना से होता है कि दारुल उ़लूम की स्थापना के पश्चात शाह रफ़ीउद्दीन देवबन्दी हज के लिये मक्का मुअज़्ज़मा गये तो वहां हजरत हाजी इमदादुल्ला साह़ब से अर्ज़ किया (कहा) कि हमने देवबन्द में एक मदरसा स्थापित किया है, उस के लिये दुआ फरमाइयें, तो ह़ज़रत हाज़ी साह़ब ने फ़रमाया – ”सुबहानल्लाह, आप फरमाते हैं कि हमने मदरसा स्थापित किया है, यह ख़बर नहीं कि कितनी सिर प्रातः कालीन समय में सज्दे करके गिड़गिड़ाते रहे कि ऐ अल्लाह हिन्दुस्तान में इस्लाम की सुरक्षा का कोई साधन पैदा कर दे। यह मदरसा उन्हीं की दुआओं का फल है। देवबन्द का भाग्य है कि इस अमूल्य वस्तु को यह भूमि ले उड़ी।”
इस तरह ह़ज़रत नानौतवी और ह़ज़रत हाजी मुह़म्मद अ़ाबिद साह़ब आदि ने दारुल उ़लूम को स्थापित करके अपने कार्य से यह घोषणा कर दी कि ”हमारी शिक्षा का उद्येश्य ऐसे नवयुवक तैयार करना है जो रंग व नसल के लिहाज़ से हिन्दुस्तानी हों और दिल दिमाग़ से इसलामी हों, जिन में इस्लामी सभ्यता और संस्कृति की भावना जागी हो, वे दीन और सियासत के आधार पर इस्लामी हों। इस का एक लाभ यह हुआ कि भारत में पाश्चात्य सभ्यता के फैलाव पर रोक लग गयी और बात एक तरफ़ा न रही बल्कि अगर एक ओर ब्रिटिश समर्थकों ने जन्म लिया और दूसरी ओर मशरक़ियत (इसलामी सभ्यता) का पालन करने वालों की जमात ने सामने आकर मुक़ाबला किया। जिस से यह भय जाता रहा कि मग़रबियत (पश्चिमी सभ्यता) की बाढ़ पूरब को बहा ले जायेगी बल्कि अगर उस की धारा का रेला बहाव पर आयेगा तो ऐसे बांध भी बन गये हैं जो उसको बे रोक टोक आगे नहीं बढ़ने देंगे“।
यह है ”मदरसा अ़रबी इसलामी देवबन्द“ यानी अ़रबी मदरसों की जननी की स्थापना की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, जिससे स्पष्ठ है कि दारुल उ़लूम देवबन्द उसी क्रांति का केन्द्र हैै जिस को इमामुल हिन्द शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी ने स्थापित किया था। उसी क्रांति का रक्त दारुल उ़लूम की रगों में अभी तक संचार कर रहा है।
भारत की स्वतन्त्रता में दारुल उलूम देवबन्द की भूमिका
संपादित करेंइस्लामी दुनिया में दारुल उलूम देवबन्द का एक विशेष स्थान है जिसने पूरे क्षेत्र को ही नहीं, पूरी दुनिया के मुसलमानों को प्रभावित किया है। दारुल उलूम देवबन्द केवल इस्लामी विश्वविद्यालय ही नहीं एक विचारधारा है, जो काफ़िरों के विरुद्ध इस्लाम को अपने मूल और शुद्ध रूप में प्रसारित करता है। इसलिए मुसलमानों में इस विचाधारा से प्रभावित मुसलमानों को ”देवबन्दी “ कहा जाता है।
देवबन्द उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण नगरों में गिना जाता है जो जनसंख्या के हिसाब से तो एक लाख से कुछ अधिक जनसंख्या का एक छोटा सा नगर है। लेकिन दारुल उलूम ने इस नगर को बड़े-बड़े नगरों से भारी व सम्मानजनक बना दिया है, जो न केवल अपने गर्भ में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रखता है।
आज देवबन्द इस्लामी शिक्षा के प्रचार व प्रसार के लिए संपूर्ण संसार में प्रसिद्ध है। इस्लामी शिक्षा एवं संस्कृति में जो समन्वय आज हिन्दुस्तान में देखने को मिलता है उसका सीधा-साधा श्रेय देवबन्द दारुल उलूम को जाता है। यह मदरसा मुख्य रूप से उच्च अरबी व इस्लामी शिक्षा का केन्द्र बिन्दु है। दारुल उलूम ने न केवल इस्लामी सहित्य के सम्बन्ध में विशेष भूमिका निभाई है, बल्कि भारतीय समाज में इस्लामी सोच व संस्कृति को नवीन आयाम तथा अनुकूलन दिया है।
दारुल उलूम देवबन्द की आधारशिला 30 मई 1866 में हाजी आबिद हुसैन व मौलाना क़ासिम नानौतवी द्वारा रखी गयी थी। वह समय भारत के इतिहास में राजनैतिक उथल-पुथल व तनाव का समय था, उस समय अंग्रेजो के विरूद्ध लड़े गये प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857 ई॰) की असफलता के बादल छट भी न पाये थे और अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति दमनचक्र तेज़ कर दिया गया था, चारों ओर हा-हा-कार मची थी। अंग्रेजों ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति से स्वतन्त्रता आन्दोलन (1857) को कुचल कर रख दिया था। अधिकांश आन्दोलनकारी शहीद कर दिये गये थे, और शेष को गिरफ्तार कर लिया गया था, ऐसे सुलगते माहौल में देशभक्त और स्वतन्त्रता सेनानियों पर निराशाओं के प्रहार होने लगे थे। चारो ओर खलबली मची हुई थी। एक प्रश्न चिन्ह सामने था कि किस प्रकार भारत के बिखरे हुए समुदायों को एकजुट किया जाये, किस प्रकार भारतीय संस्कृति और शिक्षा जो टूटती और बिखरती जा रही थी, की सुरक्षा की जाये। उस समय के नेतृत्व में यह अहसास जागा कि भारतीय जीर्ण व खंडित समाज उस समय तक विशाल एवं जालिम ब्रिटिश साम्राज्य के मुकाबले नहीं टिक सकता, जब तक सभी वर्गों, धर्मों व समुदायों के लोगों को देश प्रेम और देश भक्त के जल में स्नान कराकर एक सूत्र में न पिरो दिया जाये। इस कार्य के लिए न केवल कुशल व देशभक्त नेतृत्व की आवश्यकता थी, बल्कि उन लोगों व संस्थाओं की आवश्यकता थी जो धर्म व जाति से ऊपर उठकर देश के लिए बलिदान कर सकें।
इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संस्थानों ने इस्लाम का पाठ पढ़ाया उनमें दारुल उलूम देवबन्द के कार्यों व सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता। स्वर्गीय मौलाना महमूद अल-हसन (विख्यात अध्यापक व संरक्षक दारुल उलूम देवबन्द) उन सैनानियों में से एक थे जिनके क़लम, ज्ञान, आचार व व्यवहार से एक बड़ा समुदाय प्रभावित था, इन्हीं विशेषताओं के कारण इन्हें शैखुल हिन्द (भारतीय विद्वान) की उपाधि से विभूषित किया गया था, उन्होंने न केवल भारत में वरन विदेशों (अफ़गानिस्तान , ईरान , तुर्की , सऊदी अरब व मिश्र ) में जाकर भारत व ब्रिटिश साम्राज्य की भत्र्सना की और भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों के विरूद्ध जी खोलकर अंग्रेजी शासक वर्ग के विरुद्ध बात की।
