देवीदत्त शर्मा () एक उद्यमी और अन्वेषी व्यक्ति थे। उन्होने 'उद्योग मंदिर' की स्थापना की थी। उन्होने कई चीजों का विकास (आविष्कार) किया। उन्होंने इन स्वनिर्मित वस्तुओं का घूम-घूम कर काफी प्रचार किया। वह राष्ट्रीय चेतना का काल था। स्वदेशी वस्तुओं और राष्ट्रभाषा के उत्थान के लिये लोगों में ललक थी। देवीदत्त जी ने घरेलू औषधि विज्ञान, विविध उद्योग-धन्धों तथा अध्यात्म पर भी काफी कार्य किया। पहाड़ में प्रचलित स्याही बनाने, कागज बनाने, जड़ी-बूटियों से औषधियाँ, सुरमा, दंतमंजन और साबुन बनाने की कला का उन्होंने जीर्णोद्धार किया। उनके बनाये देवी दंतमंजन, देवी वज्रदन्ती और देवी चर्बी-रहित शुद्ध साबुन को लोगों ने काफी सराहा। उनकी लिखी ‘हिमालय जड़ी-बूटी प्रकाश’ पुस्तक वन-विभाग के प्रत्येक कर्मचारी के लिए अनिवार्य कर दी गई थी। उनकी हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी मिश्रित विद्या भरी पुस्तक जो किंडरगार्टन बक्सा नं० एक के साथ दी जाती थी, की लोकप्रियता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि सन् 1962 में उसका 2,000 पुस्तकों वाला 20वाँ संस्करण छप चुका था।

सन् 1911 में देवीदत्त ने कलकत्ते में अपनी खोज का पंजीकरण कराया। सन् 1914 में उन्हें अलीगढ़ में आयोजित प्रदर्शनी में ताम्रपत्र और 1933 में देहली की अखिल भारतीय स्वदेशी प्रदर्शनी में रजत पदक से सम्मानित किया गया। उनके ‘उद्योग मन्दिर’ में दर्जन भर लोग कार्य करते थे। वहाँ नाना प्रकार की शिक्षण सामग्री का निर्माण होता था। शक्ल पहचानने की पिटारियाँ, गणित सिखाने के बक्से, गिनती की छोटाई-बढ़ाई समझाने के बक्से, अंक तथा पहाड़े सिखाने के चार्ट, अक्षर सिखाने का सिनेमा, गोलियों वाले फ्रेम, लकड़ी व टिन के अक्षर, स्याही, चाकू, लाकेट के बक्से जैसे एक सौ से भी अधिक प्रकार के बक्सों का उन्होंने निर्माण किया।

जीवन परिचय संपादित करें

देवीदत्त का जन्म सन् 1883 में महरगाँव (नैनीताल) के समीपवर्ती एक गाँव में लक्ष्मीदत्त शर्मा के घर में हुआ था। उनके साथ प्रकृति और परिवार दोनों ने विश्वासघात किया। उनके दो पुत्रों में से उनका चहेता पुत्र विक्षिप्त हो गया था और दूसरा दर्पवश बौराया था। विक्षिप्त ने तो उन्हें लाचारीवश क्लेश दिया जबकि द्वितीय ने शारीरिक यंत्रणा देकर उनका जीवन दूभर बनाया। निश्चय ही यह दो जीवनादर्शां का टकराव था। शायद परिवार वालों को भी शर्मा जी की दिनचर्या से नफरत थी। वे जितने दिन गाँव में रहते, प्रातः-सायं एक हाथ और दूसरे में कुदाल लेकर घूमते और आगाह करते रहते। मार्ग के दोनों ओर के मानवमल को ढाँकना, कीचड़ को पाटना, जलस्रोत को साफ रखना और सर्वत्र सफाई करना उनका नित्य कर्तव्य था। पर विडम्बना थी कि घंटी की आवाज सुना कर, सफाई में एकाकी जुटकर भी सदियों से चली आयी गंदगी की आदत से वे लोगों को पूर्णतः मुक्त न कर सके। उनका पहनावा भी अति साधारण था। उनके पास दो बड़े थैले होते थे, जिनमें उनके द्वारा निर्मित वस्तुएँ भरी होती थीं। उनकी सबसे बड़ी पहचान थी 42 इंची, 16 सीकों वाला विशाल छाता, जो उनकी विज्ञापन और दुकान दोनों था। छाते के कपड़े पर सफेद रंग से बड़े-बड़े अक्षरों में उनका संदेश लिखा होता था। भला ऐसे ‘महाछत्रक’ को परिवार वाले क्यों कर चाहते ? खाली समय वे छाता तान, चद्दर बिछा कर सड़क के किनारे बैठकर अपने कपड़ों को सिलते रहते थे।

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें