देवीसिंह महाजन बंगाल के एक अर्थलोलुप महाजन थे जिन्होंने अंग्रेजों की सहायता से कृषकों तथा जमींदारों पर काफी अत्याचार किया था।

परिचय संपादित करें

सन् १७६५ में बंगाल तथा बिहार की दीवानी मिलने पर ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों ने लगान वसूल करने का भार मुहम्मद रज़ा खाँ को सौंप दिया। उसने देवीसिंह को अपनी ओर से पूर्णिया का राजस्व वसूल करने के लिए भेजा। १७६८ में देवी सिंह ने जिले के सभी परगनों से लगान इकट्ठा करने का एकाधिकार प्राप्त कर लिया। उसने इतनी सख्ती से और इतना बढ़ा चढ़ाकर लगान वसूल करना आरंभ किया कि लोग घरबार छोड़कर भागने लगे। पूर्णिया जनशून्य हो गया। फिर भी देवीसिंह की अर्थलोलुपता शांत नहीं हुई। उसने जमींदारों को पकड़वाकर कैद करा दिया और उनकी स्त्रियों को कचहरी में बुलवाकर उनके आभूषण उतरवा लिए तथा उन्हें अनेक तरह से अपमानित किया।

निदान देवीसिंह के उत्पीड़न की खबरें धीरे धीरे चारों तरफ फैलने लगीं। उस समय तो वे किसी तरह बच गए और उनके बजाए केवल रज़ा खाँ ही पदच्युत किए गए किंतु कुछ समय बाद और भी बातें प्रकाश में आने पर देवीसिंह भी अपने पद से हटा दिए गए। फिर भी गवर्नर हेस्टिंग्ज ऐसे काम के आदमी को अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहता था। अत: अवसर मिलते ही उन्होंने गंगागोविंदसिंह की सिफारिश पर १७७३ ई. में देवीसिंह को मुर्शिदाबाद की प्रादेशिक समिति का दीवान बना दिया। इस प्रकार उन्हें एक बार फिर शोषण और उत्पीड़न द्वारा अपार धनराशि इकट्ठी करने का अवसर मिल गया।

देवीसिंह ने अनुभव किया कि प्रादेशिक समिति के सदस्यों के कारण उनके कार्य में विघ्न पड़ सकता है, इसलिए उन्होंने उन्हें खुश रखने की भरपूर चेष्टा की। उन्हें विलायत की अच्छी से अच्छी शराब तथा बहुमूल्य उपहार देना शुरू किया और उनके भोगविलास की सामग्री जुटाते रहने का भी यत्न किया। इस तरह देवीसिंह को मनमाना राजस्व वसूल कर मालामाल हो जाने की पूरी छूट मिल गई। किंतु कुछ ही समय बाद समिति सदस्यों में रिश्वत के बँटवारे को लेकर परस्पर झगड़ा शुरू हुआ और सन् १७७८ में उन लोगों ने देवीसिंह को पदच्युत कर देने का निश्चय किया।

सन् १७८० में दिनाजपुर के राजा के निधन पर उनके भाई तथा दत्तक पुत्र में झगड़ा हुआ। हेस्टिंग्ज ने चार लाख रुपए मेहनताना लेकर नाबालिग दत्तक पुत्र का हक स्वीकार कर लिया और राज्य व्यवस्था का भार गुडलाड नामक युवक के हाथ सौंप दिया। इसी सिलसिले में उन्होंने देवीसिंह को गुडलाड साहब का दीवान बना दिया। देवीसिंह ने गुडलाड के सहयोग और सम्मति से राजा के पुराने कर्मचारियों को सेवाच्युत कर दिया और राजा के गुजारे की रकम भी १६०० रुपए मासिक से घटाकर ६०० रुपए कर दी। देवीसिंह की ओर से फिर वही ज्यादती शुरू हुई जिससे समस्त दीनाजपुर में आतंक और असंतोष छा गया।

देवीसिंह ने रंगपुर से राजस्व वसूल करने के लिए अपने प्रतिनिधि रूप में हरराम नामक व्यक्ति को भेजा जिसने और भी अधिक कठोरता से लगान वसूल करना आरंभ किया। उसने काफी रकम वसूल की किंतु इससे देवीसिंह को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने हरराम की सहायता के लिए, तरह तरह की हिदायत देकर सूर्यनारायण नामक एक और व्यक्ति को भेजा। अब उत्पीड़न की मात्रा तेजी से बढ़ने लगी। जमींदारों तथा संभ्रांत पुरुषों की स्त्रियाँ खुले मैदान में खड़ी की गई। अत्याचारी और उद्दंड कर्मचारियों द्वारा अपने हाथ से उनके जेवर उतारे गए और अशिष्टतापूर्वक उनका अपमान किया गया। कितनी ही स्त्रियों को अपनी लज्जा और मर्यादा की रक्षा के लिए विवश होकर आत्मघात कर लेना पड़ा। अनाचार तथा उत्पीड़न की पराकाष्ठा होने पर जनता ने देंवीसिंह का डटकर विरोध करने तथा कंपनी सरकार के कर्मचारियों को देश के बाहर खदेड़ देने का संकल्प किया। गुडलाड ने लेफ्टिनेंट मैकडोनल्ड को विद्रोह का दमन करने के लिए भेजा। स्थिति कुछ शांत होने पर कलकत्ता कौंसिल ने विद्रोह के कारणों की जाँच के लिए पीटरसन को नियुक्त किया। उनके द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट को झूठी गवाहियों तथा अविश्वासनीय तथ्यों पर आधारित कहकर हेस्टिंग्ज ने अमान्य ठहराया और सन् १७८४ में जाँच के लिए नया कमीशन नियुक्त किया। किंतु अगले ही वर्ष उन्हें भारत छोड़कर चले जाना पड़ा। अब लार्ड कार्नवालिस भारत के गर्वनर जनलर होकर आए। उन्हें बहुत सी बातों का पता चला किंतु कुछ लोगों ने मिल जुलकर ऐसा षड्यंत्र रचा कि देवीसिंह के खिलाफ अपराध साबित न हो सका। उन्हें कोई दंड तो नहीं दिया गया पर लार्ड कार्नवालिस ने उन्हें सरकार की नौकरी से स्थायी रूप से पृथक् कर दिया। देवीसिंह मुर्शिदाबाद के नसीपुर स्थान में जा बसे और जीवन के शेष दिन उन्होंने वहीं बिताए।