शेखुल हिन्द ने अपने सुप्रिम शिष्यों व प्रभावित व्यक्तियों के मध्यम से अंग्रेज़ के विरूद्ध प्रचार आरंभ किया और हजारों मुस्लिम आंदोलनकारियों को ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल कर दिया। इनके प्रमुख शिष्य मौलाना हुसैन अहमद मदनी , मौलाना उबैदुल्ला सिंधी थे जो जीवन पर्यन्त अपने गुरू की शिक्षाओं पर चलते रहे और अपने इस्लामी भावनाओं व नीतियों के कारण ही भारत के मुसलमान स्वतन्त्रता सेनानियों व आन्दोलनकारियों में एक भारी स्तम्भ के रूप में जाने जाते हैं।
सन 1914 ई. में मौलाना उबैदुल्ला सिन्धी ने अफगानिस्तान जाकर अंग्रेजो के विरुद्ध अभियान चलाया और काबुल में रहते हुए भारत की स्वंतत्र सरकार स्थापित की जिसका राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप को बना गया। यहीं पर रहकर उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस की एक शाख कायम की जो बाद में (1922 ई. में) मूल कांग्रेस संगठन इंडियन नेशनल कांग्रेस में विलय कर दी गयी। शेखुल हिन्द 1915 ई. में हिजाज़ (सऊदी अरब का पहला नाम था) चले गये, उन्होने वहाँ रहते हुए अपने साथियों द्वारा तुर्की से सम्पर्क बना कर सैनिक सहायता की माँग की।
सन 1916 ई. में इसी सम्बन्ध में शेखुल हिन्द इस्तानबुल जाना चहते थे। मदीने में उस समय तुर्की का गवर्नर ग़ालिब पाशा तैनात था उसने शेखुल हिन्द को इस्तमबूल के बजाये तुर्की जाने की लिए कहा परन्तु उसी समय तुर्की के युद्धमंत्री अनवर पाशा हिजाज़ पहुंच गये। शेखुल हिन्द ने उनसे मुलाक़ात की और अपने आंदोलन के बारे में बताया। अनवर पाशा ने भातियों के प्रति सहानुभूति प्रकट की और अंग्रेज साम्राज्य के विरूद्ध युद्ध करने की एक गुप्त योजना तैयार की। हिजाज़ से यह गुप्त योजना, गुप्त रूप से शेखुल हिन्द ने अपने शिष्य मौलाना उबैदुल्ला सिंधी को अफगानिस्तान भेजा, मौलाना सिंधी ने इसका उत्तर एक रेशमी रूमाल पर लिखकर भेजा, इसी प्रकार रूमालों पर पत्र व्यवहार चलता रहा। यह गुप्त सिलसिला ”तहरीक ए रेशमी रूमाल“ के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। इसके सम्बंध में सर रोलेट ने लिखा है कि “ब्रिटिश सरकार इन गतिविधियों पर हक्का बक्का थी“।
सन 1916 ई. में अंग्रेज़ों ने किसी प्रकार शेखुल हिन्द को मदीने में गिरफ्तार कर लिया। हिजाज़ से उन्हें मिश्र लाया गया और फिर रोम सागर के एक टापू मालटा में उनके साथयों मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना उज़ैर गुल हकीम नुसरत , मौलाना वहीद अहमद सहित जेल में डाल दिया था। इन सबको चार वर्ष की बामुशक्कत सजा दी गयी। सन 1920 में इन महान सैनानियों की रिहाई हुई।
शेखुल हिन्द की अंग्रेजों के विरूद्ध रेशमी पत्र आन्दोलन (तहरीके-रेशमी रूमाल) , मौलाना मदनी की सन 1936 से सन 1945 तक जेल यात्रा, मौलाना उजै़रगुल, हकीम नुसरत, मौलाना वहीद अहमद का माल्टा जेल की पीड़ा झेलना, मौलाना सिंधी की सेवायें इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण हैं कि दारुल उलूम ने स्वतंत्रता संग्राम में मुख्य भूमिका निभाई है। इस संस्था ने ऐसे अनमोल रत्न पैदा किये जिन्होंने अपनी मात्र भूमि को स्वतंत्र कराने के लिए अपने प्राणों को दांव पर लगा दिया। ए. डब्ल्यू मायर सियर पुलिस अधीक्षक (सीआई़डी राजनैतिक) पंजाब ने अपनी रिपोर्ट नं. 122 में लिखा था जो आज भी इंडिया आफिस लंदन में सुरक्षित है कि ”मौलाना महमूद हसन (शेखुल हिन्द) जिन्हें रेशमी रूमाल पर पत्र लिखे गये, सन 1915 ई. को हिजरत करके हिजाज़ चले गये थे, रेशमी ख़तूत की साजिश में जो मौलवी सम्मिलित हैं, वह लगभग सभी देवबन्द स्कूल से संबंधित हैं।
गुलाम रसूल मेहर ने अपनी पुस्तक ”सरगुज़स्त ए मुजाहिदीन“ (उर्दू) के पृष्ठ नं. 552 पर लिखा है कि ”मेरे अध्ययन और विचार का सारांश यह है कि हज़रत शेखुल हिन्द अपनी जि़न्दगी के प्रारंभ में एक रणनीति का ख़ाका तैयार कर चुके थे और इसे कार्यान्वित करने की कोशिश उन्होंने उस समय आरंभ कर दी थी जब हिन्दुस्तान के अंदर राजनीतिक गतिविधियां केवल नाममात्र थी“।
उड़ीसा के गवर्नर श्री बिशम्भर नाथ पाण्डे ने एक लेख में लिखा है कि दारुल उलूम देवबन्द भारत के स्वतंत्रता संग्राम में केंद्र बिन्दु जैसा ही था, जिसकी शाखायें दिल्ली , दीनापुर , अमरोत , कराची , खेड़ा और चकवाल में स्थापित थी। भारत के बाहर उत्तर पशिमी सीमा पर छोटी सी स्वतंत्र रियासत ”यागि़स्तान “ भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र था, यह आंदोलन केवल मुसलमानों का न था बल्कि पंजाब के सिक्खों व बंगाल की इंकलाबी पार्टी के सदस्यों को भी इसमें शामिल किया था।
इसी प्रकार असंख्यक तथ्य ऐसे हैं। परन्तु दारुल उलूम की विचारधारा टस से मस न हुई। इसने डट कर इन सबका विरोध किया और इंडियन नेशनल कांग्रेस के संविधान में ही अपना विश्वास व्यक्त कर पाकिस्तान का विरोध किया। आज भी दारुल उलूम अपने देशप्रेम की विचार धारा के लिए सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध है।
दारुल उलूम देवबन्द में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा, भोजन, आवास व पुस्तकों की सुविधा दी जाती है। दारुल उलूम देवबन्द ने अपनी स्थापना से आज (हिजरी 1283 से 1424) सन 2002 तक लगभग 95 हजार महान विद्वान, लेखक आदि पैदा किये हैं। दारुल उलूम में इस्लामी दर्शन, अरबी, फारसी, उर्दू की शिक्षा के साथ साथ किताबत (हाथ से लिखने की कला) दर्जी का कार्य व किताबों पर जिल्दबन्दी, उर्दू, अरबी, अंग्रेजी, हिन्दी में कम्प्यूटर तथा उर्दू पत्रकारिता का कोर्स भी कराया जाता है। दारुल उलूम में प्रवेश के लिए लिखित परीक्षा व साक्षात्कार से गुज़रना पड़ता है। प्रवेश के बाद शिक्षा मुफ्त दी जाती है। दारुल उलूम देवबन्द ने अपने दार्शन व विचारधारा से मुसलमानों में एक नई चेतना पैदा की है जिस कारण देवबन्द स्कूल का प्रभाव भारतीय महादीप पर गहरा है।
इन्हें भी देखें
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करें- ↑ Iqbal Hasan Khān, Shaykh al-Hind Mawlāna Mahmūd Hasan: Hayāt awr Ilmi Kārnāme, पृ॰ 116
- ↑ दारुल उलूम देवबन्द का इतिहास,दारुल उलूम की स्थापना की पृष्ठभूमि',पृष्ठ 12